‘छोटे किसान’ के पास भी मोल भाव करने की ताकत है

Edited By ,Updated: 04 Oct, 2020 04:32 AM

the small farmer  also has the power to negotiate

कृषि में मूल सुधारों का हो रहा विरोध एक ऐसे नाउम्मीद आर्थिक माडल पर आधारित है जो प्रतियोगी बाजार के लाभों को कमजोर करता है। वह पुराना माडल उस समाजवाद को गुमराह करने वाले समझौतों पर आधारित है जिसने भारत को कभी भी...

कृषि में मूल सुधारों का हो रहा विरोध एक ऐसे नाउम्मीद आर्थिक माडल पर आधारित है जो प्रतियोगी बाजार के लाभों को कमजोर करता है। वह पुराना माडल उस समाजवाद को गुमराह करने वाले समझौतों पर आधारित है जिसने भारत को कभी भी उसकी नीति तक नहीं पहुंचाया। यह समझने के लिए कि इस भरोसे योग्य माडल से भारत की आॢथक खुशहाली को चार दशकों से नुक्सान पहुंचा, इसके लिए हमें एग्ज मैडीसन के दस्तावेज जोकि 2000 वर्ष पुराना आर्थिक इतिहास है, का अध्ययन करना जरूरी होगा। यह भारत की अर्थव्यवस्था में आर्थिक इतिहास के तीन चौथाई समय तक समस्त विश्व के कुल जी.डी.पी. में एक-तिहाई से ज्यादा अपना योगदान डालती रही। वह केवल इसलिए अपना अस्तित्व खो बैठी क्योंकि बाजारों को कमजोर किया गया था। 

पहले तो ब्रिटिश शासन के दौरान ऐसा हुआ तथा फिर हमारी ओर से समाजवाद को गुमराह करने वाले सहारे के कारण यह सब घटित हुआ। वर्ष 1991 से समय-समय की सरकारों की ओर से समस्त राजनीतिक परिदृश्य में आर्थिक उदारीकरण और सुधारों को अपनाया गया जिनके कारण यह बुनियादी आर्थिक सिद्धांत देखने योग्य हो सके। केवल 2004 से 2014 तक गुम हुए दशक में ऐसा नहीं हुआ। इन सिद्धांतों की वकालत अर्थशास्त्री तथा ‘तिरुकुरुल’ जैसे विभिन्न किस्म के भारतीय साहित्य में की गई है। वर्ष 1991 से अच्छी तरह नियंत्रित बाजारों में हुए कार्यों के कारण खुशहाली देखने को मिली। यहां तक कि चीनी आर्थिक करामात इस बात की गवाह है कि नागरिकों की आॢथक खुशहाली में बाजारों की अहम भूमिका होती है। कृषि सुधारों का विरोध उस गैर-भरोसे वाले आर्थिक माडल पर आधारित है जिसने संकीर्ण हितों का राजनीतिक समर्थन कायम रखने के लिए बाजारों को कमजोर किया था। इस प्रकार यह विरोध संकीर्ण हितों की ओर से किया जा रहा एक निराशाजनक प्रयास है जो केवल संकीर्ण हितों की पूर्ति के लिए पुरानी स्थिति को कायम रखने के लिए किया जा रहा है।

कृषि क्षेत्र में सुधार काफी लम्बे समय से किए जाने बाकी थे क्योंकि उस समय लागू किए गए कानूनों ने छोटे किसानों को स्थानीय मंडी तक बांध कर रखा तथा किसान उन बिचौलियों पर निर्भर रहते रहे जो उनकी उपज को मंडियों में रखने के लिए किराए की वसूली करते थे। जबकि भारत में प्रत्येक दूसरा उत्पादक यह निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र था कि उसने अपनी उपज कहां बेचनी है। ए.पी.एम.सी. मंडियों के कारण स्थानीय स्तर के एकाधिकार प्रफुल्लित हुए, जिसका सबसे ज्यादा नुक्सान छोटे किसानों को ही हुआ। उसके पास क्योंकि अपनी उपज के भंडारण के लिए साधन मौजूद नहीं थे तथा वह अपनी उपज को स्थानीय मंडी के अलावा कहीं और बेच भी नहीं सकता था इसीलिए छोटा किसान केवल बिचौलियों के रहमो-करम पर ही निर्भर था। 

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री तथा फिल्म ‘ए ब्यूटीफुल माइंड’ के प्रमुख समर्थक जॉन नैश ने अपने शोध में दर्शाया है कि एक विक्रेता को जो कीमत खरीदार से अपने संबंधों के कारण मिलती है, वह इस बात पर निर्भर होती है कि विक्रेता के पास कोई अन्य बदलने वाला विकल्प मौजूद है या नहीं। यदि एक विक्रेता हिम्मत से अपनी उपज खरीदार ‘क’ की जगह एक अन्य खरीददार ‘ख’ को बेचने की धमकी देता है तब खरीददार ‘क’ को विक्रेता के संग सौदा करना पड़ेगा  जिससे उसको अधिक कीमत मिलेगी। 

यदि विक्रेता के पास कोई वैकल्पिक उपाय न हो तो खरीदार अपनी एकाधिकार शक्ति का शोषण करेगा और विक्रेता का आखिरी पैसा भी निचोड़ लेगा। मध्यम तथा बड़े किसानों के लिए यह समस्या कोई बड़ी नहीं है क्योंकि कटाई के दौरान की तेजी खत्म होने पर वह अपनी उपज के भंडारण के लिए समर्थ होते हैं तथा किसी अन्य मंडी में बेच सकते हैं। अब छोटा किसान अपनी उपज को सीधे किसी फूूड प्रोसैसिंग फर्म को बेच सकता है। बेशक यदि किसान ऐसा फैसला ले ले तब वह स्थानीय मंडी में भी अपनी उपज को बेच सकता है। फिर भी जॉन नैश के तर्क के अनुसार छोटे किसान के पास भी मोल भाव करने की ताकत है क्योंकि वह केवल एक मंडी के साथ ही बंधा हुआ नहीं होगा बल्कि उसके पास फूड प्रोसैसिंग फर्म या मंडी जैसे बदलते विकल्प मौजूद हैं।  

इन बदलावों के कारण किसानों को अपनी उपज के लिए ज्यादा कीमत मिल सकती है। इस बदलाव से ई.एन.ए.एम. ज्यादा सशक्त हो सकती है, जिससे किसान ज्यादा मंडियों तक अपनी पहुंच बनाने के लिए योग्य होते हैं। सभी मंडियों में उस समय मिलने वाली कीमत की जानकारी से छोटा किसान कोई बेहतर सौदा कर सकता है।इन सुधारों के साथ नुक्सान किसका हुआ? उन बिचौलियों का जो ज्यादा लाभ तलाशते रहे तथा जिनको ऐसे बिचौलियों की मदद से लाभ पहुंचना था। ए.पी.एम.सी. एकाधिकारों के कारण पैदा हुए संकीर्ण हितों की जहरीली वृद्धि ने हमारी राजनीति को अपनी गिरफ्त में ले लिया जोकि एक विडम्बना वाली स्थिति है तथा जहां पर कृषि को संकीर्ण राजनीतिक हितों हेतु अपने हिसाब से इस्तेमाल में लाया जाता है।-के.वी. सुब्रह्मण्यन (प्रमुख आर्थिक सलाहकार, भारत सरकार)

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