अब शांति वार्ता क्यों नहीं करते पारंपरिक पश्चिमी मध्यस्थ

Edited By Updated: 02 Nov, 2025 04:26 AM

why traditional western mediators no longer hold peace talks

बीसवीं सदी के एक बड़े हिस्से में, दुनिया भर में शांति प्रक्रियाएं और संघर्ष समाधान आमतौर पर यूरोपीय संदर्भों में या पश्चिमी शक्तियों द्वारा मध्यस्थता से होने के रूप में समझे जाते थे। इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं-अफगानिस्तान के संबंध में जिनेवा समझौता...

बीसवीं सदी के एक बड़े हिस्से में, दुनिया भर में शांति प्रक्रियाएं और संघर्ष समाधान आमतौर पर यूरोपीय संदर्भों में या पश्चिमी शक्तियों द्वारा मध्यस्थता से होने के रूप में समझे जाते थे। इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं-अफगानिस्तान के संबंध में जिनेवा समझौता (1988) और इसराईल और फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पी.एल.ओ.) के  बीच ओस्लो समझौता (1993), जिसमें नॉर्वे की मेजबानी में अत्यंत गोपनीय लेकिन लंबी वार्ता हुई थी। ये समझौते दुनिया भर के कुछ सबसे कठिन संघर्षों पर बातचीत करने में छोटे, तटस्थ यूरोपीय देशों की भूमिका के उदाहरण थे।

स्विट्जरलैंड औपचारिक संबंधों में एक स्थायी राजनयिक उपस्थिति रहा है क्योंकि इसकी तटस्थता की एक लंबी परंपरा रही है और यह वैश्विक शक्तियों के बीच प्रमुख वार्ता प्रक्रियाओं के लिए एक पसंदीदा स्थान रहा है, जिसने अंतर्राष्ट्रीय शांति स्थापना में यूरोप की भूमिका को और मजबूत किया है। हालांकि, आज एक आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है। यूरोपीय और पश्चिमी दोनों ही पक्ष तेजी से हाशिए पर जा रहे हैं जबकि मध्य पूर्व, एशिया और वैश्विक दक्षिण से नए मध्यस्थ उभर रहे हैं। एक समय वैश्विक शांति प्रक्रियाओं के दौरान सर्वोच्च प्राधिकार के रूप में माना जाने वाला संयुक्त राष्ट्र और उसके मध्यस्थता प्रयासों को अब अप्रासंगिक माना जा रहा है।

पारंपरिक यूरोपीय और पश्चिमी मध्यस्थों का हाशिए पर जाना केवल घटती अर्थव्यवस्था या उदासीनता का परिणाम नहीं है बल्कि भू-राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव, संस्थागत ढांचों की विफलता, लेन-देन संबंधी मध्यस्थता का उदय और आज के खंडित वैश्विक परिदृश्य में अपने प्रभाव के साथ नए क्षेत्रीय पक्षों के उदय की अधिक सूक्ष्म समझ का परिणाम है। यह परिवर्तन अतीत के मानदंडों से एक महत्वपूर्ण विचलन का संकेत देता है और यूरोपीय मंचों के साथ-साथ पश्चिमी शांतिदूतों का भी समर्थन कम हो गया है और उनकी जगह ऐसे पक्षों ने ले ली है जो विवादकत्र्ताओं के बीच व्यावहारिक समाधान, पहुंच और प्रभाव प्रदान कर सकते थे।

यूरोपीय मध्यस्थता का युग- ऐतिहासिक संस्थाएं और तटस्थता : द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, उपनिवेशवाद के उन्मूलन ने अफ्रीकी, एशियाई और मध्य पूर्वी क्षेत्र में कई अनसुलझे मुद्दे छोड़ दिए, जिन्हें आमतौर पर ‘टिक-टिक करते टाइम बम’ कहा जाता है जो औपनिवेशिक सत्ता के नेतृत्व की विरासत है। स्विट्जरलैंड और नॉर्वे जैसे छोटे यूरोपीय देश वैश्विक विवादों में ‘ईमानदार मध्यस्थ’ बन गए। उनकी तटस्थता और संस्थागत अनुभव ने उन्हें शांति के विश्वसनीय संयोजक के रूप में स्थापित किया। इस परंपरा ने ध्रुवीय विश्व व्यवस्था में एक तटस्थ, नियम-आधारित मध्यस्थ के रूप में यूरोप की आत्म-छवि को प्रतिबिंबित किया।

