क्या चीन अपनी ‘कथनी और करनी’ पर खरा उतरेगा

Edited By Pardeep,Updated: 05 May, 2018 02:25 AM

will china fulfill its kathani karani

माओ त्से तुंग की वुहान स्थित पसंदीदा रमनीक झील के किनारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच अनौपचारिक शिखर वार्ता की खूबसूरती यह है कि वहां जितने भी मुद्दों और समस्याओं पर चर्चा की गई वह तकनीकी रूप में ‘अनौपचारिक’ तथा...

माओ त्से तुंग की वुहान स्थित पसंदीदा रमनीक झील के किनारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच अनौपचारिक शिखर वार्ता की खूबसूरती यह है कि वहां जितने भी मुद्दों और समस्याओं पर चर्चा की गई वह तकनीकी रूप में ‘अनौपचारिक’ तथा सामान्य प्राकृतिक तक ही सीमित है। 

चीनी सत्तातंत्र अपने ही लुका-छिपी के खेल में व्यस्त रहता है। नरेन्द्र मोदी की सरकार ऐसे मुद्दों को रेखांकित कर रही है जो आगामी लोकसभा चुनाव से पहले के अति महत्वपूर्ण महीनों में इसकी सार्वजनिक छवि को मजबूत बनाते हैं। वैसे बिना किसी तय एजैंडे के लम्बे-चौड़े मुद्दों पर दो दिवसीय ‘रणनीति वार्तालाप’ के बाद किसी बड़ी उपलब्धि की उम्मीद नहीं थी। फिर भी रमनीक झील के किनारे इन दोनों दिग्गज एशियाई नेताओं को परस्पर दिलचस्पी वाले क्षेत्रीय और ग्लोबल मुद्दों पर एक-दूसरे के मन में झांकने का मौका अवश्य ही मिला है। मोदी और शी के बीच 10 घंटों तक चली मुलाकातों के बाद दोनों पक्षों ने अलग-अलग बयान जारी किए जोकि केवल जनता को संतुष्ट करने के लिए थे। 

डोकलाम व्यवधान के 8 माह बाद मैं वुहान की वार्तालाप को परस्पर माधुर्य की कूटनीति की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानता हूं। भारत की कुछ चिंताओं का निवारण करके राष्ट्रपति शी अपनी लक्ष्य साधना कर सकते हैं। वुहान में प्रधानमंत्री मोदी परम आत्मिक शांति की साकार मूर्त दिखाई देते थे। सामान्य की तरह दमगजे मारने के विपरीत वह आत्मचिंतन की प्रतिमूॢत बने हुए थे। मुझे उम्मीद है कि वह अपने यजमानों के किसी बहकावे या छलावे का शिकार नहीं हुए होंगे। चीनी कूटनीति की दृष्टि से मीठी-मीठी बातें और चेहरे पर फैली हुई मुस्कान कोई खास अर्थ नहीं रखती बल्कि नेता के मन में छिपी हुई बातें ही महत्वपूर्ण होती हैं और यही बात भारतीय नेतृत्व के लिए चुनौती है। 

इन बातों को यहीं छोड़ते हुए हम इस मुद्दे पर आते हैं कि अनौपचारिक वार्तालाप के बाद जारी हुए दोनों बयानों में परिलक्षित हुई भावनाओं को मोटे रूप में इस तरह बयां किया जा सकता है :

पहली बात तो यह है कि दोनों पक्षों ने आपसी मतभेदों को शांतिपूर्ण वार्तालाप से हल करने के मामले में अपने नेताओं की समझदारी और परिपक्वता का संज्ञान लिया है। ‘‘एक-दूसरे की संवेदनाओं, चिंताओं और आकांक्षाओं’’ को रेखांकित किया गया है। पेइचिंग ‘चिंताओं और आकांक्षाओं’ का ही उल्लेख करता है न कि संवेदनाओं का। इसका अर्थ क्या यह लगाया जाए कि वर्तमान चीनी सुप्रीमो शी जिनपिंग की मानसिकता उस मानसिकता से भिन्न है जिसका प्रदर्शन 1962 में माओ और चाऊ की जोड़ी ने किया था? इस मामले में मैं निश्चय से कुछ नहीं कह सकता। दूसरी बात यह है कि दोनों नेता अपनी-अपनी सेनाओं को परस्पर एवं समतापूर्ण सुरक्षा सहित विश्वास बहाली की विभिन्न कवायदों के लिए काम करने का रणनीतिक मार्गदर्शन प्रदान करेंगे। 

तीसरे नम्बर पर उन्होंने परस्पर और निष्पक्ष रूप में स्वीकार्य सीमा समाधान के लिए प्रयासों को तेज करने पर भी बल दिया है। आने वाले महीने और वर्ष हमें बता देंगे कि सीमा समस्या को निपटाने के मामले में चीन कितना ईमानदार और सच्चा है। फिलहाल तो नियंत्रण रेखा पर सैन्य तनाव कुछ कम हो सकता है। भारत के दृष्टिकोण से चीन के साथ सैन्य समस्याएं चिंता का बहुत बड़ा विषय है क्योंकि एक ओर तो चीन ने पाकिस्तान को परमाणु शक्ति के रूप में विकसित होने में समर्थन दिया है तथा दूसरी ओर तिब्बत में भारी सैन्य जमावड़ा कर रहा है। शायद दोनों देशों के बीच ‘रणनीति संचार’ की प्रस्तावित मजबूती से परस्पर हित की बातों के मामले में कुछ सहायता मिलेगी। लेकिन ऐसा तभी होगा यदि चीन अपनी कथनी और करनी पर खरा उतरेगा। 

