बरगाड़ी मार्च के पंजाब में क्या हैं राजनीतिक मायने

Edited By Pardeep,Updated: 12 Oct, 2018 05:03 AM

what is the political meaning of punjab of bargadi march

पंजाब इस समय राजनीतिक बदलाव की ओर बढ़ रहा है। राजनीतिक/ सामाजिक समझ के मायने बदल रहे हैं। अभी यह नहीं कहा जा सकता कि यह किसी सामाजिक लहर के उभार का समय है, मगर यह जरूर कहा जा सकता है कि यह एक संकेत जरूर है। इसको यूं ही नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस...

पंजाब इस समय राजनीतिक बदलाव की ओर बढ़ रहा है। राजनीतिक/ सामाजिक समझ के मायने बदल रहे हैं। अभी यह नहीं कहा जा सकता कि यह किसी सामाजिक लहर के उभार का समय है, मगर यह जरूर कहा जा सकता है कि यह एक संकेत जरूर है। इसको यूं ही नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस बारे समझ बनानी बहुत आवश्यक है। इसका कारण यह भी है कि यदि नेतृत्वविहीन भीड़ किसी असुखद रास्ते की ओर चल पड़ी तो पंजाब का सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक भविष्य डावांडोल ही नजर आएगा, जिसे पंजाब के कंधे अब झेलने के काबिल नहीं। 

ये संकेत बरगाड़ी मार्च ने इतनी अच्छी तरह से स्पष्ट कर दिए हैं कि खुफिया एजैंसियां इस बारे गम्भीरतापूर्वक विचार करने के लिए मजबूर हैं। तभी तो बड़े राजनीतिक दलों के होश उड़े हुए हैं। कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ही नहीं, अकाली नेतृत्व के लिए भी इसके जो मायने हैं, विशेषकर उस समय जब अकाली दल खुद गम्भीर संकट से गुजर रहा है, जिस वक्त शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी चुनावों के कगार पर खड़ी है, जिस समय मजबूर होकर दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष मंजीत सिंह जी.के. को अलग होना पड़ा है, ये मायने केवल राजनीतिक न होकर धार्मिक भी हैं, सांस्कृतिक भी और सामाजिक के साथ-साथ आॢथक भी। इन सभी नुक्तों पर विचार करके ही इस सामाजिक मनोचेतना को समझने में कुछ मदद मिल सकती है। 

सबसे पहला नुक्ता यदि राजनीतिक ही लिया जाए तो इस उभार ने दोनों बड़े दलों कांग्रेस तथा शिरोमणि अकाली दल के दिलों में डर पैदा कर दिया है। आखिर लोगों के मन में ऐसा क्या है कि उन्होंने इन दलों को पीठ दिखाई और अपनी भावनाओं का प्रदर्शन बरगाड़ी मार्च में बड़ी संख्या में शामिल होकर किया। आम आदमी पार्टी का सुखपाल खैहरा धड़ा तथा भगवंत मान धड़ा बेशक इसका राजनीतिक लाभ उठाने की ओर झुके नजर आए मगर जिस तरह वहां इस इक_ को स्टेज से तीसरे विकल्प के तौर पर पेश करने की कोशिश की गई, क्या वह सही है? क्या लोग अब इन गर्मख्याली नेताओं, विशेषकर मोहकम सिंह जैसों को अपनाने के लिए तैयार हो गए हैं? क्या सुखपाल खैहरा या भगवंत मान इस बात से सहमत हैं कि उन्होंने किसी अन्य के एजैंडे अपने धड़ों के माध्यम से पंजाब में लागू करने हैं? क्या वे विदेशों से हिलती झंडी से हिलेंगे? क्या केवल फंड जुटाने से ही पंजाब का भला हो सकता है? क्या सुखपाल खैहरा रैफरैंडम 2020 वाली भाषा तो नहीं बोल रहे?

क्योंकि इस इकट्ठाका मुद्दा मात्र राजनीतिक नहीं है, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी से बादलों का कब्जा हटाना भी है तथा अन्य पंथक मुद्दे भी हैं, इसलिए न तो खैहरा धड़े का और न ही बैंस बंधुओं के विचारों का यहां कोई मतलब रह जाता है। उनके जो बाहरी सरोकार हैं, जिनके बारे वे बार-बार प्रैस में जाते हैं, वे अलग हैं। अंदरखाते चाहे इनकी राजनीति इन मुद्दों के प्रति नरम ही दिखाई देती है मगर फिर भी ये इन प्रश्रों को सम्बोधित नहीं करते। इसलिए यह भी दावे से नहीं कहा जा सकता कि इनको लम्बे समय के लिए कोई राजनीतिक लाभ मिलने वाला है। मगर पंजाब ने यह अंगड़ाई ली है, यह सबने देखी है। 