प्रासंगिकता का ह्रास और बदलाव : इक्कीसवीं सदी की पहली तिमाही में, वैश्विक शासन की गतिशीलता में प्रमुख क्षेत्रीय शक्तियों और मध्यम राज्यों का सामाजिक संघर्षों में मध्यस्थ के रूप में पुनरुत्थान देखा गया है। क्षेत्रीय शक्तियों, विशेष रूप से तुर्की, कतर, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और अब चीन, का पुनरुत्थान हुआ है, जो वैश्विक शांति मध्यस्थ के रूप में सामने आए हैं। ये राज्य नागरिक संघर्ष के असफल राज्यों के साथ भौगोलिक निकटता, क्षेत्रीय और वैश्विक प्रभाव और महत्वपूर्ण रूप से, संघर्ष क्षेत्र में विभिन्न पक्षों तक व्यावहारिक पहुंच का लाभ उठा रहे हैं।

ये राज्य संघर्ष के दोनों पक्षों के साथ बातचीत करने के इच्छुक और सक्षम हैं और संघर्ष समाधान प्रक्रियाओं के लिए व्यवहार्य अंतर्राष्ट्रीय संयोजक शक्ति प्रदान करते हैं, जिसका आज यूरोप में लगातार अभाव है। उदाहरण के लिए, तुर्की ने हाल ही में अनाज निर्यात संकट पर रूस और यूक्रेन के बीच मध्यस्थता की है और कतर अमरीका-तालिबान वार्ता,  जिसके परिणामस्वरूप 29 फरवरी, 2020 को दोहा समझौता हुआ और अक्तूबर 2023 से इसराईल और हमास के बीच वार्ताएं दोनों में मध्यस्थ था।

यूरोप के आर्थिक ठहराव, घरेलू संकटों और बढ़ते वैश्विक सैन्यीकरण ने निरंतर शांति प्रयासों को बाधित किया है। मध्यस्थता तेजी से लेन-देन संबंधी प्राथमिकताओं को प्रतिबिंबित करने लगी है जिसमें प्रत्याशित सैन्य और संभावित आॢथक लाभ बहुपक्षवाद पर हावी हो रहे हैं।

संस्थागत और बहुपक्षीय विफलताएं संयुक्त राष्ट्र का पतन : ऐतिहासिक रूप से संयुक्त राष्ट्र शांति वार्ताओं के केंद्र में रहा है लेकिन आंतरिक राजनीति और इसके स्थायी पांच सदस्यों को सुरक्षा परिषद की वीटो शक्ति के कारण बार-बार बाधित हुआ है। सीरिया, यूक्रेन या गाजा में रुके हुए संकटों ने इसकी विश्वसनीयता को और कमजोर कर दिया है। 

लेन-देन संबंधी मध्यस्थता और क्षेत्रीय कत्र्ताओं का उदय : खाड़ी राजतंत्र व्यावहारिक, लेन-देन संबंधी और क्षेत्रीय रूप से आधारित कत्र्ताओं के रूप में मध्यस्थता के नए मॉडल का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये कर्ता भौतिक प्रोत्साहन, मानवीय गलियारे और कैदियों की अदला-बदली प्रदान करते हैं जो लड़ाकों के हितों को शामिल करते हैं अक्सर समावेशिता या संक्रमणकालीन न्याय की परवाह किए बिना। रसद, सुरक्षा और मौद्रिक लाभ प्रदान करते हुए सभी पक्षों के साथ बातचीत करने की उनकी इच्छा, यूरोपीय मध्यस्थों के विपरीत है, जो उदार मूल्यों के प्रति अपने वैचारिक झुकाव के कारण बाधित थे। इस प्रकार मध्यस्थता सामाजिक न्याय और समावेशी शांति को उचित ठहराने वाली प्रक्रिया से हटकर कुलीन सौदों शून्य योग गणनाओं और भौतिक रियायतों पर केंद्रित हो जाती है जो स्थायी,वैध शांति की बजाय तत्काल स्थिरता प्रदान करती हैं।-मनीष तिवारी(वकील, सांसद एवं पूर्व मंत्री)
 

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