कांग्रेस में दिक्कत क्या है, क्यों हो रही मुख्यधारा से दूर

Edited By ,Updated: 09 Sep, 2021 04:01 AM

what is the problem in congress why is it getting away from the mainstream

कईराजनीतिक भविष्यवक्ता देश के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाली सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के खत्म होने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। क्या इन अनचाही भविष्यवाणियों को नजरअंदाज करने की जरूरत है या

कई राजनीतिक भविष्यवक्ता देश के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाली सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के खत्म होने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। क्या इन अनचाही भविष्यवाणियों को नजरअंदाज करने की जरूरत है या फिर यह ‘कैसेंड्रा’ की तरह खुद ही गलत साबित होगी? 

कांग्रेस की दिक्कत क्या है? क्या लॉर्ड माऊंटबेटन की तरह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का खात्मा राहुल गांधी के हाथों होगा, जिसे उनके पूर्वजों ने अपने खून-पसीने और बलिदान देकर काफी मेहनत से खड़ा किया था? राष्ट्रीय राजनीति में मुख्य भूमिका निभाने के लिए पार्टी को कैसे पुनर्जीवित किया जा सकता है? इस तरह के कई सवाल देश भर में लोगों के दिल-दिमाग में कौतुहल पैदा कर रहे हैं और कांग्रेस पार्टी के भीतर और बाहर राजनीतिक हलकों में भी इस पर जोरदार बहस हो रही है। 

पार्टी को फिर से खड़ा करने के उपायों को बताने से पहले, उन बीमारियों को दूर करने की जरूरत है जिन्होंने कांग्रेस की जीवंतता और ताकत को क्षीण किया है। इसमें कोई शक नहीं कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का इतिहास है। आजादी के बाद देश के बंटवारे के दर्दनाक दौर को झेलकर भी पार्टी ने सरकार को महत्वपूर्ण निरंतरता प्रदान की और देश की एकता व अखंडता को कायम रखा। लेकिन 80 के दशक के दौरान कांग्रेस समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के अपने उद्देश्यों से कुछ भटकना शुरू हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि आम लोगों के बीच इसका असर कम होना शुरू हो गया। 

कांग्रेस में ‘बदलाव’ और पार्टी को भ्रष्टाचार, सत्ता के दलालों, निहित स्वार्थों, अक्षमता और दुर्भावना से मुक्त करने के लिए राजीव गांधी की तेजी और अधीरता ने पार्टी में राजनीतिक रूप से ‘स्थापित राजनेताओं’ को परेशान कर दिया और उन्हें हाशिए पर पहुंचा दिया। राजीव गांधी उनकी जगह पर सलाहकारों के रूप में नए गैर-राजनीतिक, पार्ट टाइम लोगों, कारोबारी प्रचारकों को ले आए, जिन्होंने पार्टी को एक कम्पनी की तरह चलाना शुरू कर दिया। इसके चलते पार्टी लोगों से और दूर हो गई और उसके कार्यकत्र्ताओं का मनोबल गिर गया।

कथित मैनेजरों, जोड़-तोड़ करने वालों ने इसके सिद्धांतों पर कब्जा कर लिया और पार्टी की विचारधारा और संस्थान को ही अपने आगोश में ले लिया। राजनीतिक फायदे और तात्कालिक समाधानों ने इसके सिद्धांतों का महत्व कम कर दिया और सामंती गुटों ने इसकी अनुकूलता को नष्ट कर दिया। नतीजतन, विकृत चेहरे और घायल शरीर लिए लहू-लुहान कांग्रेस भारतीय राजनीति की मुख्यधारा से बाहर होती चली गई। 

अभी भी सब कुछ नहीं लुटा है। इस पार्टी की क्षमता को कमजोर करके आंकना बड़ी भूल साबित होगी क्योंकि इसके पास भरोसेमंद नेता, समय की कसौटी पर खरी विचारधारा और लोगों की सेवा करने की इच्छाशक्ति है। फिर कमी क्या है? दुर्भाग्य से, फ्रांस के राजा लुई की तरह कांग्रेस नेताओं ने कुछ भी नहीं सीखा और कुछ भी नहीं भूले हैं। ऐसी गिरावट को ठीक करने की दिशा में कोई गंभीर कोशिशें नहीं की गईं। ऐसा लगता है कि उन्हें कुछ न करने की कला में महारत हासिल है। 