दूसरा नुक्ता है सामाजिक। बेशक पिछले तीन दशकों से सामाजिक तौर पर पंजाब स्थिरता की स्थिति में नजर आ रहा है मगर ऐसा भी कभी नहीं होता कि कोई समाज उपजाऊ न रहा हो। समाज में बहुत कुछ घट रहा होता है, जिससे सामाजिक मानसिकता भी नई सूरत अपना रही होती है। पंजाब के मन ने, मनोचेतना ने एक सूरत तैयार कर ली है। इस सूरत ने अपना रंग दिखाना है। बरगाड़ी को मिले समर्थन में यह सूरत दिखाई दे गई। लोगों ने अपनी भावनाओं का जलवा दिखा दिया है। वे एक नया समाज चाह रहे हैं। राजनीतिक दलों की ओर उन्होंने पीठ कर ली है। यह इक_ एक सामाजिक लहर का संकेत भी दे रहा है। जरूरी नहीं है कि पंजाबी समाज केवल शोर-शराबा करने वाली राजनीति ही करता है, पंजाब ने कई सामाजिक तथा साहित्यिक लहरें भी पैदा की हैं, देश के लिए बलिदानों से भी पीछे नहीं हटा। इसलिए पंजाब में कुछ भी सम्भव हो सकता है। मगर यहां फिर एक आशंका है जो नेतृत्व के अभाव के कारण महसूस होती रहती है। 

तीसरा बहुत ही महत्वपूर्ण नुक्ता शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का है। अकाली दल का मौजूदा नेतृत्व बहुत बुरी तरह से निशाने पर है। कमेटी की जनरल हाऊस की मियाद समाप्त है तथा चुनाव सिर पर हैं। अब इन चुनावों ने ही तय करना है कि लोगों की ये भावनाएं किस करवट बैठती हैं। किसी भी भविष्यवाणी का अभी समय नहीं है क्योंकि शिरोमणि कमेटी पर गर्मख्यालियों का दबाव अभी इसलिए भी सम्भव नहीं है क्योंकि यहां पहुंचने के लिए लोगों में लोकतंत्र के लिए विश्वास पैदा करना जरूरी है। फिर भी यदि ये पंथक धड़े सुखबीर बादल के छीने जा चुके पंथक एजैंडे को अपनी ओर खिसकाने में कामयाब हो जाते हैं तो पंजाब में राजनीतिक बदलाव का आधार तैयार हो सकता है। 

पंजाब का अध्यापक डिप्रैशन में
विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक तथा भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्व. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा था कि ‘‘अध्यापन एक ऐसा पवित्र कार्य है जिसके माध्यम से आप किसी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को भी निखारते हो और उसके भविष्य को भी। यदि लोग मुझे एक अच्छे अध्यापक की नजर से देखते हैं तो इससे अधिक सम्मानजनक मेरे लिए कुछ भी नहीं है।’’ मगर इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यदि अध्यापक किसी भय, दुविधा की हालत में है तो उसके भविष्य के बारे में किसी भी तरह से सीधा अनुमान नहीं लगाया जा सकता। पंजाब इस नुक्ते-नजर से बहुत कठिन घड़ी से गुजर रहा है। इसका अध्यापक डिप्रैशन में है। 

वर्ष 2002 वाली कैप्टन सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान तथा राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के माध्यम से ठेके पर अध्यापकों की भर्ती शुरू की थी। बड़ी संख्या में अध्यापक भर्ती हुए। समय के साथ जब अकाली-भाजपा गठबंधन की सरकार बनी तो उन्होंने उसी कड़ी को जारी रखा, केवल एक मद और जोड़ दी। वह यह थी कि ये अध्यापक 3 वर्ष के लिए रखे जाएंगे। अब जिस वक्त चुनावी माहौल गर्माया हुआ था तो कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में यह बात लिखी कि यदि कांग्रेस की सरकार आती है तो ठेके पर रखे इन अध्यापकों को पक्का किया जाएगा। सरकार कांग्रेस की आ गई। इन अध्यापकों को अब तोहफा मिल गया कि यदि उनको आगे पक्का करना है तो उन्हें तीन वर्षों के लिए बेसिक वेतन पर ही रखा जाएगा। मतलब यह कि जो लगभग 10,000 अध्यापक 10-10 वर्षों से पढ़ा रहे हैं और वेतन वृद्धि लग-लग कर अधिकतर की तनख्वाह इस वक्त 45,000 रुपए के करीब है, उनको मात्र 15,000 रुपए ही मिलेंगे। 

अब मुद्दा यह बन गया है कि इनमें से बहुत से अध्यापक ब्याहे गए, उनके बच्चे हो गए, वेतन के सहारे ऋण लेकर मकान बना लिए, बड़ी किस्तें सिर पर चढ़ी दिखाई दे रही हैं, जीवन डावांडोल हो गया और अधिकतर अध्यापक डिप्रैशन में चले गए। संघर्ष के मार्ग पर चलते भी वे हताश हैं। इसकी झलक कई समाचार तथा सोशल मीडिया पर डल रही पोस्टें भी दे गई हैं, जिनमें कई अध्यापक अपने नाम-पते लिख कर यह पोस्ट कर रहे हैं कि मैं अपने पद की सरकार द्वारा मुअत्तली चाहता/चाहती हूं। किसी भी समाज के लिए यह बहुत ही खतरनाक मोड़ कहा जा सकता है। पंजाब इस मोड़ पर हैरान खड़ा है।-देसराज काली(हरफ-हकीकी)

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