चौथे नम्बर पर राष्ट्रीय आधुनिकीकरण और दोनों देशों की अधिक समृद्धि का उद्देश्य हासिल करने के लिए ‘भागीदारी’ को मजबूत बनाने का इरादा बहुत महत्वपूर्ण है। इस मामले में भी दोनों देशों के बीच कई मतभेद हैं। जहां भारत व्यापार घाटे को संतुलित करना चाहता है वहीं चीन की निगाहें भारत में निवेश बढ़ाने पर लगी हुई हैं। पांचवीं बात यह है कि दोनों नेताओं ने आतंकवाद के विरोध के विषय में सहयोग पर प्रतिबद्धता व्यक्त की है। विडम्बना यह है कि चीन के बयान में इस संबंध में केवल चालू-सा उल्लेख मात्र किया गया है और कोई विशिष्ट भरोसा नहीं दिया गया। ऐसे में क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि भारत के विरुद्ध जब पाकिस्तान आतंकवाद के माध्यम से छद्मयुद्ध चालू रखता है तो चीन अपनी दृष्टि कहीं और टिकाए रखेगा? यदि चीन का पुराना रिकार्ड देखा जाए तो मेरा आकलन यही है कि राष्ट्रपति शी भारत के विरुद्ध पाकिस्तानी पत्ता खेलने से बाज नहीं आएंगे क्योंकि इस खित्ते में चीन के व्याप्त हितों के लिए यह नीति बहुत अनुकूल है। 

छठी बात यह है कि चीन की पाकिस्तान परस्त भावभंगिमा के मद्देनजर भारत का चीन के साथ मिलकर अफगानिस्तान में प्रयुक्त परियोजनाओं पर काम करने के लिए सहमत होना बहुत हैरानीजनक है। क्या ऐसी संयुक्त परियोजना का अर्थ यह नहीं होगा कि व्यावहारिक रूप में भारत चीन के ‘बैल्ट एंड रोड’ प्रयास का हिस्सा बन गया है? वैसे भारत सरकार के सूत्रों का यह कहना है कि ‘‘हमारी पोजीशन पहले जैसी है।’’ चूंकि पाकिस्तान अफगानिस्तान में भारत की गतिविधियों पर काफी खफा है इसलिए हमें बहुत सतर्कता से प्रतीक्षा करते हुए घटनाओं पर नजर रखनी होगी। 

यह भी एक तथ्य है कि अफगानिस्तान में भारत को काफी लोकप्रियता हासिल है और चीन खनिज दौलत से मालामाल अफगानिस्तान पर अपनी आर्थिक जकड़ मजबूत बनाने के लिए भारत की लोकप्रियता का निश्चय ही दुरुपयोग कर सकता है जिससे पाकिस्तान को भी अवश्य ही लाभ पहुंचेगा। मैं इतना अवश्य कहूंगा कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग बहुत चतुर-चालाक रणनीतिकार हैं और वह जानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी को कैसे हैंडल करना है? जहां तक रणनीतिक स्वायत्तता तथा स्थायित्व का सवाल है, दोनों देशों के बयानों में शब्दों की जादूगरी में बहुत अधिक फर्क है। 

जहां भारत पूरे क्षेत्र की चिंता पर फोकस करता है वहीं चीन पूरी दुनिया के संबंध में बातें करता है। यह कोई अबूझ पहेली नहीं क्योंकि राष्ट्रपति जिनपिंग पहले ही खुद को एक ग्लोबल नेता और चीन को एक वैश्विक शक्ति के रूप में ढाल चुके हैं। दिलचस्प बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने पांच सिद्धांतों का अपना खुद का ब्रांड विकसित कर लिया है: चिंतन, सम्पर्क, विजन, निर्णय और सहयोग। भारतीय बयान में उस पंचशील का कोई उल्लेख नहीं जिसका चौखटा 1954 में पं. जवाहर लाल और चाऊ एन-लाई ने तैयार किया था। 

दूसरी ओर चीन का कहना है: ‘‘दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हैं कि वे शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के पांच सिद्धांतों के आधार पर विश्वास बहाली को मजबूत करने के लिए लगातार प्रयास करते रहेंगे। यह दोनों देशों के दोस्तीपूर्ण सहयोग के पथ पर संयुक्त प्रयासों का एक ज्वलंत उदाहरण है। यही रास्ता वक्त की जरूरतों के लिए सबसे अधिक अनुकूल है।’’ हम नहीं जानते कि पांच सिद्धांत किसकी जरूरतों और किसके युग की हितसाधना करेंगे। भारत की नजरों में सबसे घृणा योग्य बात तो यही है कि कहीं चीन 1962 वाले विश्वासघात की पुनरावृत्ति न करे- न करनी में और न कथनी में। यह चिंता इसलिए प्रासंगिक है कि शी जिनपिंग ने खुद को माओ से भी बड़ी हस्ती के रूप में स्थापित करने का रास्ता अपना लिया है।-हरि जयसिंह

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