पार्टियों में तानाशाही और हाईकमान का सिस्टम खत्म हो

Edited By ,Updated: 15 Jan, 2024 05:16 AM

the of dictatorship and high command in parties should end

शिवसेना पार्टी में दलबदल के विवाद में स्पीकर ने शिंदे या ठाकरे किसी भी गुट के विधायक को अयोग्य घोषित नहीं किया है।

शिवसेना पार्टी में दलबदल के विवाद में स्पीकर ने शिंदे या ठाकरे किसी भी गुट के विधायक को अयोग्य घोषित नहीं किया है। पार्टी पर शिंदे गुट के कब्जे की मान्यता के बाद अब ठाकरे गुट के विधायकों को विधानसभा में सत्ता पक्ष की बैंच में बैठने की बात भी हो रही है। इस फैसले के बाद दलबदल विरोधी कानून अप्रासंगिक होने के साथ पूरी पार्टी को हाईजैक करने का रास्ता साफ हो गया है।

इस पूरे विवाद में चुनाव आयोग, राज्यपाल, स्पीकर और सुप्रीम कोर्ट की भूमिकाओं के निर्धारण के साथ पाॢटयों में घट रहे लोकतंत्र का आकलन जरूरी है। राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां व्यक्ति और वंशवाद पर केन्द्रित हैं। दूसरी तरफ विचारधारा के दम पर चलने वाली राष्ट्रीय पाॢटयां भी हाईकमान और एकाधिकार के मर्ज से मुक्त नहीं हो पा रही हैं। आजादी के बाद नेहरू के समय से ही कैबिनेट प्रणाली को कमजोर करके प्रधानमंत्री के वर्चस्व की शुरूआत हो गई थी।

इंदिरा गांधी के दौर में ‘इंदिरा इज इंडिया’ के नारे के साथ प्रधानमंत्री के आगे पूरा मंत्रिमंडल बौना और अर्थहीन हो गया। धीरे-धीरे इस मर्ज और कुप्रथा से सभी पाॢटयां, राज्य की सरकारें और अफसरशाही ग्रस्त हो गई। महाराष्ट्र के मामले से साफ है कि वहां पर शिवसेना के संविधान की बजाए ठाकरे परिवार की इच्छा ही नियम और कानून बन गई थी। अधिकारों के केन्द्रीयकरण की वजह से बकाया नेता, विधायक, सांसद और मंत्री दल-बदल की मंडी में नीलामी के लिए तैयार हो जाते हैं।

पार्टियों के संगठन और सदस्यों का ब्यौरा सार्वजनिक हो : ठाकरे गुट के अनुसार चुनाव आयोग और स्पीकर ने 2018 के संशोधित संविधान को दरकिनार करके 1999 के पुराने संविधान के अनुसार गलत फैसला दिया। उनके अनुसार 2019 के चुनावों में शिवसेना पार्टी के नेता के तौर पर सर्वे-सर्वा उद्धव ठाकरे की भूमिका पर चुनाव आयोग ने आपत्ति नहीं जाहिर की थी। लेकिन ठाकरे गुट को भी दो जरुरी सवालों का जवाब देना चाहिए।

पहला-उन्होंने संशोधित संविधान को चुनाव आयोग को क्यों नहीं दिया? अगर दिया तो उसके प्रमाण क्यों नहीं हैं? दूसरा-संशोधित संविधान में उद्धव ठाकरे ने अपने पास सर्वाधिकार क्यों सुरक्षित किए। शिंदे गुट के विधायक और मंत्री भी शिवसेना के 2018 के संविधान के हिस्सेदार थे तो फिर उसके तहत ठाकरे को मिले एकाधिकार को कैसे इंकार कर सकते हैं। बगावत के बाद शिंदे गुट ने हमेशा एक अलग धड़े की मान्यता की मांग की थी। दो तिहाई विधायकों का गुट होने के बाद उन्हें किसी अन्य पार्टी में शामिल होने पर ही दल-बदल कानून के तहत अयोग्यता से मुक्ति मिल सकती थी। रिकॉर्ड में दर्ज तथ्यों को नजरअंदाज करके स्पीकर ने जो फैसला दिया है वह दल-बदल कानून के ताबूत में आखिरी कील जैसा ही है।

