Edited By ,Updated: 15 Dec, 2023 06:38 AM
आज बच्चों के अंदर नैतिक शिक्षा दम तोड़ रही है। आज स्कूल में यदि हमारा बच्चा चिंताग्रस्त है, ऊब का शिकार है, आक्रामक बन रहा है या उसका शैक्षिक प्रदर्शन कमजोर पड़ता दिख रहा है, तो हमें अपने बच्चे की ऐसी स्थिति का सम्मान करते हुए उससे एक मित्र की तरह...
आज बच्चों के अंदर नैतिक शिक्षा दम तोड़ रही है। आज स्कूल में यदि हमारा बच्चा चिंताग्रस्त है, ऊब का शिकार है, आक्रामक बन रहा है या उसका शैक्षिक प्रदर्शन कमजोर पड़ता दिख रहा है, तो हमें अपने बच्चे की ऐसी स्थिति का सम्मान करते हुए उससे एक मित्र की तरह बात करनी चाहिए और उसकी मदद करनी चाहिए। आज इन बदले हालातों को देखकर ऐसा लगता है जैसे पाठ्यक्रम से जुड़े बच्चे और उनके मनोभाव शिक्षा व्यवस्था से गायब हो रहे हैं। आज कक्षा है, पाठ्यक्रम है, गृह कार्य है, परीक्षा और उसका तनाव है, साथ में परीक्षा परिणाम से जुड़ी अभिभावकों की अपेक्षाएं भी हैं, मगर क्या कभी यह सोचा गया है कि यह संपूर्ण शिक्षा का ढांचा जिसके लिए बना है, उसकी मनोभावना की भी इस शिक्षा व्यवस्था में कोई जगह है? सच तो यह है कि वर्तमान शैक्षिक ढांचे की चकाचौंध में अभिभावक और बच्चे ऐसे उलझ गए हैं कि वे यह भूल ही गए कि किताबी दुनिया के अलावा भावनाओं की भी एक सतरंगी दुनिया होती है।
आज का बच्चा छोटी-सी उम्र से ही अनौपचारिक पढ़ाई के पांच चरणों मसलन प्री-नर्सरी, नर्सरी, केजी (किंडरगार्र्टन), एल.के.जी., यू.के.जी. जैसे स्तरों से जूझ रहा है। देखा जाए तो अनौपचारिक शिक्षा का यह चलन पश्चिम से भारत आया है। हकीकत यह है कि प्री-नर्सरी से यू.के.जी. तक की शिक्षा की यह व्यवस्था एक तरह से बच्चे को परिवार द्वारा दी जाने वाली शिक्षा व्यवस्था थी। दरअसल इस शिक्षा का प्रादुर्भाव अठारहवीं शताब्दी में औद्योगिक व्यवस्था से जन्मी ‘फैक्ट्री व्यवस्था’ के आने से शुरू हुआ था और इंगलैंड, जर्मनी, कनाडा जैसे देश इसके मुख्य केंद्र रहे। इससे जुड़ा इतिहास यह भी बताता है कि ऐसे माता-पिता जो फैक्ट्रियों में कार्यरत थे, उनके परिवार बिल्कुल एकल थे।
ऐसे परिवारों में जन्मे बच्चों के लिए न तो पालन-पोषण और न ही प्राथमिक शिक्षा का कोई प्रबंध था। इस प्रकार के एकल परिवारों के बच्चों के शारीरिक विकास, खेलकूद, दिमागी विकास के साथ उनके शरीर को गतिशील बनाने और उन्हें अनौपचारिक पारिवारिक माहौल देने के लिए इस प्रकार की शिक्षा का प्रबंध वहां के उद्योगपतियों ने किया था। वह इसलिए ताकि ऐसे कामकाजी परिवारों के बच्चों को इन स्कूलों में परिवार जैसा माहौल मिल सके और ये कामगार बच्चों की तरफ से निश्चिंत होकर अपना कार्य कर सकें।
दुर्भाग्य की बात है कि भारत जैसे देश में भी अब संयुक्त परिवार व्यवस्था तेजी से एकल परिवार में बदलती जा रही है। ऐसे में परिवारों के पास बच्चों को इन प्री-स्कूलों में पढ़ाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता और ऐसी व्यवस्था बच्चों को किताबी दुनिया से अलग रख कर उन्हें मित्र बनाने, बड़ों से दूर रहने, आपसी मनमुटाव को पारस्परिक आधार पर दूर करने, अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने के साथ-साथ अपने बारे में निर्णय करना सिखाने का वायदा तो करते हैं, लेकिन असल में ऐसा दिखाई देता नहीं है। आंकड़ों के अनुसार पश्चिम के अनेक देशों में जनसंख्या वृद्धि लगभग शून्य हो गई है।
इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि वहां युवाओं के मुकाबले वृद्धों की संख्या बढऩे लगी और वरिष्ठ नागरिकों को वृद्धाश्रम में जाने को मजबूर होना पड़ रहा है। लिहाजा बच्चों के समाजीकरण और उन्हें दुनियावी जिंदगी से रू-ब-रू कराने वाला और उनके मनोभावों को समझने वाला कोई बचा ही नहीं। इस सामाजिक टूटन का फायदा इस अंग्रेजी शिक्षा ने खूब उठाया। जरूरत इस बात की है कि निचली कक्षाओं के बच्चों के बीच सीखने की प्रक्रिया को ज्यादा संगठित तरीके से संचालित किया जाए और उसमें नवाचार को बढ़ावा दिया जाए, ताकि शिक्षा में गुणवत्ता सुनिश्चित हो सके।-प्रि. डा. मोहन लाल शर्मा