खुद को ‘टीम राहुल’ बताने वाले राजनीतिक नौसिखिए, गैर-राजनीतिक सहयोगी इस पुरानी पार्टी को एक राजनीतिक स्टार्टअप के रूप में चला रहे हैं या कहें बर्बाद कर रहे हैं। वे निर्णय लेने की प्रक्रिया से अधिकांश कांग्रेस जनों को बाहर कर देते हैं। दिशाहीन और बेखबर कांग्रेस जमीनी स्तर पर पार्टी की किस्मत संवारने के लिए जमीन से कटे लोगों को आगे बढ़ा रही है जिनका सफल होना असंभव है। ऐसे राजनीतिक परजीवियों ने कांग्रेस के हरे-भरे पड़े को सुखा दिया है। हिंदी बोलचाल में इसे अमर बेल या आकाश बेल कहा जाता है जो दिखने में रेशमी, मुलायम, रसदार होती है लेकिन इसमें पत्ते, फूल, फल और जड़ें नहीं होतीं। यह तेजी से फैलती है और जिस पेड़ पर लगती है उसे ही लील जाती है। 

राहुल गांधी को वरिष्ठ नेताओं के अनुभव और दूरदॢशता तथा युवा नेताओं के उत्साह और ऊर्जा के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है। वह पार्टी की जरूरी संगठनात्मक निरंतरता और अनुकूलता बनाए रखते हुए उसकी गति में बदलाव कर दोनों मामलों में सफल साबित हो सकते हैं। हारे हुए और अनाम नेता लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों को प्रभावित नहीं कर सकते। एक नेता का तौर-तरीका और भाषा, उसके शब्दों का चुनाव और वक्तृत्व कौशल सबसे महत्वपूर्ण घटक हैं, जो लोगों के दिल-दिमाग पर अपना असर छोड़ते हैं। 

कांग्रेस नेतृत्व द्वारा अतीत में ‘सूट-बूट की सरकार’, ‘चौकीदार चोर है’, ‘मौत का सौदागर’, ‘शहीदों के खून की दलाली’, ‘खेती का खून’, ‘दिल में खंजर’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया, जो उनकी छवि और विरासत के साथ मेल नहीं खाते। ड्रामेबाजी, खोखली ऊंची आवाज या अत्यधिक सजावटी शब्दों का मायाजाल लोगों के मुद्दे को पीछे छोड़ देता है। इसके उलट असल मुद्दे, शांत और सभ्य भाषा अधिक प्रभावी ढंग से लोगों का दिल जीत सकते हैं। 

कोई भी राजनीतिक दल एकजुट और जीवंत संगठन के बिना आगे नहीं बढ़ सकता, जोकि मौजूदा परिवेश में अधिकांश राज्यों में मौजूद नहीं है। संगठन का ढांचा ऐसा होना चाहिए कि बूथ स्तर की इकाइयां ब्लॉक स्तर की इकाइयों को ताकत और सहयोग दे सकें, जो आगे जिला इकाइयों को और इसी तरह ऊपर तक शक्तिशाली संगठन का निर्माण करें। इन पार्टी इकाइयों के गठन में पूर्ण पारदॢशता और आंतरिक लोकतंत्र जमीनी स्तर तक कार्यकत्र्ताओं को प्रोत्साहित करेगा। 

पार्टी नेतृत्व को सभी कांग्रेसजनों से बार-बार और स्वतंत्र रूप से बातचीत करनी चाहिए और अपने समॢपत जमीनी कार्यकत्र्ताओं की कड़ी मेहनत को पहचानने, पुरस्कृत करने और सम्मान देने के लिए एक तंत्र विकसित करना चाहिए। लोकसभा, राज्यसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव के लिए पार्टी प्रत्याशियों को टिकट न्यायपूर्ण और समान मानदंडों, प्रक्रिया का पालन करके दी जानी चाहिए। पार्टी को कार्यकत्र्ताओं को इस तरह से बढ़ावा देना चाहिए ताकि उनका मनोबल गिरे। उदाहरण के लिए, वर्तमान में कांग्रेस के राज्यसभा सदस्यों में से लगभग 15 प्रतिशत अपने मूल राज्यों से इतर अन्य राज्यों से मनोनीत किए गए हैं। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जाना चाहिए क्योंकि इससे एक व्यक्ति को तो फायदा हो सकता है लेकिन इससे दोनों राज्यों में पार्टी को नुक्सान पहुंचता है। 

राहुल गांधी ने 2019 के आम चुनावों में पार्टी के खराब प्रदर्शन की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। उनकी सोच हो सकती है कि उन्हें कांग्रेस की जरूरत नहीं है। हो सकता है कि कांग्रेस को भी उनकी जरूरत नहीं हो लेकिन उन्हें यह तो समझना ही होगा कि देश को कांग्रेस की जरूरत है। इसलिए देश के भविष्य के लिए लोगों से नाता जोड़कर पार्टी के पुनॢनर्माण के ऐतिहासिक दायित्व को उन्हें निभाना ही होगा।ृएम.एस. चोपड़ा
 

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