राजनीतिक हिंसा के शिकार लोगों के साथ जुड़ाव का सभी पार्टियां दावा करती हैं लेकिन कार्यकत्र्ता या पदाधिकारी के अपराधों में लिप्त होने के भंडाफोड़ होने पर पाॢटयां उनसे किनारा कर लेती हैं। दलबदल कानून के तहत पार्टियों में वर्चस्व के निर्धारण के लिए विधायक और सांसदों के साथ कार्यकर्ताओं का आकलन जरूरी है। इसके लिए सभी पार्टियों को संगठन और कार्यकर्ताओं का ब्यौरा ऑनलाइन करने के साथ चुनाव आयोग के साथ सांझा करने की जरूरत है। इससे पार्टियों में पारर्दशिता के साथ जवाबदेही बढ़ेगी जिसकी भारत के लोकतंत्र को बहुत ज्यादा जरूरत है।

दफन होता दल-बदल कानून : स्पीकर ने अगर शिंदे गुट को शिवसेना माना है तो फिर उस लिहाज से ठाकरे गुट के विधायकों को अयोग्य घोषित करना चाहिए था। संतुलन बनाए रखने के चक्कर में स्पीकर ने कानूनी प्रक्रिया का सही अर्थों में पालन नहीं किया। इस पूरे मामले का लब्बोलुआब यह है कि केन्द्र सरकार का जिस गुट के ऊपर हाथ है, उसी को राज्यपाल सरकार बनाने के लिए बुलाएंगे। उसके अनुसार स्पीकर और अन्य संस्थानों की भूमिका भी निर्धारित होने से कानून के बौने होने का खतरा बढ़ गया है।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के अनेक आदेश के बाद स्पीकर ने लम्बा-चौड़ा फैसला सुनाया है। सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि इस मामले से जुड़े लगभग 2.7 लाख पेजों का अध्ययन करने के बाद स्पीकर को फैसला देना था। जिन मामलों को टालना होता है उनमें इतनी लम्बी-चौड़ी कार्रवाई हो जाती है कि उसका निपटारा कई पीढिय़ों की मुकद्दमेबाजी के बावजूद नहीं हो पाता।

महाराष्ट्र और दूसरे अन्य राज्यों के मामलों से साफ है कि दल-बदल कानून के तहत स्पीकरों के अधिकार और भूमिका को निर्धारित करने के लिए कानून में बदलाव की जरूरत है। स्पीकर के नहीं रहने पर डिप्टी स्पीकर का पद महत्वपूर्ण होता है। लेकिन महाराष्ट्र मामले में नेताओं की सियासी गुगली और सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश से डिप्टी स्पीकर की भूमिका अर्थहीन हो गई। लोकसभा और विधानसभाओं में डिप्टी स्पीकर के पद को मुख्य विपक्षी दल को देने की स्वस्थ परम्परा की भी अनदेखी होने लगी है।

ठाकरे गुट नए तरीके से फिर इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाएगा। इस साल 2024 में महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव भी होंगे। ‘एक देश एक चुनाव’ मामले पर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की समिति जिस तेजी से आगे बढ़ रही है, उसके मसौदे को सफल बनाने के लिए लोकसभा के साथ महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव भी कराए जा सकते हैं। ऐसे में स्पीकर का फैसला और सुप्रीम कोर्ट में दायर अपील सिर्फ अकादमिक महत्व की रह जाएगी।

शिवसेना प्रकरण से सबक लेते हुए अजीत पवार ने विधायकों का गुट बनाने की बजाय पूरी एन.सी.पी. पर ही अपना दावा ठोंक दिया। इसकी वजह से शरद पवार गुट के विधायकों और सांसदों पर अयोग्यता की तलवार लटकने लगी है। लेकिन चुनाव नजदीक आने की वजह से एन.सी.पी. मामले में स्पीकर से ज्यादा जनता की अदालत का फैसला महत्वपूर्ण होगा। -विराग गुप्ता (एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट)

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