Edited By ,Updated: 30 Dec, 2025 05:28 AM

तमिलनाडु में एक जिला है तूतीकोरन। यहां के ही एक गांव, कट्टूनायकनपट्टी में रहती हैं 57 वर्ष की पिचैयम्मल। उनका विवाह 20 वर्ष की उम्र में शिव नामक लड़के से हुआ था। लेकिन दुर्भाग्य से 15 दिनों के भीतर ही उनके पति की मृत्यु हो गई। इसके बाद समय पर...
तमिलनाडु में एक जिला है तूतीकोरन। यहां के ही एक गांव, कट्टूनायकनपट्टी में रहती हैं 57 वर्ष की पिचैयम्मल। उनका विवाह 20 वर्ष की उम्र में शिव नामक लड़के से हुआ था। लेकिन दुर्भाग्य से 15 दिनों के भीतर ही उनके पति की मृत्यु हो गई। इसके बाद समय पर उन्होंने एक बेटी को जन्म दिया। पति के बिना जीवन बेहद कठिन था। कोई साथ देने वाला भी नहीं। ऐसे में किस तरह अपनी बच्ची और खुद को पालें। जहां भी काम करने की कोशिश करतीं, वहीं उन्हें तरह-तरह के अपमान और शोषण का शिकार होना पड़ता। लोग पिचैयम्मल की स्थिति पर सहानुभूति दिखाने की बजाय तरह-तरह से उन्हें परेशान करते। छेडख़ानी और यौन प्रताडऩा हर रोज की बात थी। लेकिन पिचैयम्मल ने हार नहीं मानी। वह घबराई होंगी, तो भी साहस के साथ निर्णय लेकर खड़ी हो गईं। ऐसा कठोर निर्णय, जिसकी किसी को कल्पना भी नहीं थी। वह भी आज नहीं, 36 साल पहले।
उन्होंने स्त्री की वेशभूषा छोड़कर, पुरुष के कपड़े पहन लिए-लुंगी और कमीज। बाल भी वैसे ही कटवा लिए। भाषा, बोली भी पुरुषों की तरह बोलने लगीं। अपना नाम भी मुत्थू रख लिया। पुरुष के इस वेश में उहोंने एक-दो नहीं, पूरे साढ़े तीन दशक से अधिक बिताए। सिर्फ कुछ रिश्तेदारों और बच्ची को उनकी पहचान के बारे में पता था। यहां तक कि सरकारी कागजात जैसे कि राशन कार्ड, आधार कार्ड, वोटर आई.डी. तक में उनकी पहचान मुत्थू के नाम से ही है। अब पिचैयम्मल की बेटी की शादी हो चुकी है। वह अपने परिवार में रम चुकी है। घर में कोई आर्थिक तंगी भी नहीं है लेकिन पिचैयम्मल अब शेष जीवन मुत्थू के नाम के साथ ही बिताना चाहती हैं। हालांकि मनरेगा के काम के वक्त उहोंने अपनी असली पहचान बताई थी। पिचैयम्मल का कहना है कि जिस नाम और वेश के कारण उन्हें और उनकी बेटी को सुरक्षा और ताकत मिली, वे जीवन को जी सकीं, उसे क्यों छोड़ें। इससे तो उन्हें बहुत प्यार है।
ध्यान से देखें, तो इस पूरी कहानी में स्त्रियों के जीवन की भयावह मुसीबतें छिपी हैं। एक स्त्री जो मात्र 15 दिनों में विधवा हो गई, उसे आखिर अपने परिवार और सुसराल वालों का सहारा क्यों नहीं मिला? वह पढ़ी-लिखी क्यों नहीं थी? आखिर 20 साल की उम्र तक तो वह अपने माता-पिता के साथ रही थी। अगर शिक्षित होती तो शायद ऐसा कोई काम करती, जहां सुरक्षा और सम्मान दोनों होते और पहचान भी नहीं बदलनी पड़ती। फिर 19वीं सदी में चलाए गए विधवा विवाह आंदोलन का क्या हुआ? क्या वह इतना समय बीत जाने के बाद भी मात्र कागजों और कोरे आदर्श तक ही सीमित है? इस लेखिका ने दिल्ली जैसे महानगर में अनेक विधवा स्त्रियों को देखा है, जिन्होंने अपने बलबूते बच्चे पाले। कभी दूसरा विवाह नहीं किया। उनका कहना था कि बच्चों के पिता तो पहले ही नहीं हैं, अब अगर वे दूसरा विवाह कर लें, तो न जाने बच्चों पर क्या बीते। इन स्त्रियों से कई लोग यह भी कहते थे कि तुम से तो शादी कर लेंगे, मगर बच्चों को नहीं अपनाएंगे। पति-पत्नी या स्त्री-पुरुष में यही भेद है। अधिकांश स्त्रियां बच्चों की ङ्क्षचता में दूसरा विवाह नहीं करतीं, मगर आदमियों के साथ ऐसा नहीं होता। शरतचंद्र चटर्जी और महादेवी वर्मा की रचनाओं के पात्र जैसे आज भी जस के तस हैं। फिर यह बात भी चलती ही है कि अभी पत्नी की चिता की राख भी ठंडी नहीं होती, कि दूसरे रिश्ते आने लगते हैं। आसपास ऐसा होते भी देखा है। फिर पिचैयम्मल की गरीबी तो इसका कारण है ही। मान लीजिए कि उनके पास आॢथक संसाधन होते, तो शायद ऐसा जीवन न जीना पड़ता।
इस कथा में सबसे बड़ी बात महिला सुरक्षा से भी संबंधित है। अक्सर लोग बयान देते रहते हैं कि पहले महिलाओं के साथ इतनी अभद्रता नहीं होती थी, जैसी कि इन दिनों। मगर इस स्त्री की कहानी तो इस बात की ताईद नहीं करती। यदि पिचैयम्मल स्त्री बनकर सुरक्षित रह सकतीं, तो भला पुरुष का वेश क्यों धरतीं। इस कहानी का सबसे महत्वपूर्ण बिंदू यह है कि अपने समाज में, चाहे उत्तर भारत हो या दक्षिण भारत, कश्मीर या पंजाब अथवा देश का कोई और भाग, यहां पुरुष अगर गरीब है, कम उम्र है, कम पढ़ा-लिखा है, विधुर है, एक बच्ची का पिता है, तो भी वह जीवन यापन कर सकता है। उसकी सुरक्षा का कोई खतरा नहीं है। जबकि इन्हीं परिस्थितियों का सामना करने वाली स्त्री के सामने खतरे ही खतरे हैं। ऐसे में उन कानूनों का क्या फायदा, जो स्त्रियों की सुरक्षा के लिए बनाए गए हैं। स्त्री-पुरुष की बराबरी का राग भी रात-दिन सुनाई देता है।क्या पिचैयम्मल की कहानी हमें कुछ सोचने को मजबूर करती है? नहीं करती, तो क्यों नहीं करती? पुरुष बनकर भी उनका जीवन आसान नहीं रहा होगा। स्त्री होने के सभी चिन्हों को उन्होंने आखिर कैसे छिपाया होगा। छिपा भी लिया होगा, तो उसका बोझ सिर पर कितना रहा होगा। क्योंकि बताने के मुकाबले, छिपाने का बोझ बहुत अधिक होता है। हर पल सावधान रहना पड़ता है कि किसी को पता न चल जाए। हालांकि इस स्त्री की हिम्मत की दाद देनी पड़ती है।-क्षमा शर्मा