जनता की भागीदारी के बिना ‘स्वदेशी’ का नारा सिर्फ नारा ही रहेगा

Edited By Updated: 20 Oct, 2025 03:43 AM

without public participation the slogan of  swadeshi  will remain just a slogan

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधनों में ‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘हर घर स्वदेशी’ की अपील के जरिए आम जनता से भारतीय वस्तुओं को अपनाने का आग्रह किया है। इसका उद्देश्य आर्थिक आत्मनिर्भरता, देशी उद्योगों व रोजगार बढ़ाना और भारत के आर्थिक स्वावलंबन की...

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधनों में ‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘हर घर स्वदेशी’ की अपील के जरिए आम जनता से भारतीय वस्तुओं को अपनाने का आग्रह किया है। इसका उद्देश्य आर्थिक आत्मनिर्भरता, देशी उद्योगों व रोजगार बढ़ाना और भारत के आर्थिक स्वावलंबन की दिशा में एक मजबूत कदम उठाना है। इस अभियान के जरिए  देशभर में युवाओं, महिलाओं,व्यापारियों सहित सभी वर्गों को जोडऩे का प्रयास किया जा रहा है। जिसमें 20,000 से अधिक ‘आत्मनिर्भर भारत संकल्प अभियान’,1,000 से ज्यादा मेले और 500 ‘संकल्प रथ’ यात्राएं आयोजित  करने का भाजपा का कार्यक्रम है। 

भाजपा और संघ के कार्यकत्र्ता इन दिनों इस ‘स्वदेशी’ अभियान को मजबूती से आगे बढ़ाने में जुटे हैं। अगले तीन महीने में वे लोगों को भारतीय उत्पादों को प्राथमिकता देने के लिए प्रेरित करेंगे। जिससे आज़ादी के आंदोलन में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए स्वदेशी व स्वावलंबन के ऐतिहासिक अभियान को फिर से स्थापित किया जा सके। इसी क्रम में पिछले दिनों एक दीवाली मेले के दौरान दक्षिण दिल्ली के महरौली और वसंत कुंज क्षेत्र के भाजपा विधायक गजेंद्र यादव ने उपस्थित जन समुदाय से स्वदेशी को अपनाने की अपील की। विडंबना देखिए कि जिस मंच से  यादव पूरी गंभीरता से ये अपील कर रहे थे उसी मंच के सामने, मेले के आयोजकों ने, चीन के बने खिलौनों की दुकानें सजा रखी थीं और विदेशी कारों के दो मॉडलों को इस मेले में बिक्री के लिए रखवाया हुआ था। 

आम जीवन में ऐसा विरोधाभास हर जगह देखने को मिलेगा। क्योंकि पिछले चार दशकों में शहरी भारतवासी अपने दैनिक जीवन में ढेरों विदेशी उत्पाद प्रयोग करने का आदी हो चुका है। फिर भी भाजपा का हर सांसद, विधायक और कार्यकर्ता इस अभियान को उत्साह से चला रहा है। उनका ये प्रयास सही भी है क्योंकि दीपावली पर देश भर के हिंदुओं द्वारा भारी मात्रा में खरीदारी की जाती है। पिछले दो दशकों से क्रमश: चीनी माल ने भारत के बाजारों को अपने उत्पादनों से पाट दिया है। 

दीवाली पर लक्ष्मी पूजन के लिए गणेश-लक्ष्मी जी के विग्रह अब चीन से ही बन कर आते हैं। पटाखे और बिजली की लडिय़ां भी अब चीन से ही आती हैं। इसी तरह राखियां, होली के रंग, पिचकारी, जन्माष्टमी के लड्डू गोपाल व अन्य देवताओं के विग्रह भी वामपंथी चीन बना कर भेज रहा है  जो भगवान के अस्तित्व को ही नकारता हैं। ये कितनी शर्म और दुर्भाग्य की बात है। इससे हमारे कारीगरों और दुकानदारों के पेट पर गहरी लात पड़ती है। उधर अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा लागू की गईं बेहूदा आयात शुल्क दरों को देखकर भी हमें जागना होगा। हमें अपने उपभोग की तरीकों को बदलना होगा। इसलिए जहां तक संभव हो हम भारत में निर्मित वस्तुओं का ही प्रयोग करें। किसी भी अभियान को प्रचारित करना आसान होता है जोकि अखबारों और टी.वी. विज्ञापनों के जरिए किया जा सकता है। पर उस अभियान की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि देश की जनता ने उसे किस सीमा तक आत्मसात किया। अब मोदी जी के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को ही ले लीजिए। जितना इस अभियान का शोर मचा और प्रचार हुआ उसका 5 फीसदी भी धरातल पर नहीं उतरा। 

भारत के किसी भी छोटे बड़े शहर, गांव या कस्बे में चले जाइए तो आपको गंदगी के अंबार पड़े दिखाई देंगे। इसलिए इस अभियान का निकट भविष्य में भी सफल होना संभव नहीं लगता। क्योंकि जमीनी चुनौतियां ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। स्वदेशी अभियान की सफलता भी जन-जागरण, सतत् निगरानी और व्यवहार परिवर्तन पर निर्भर करती है। अगर आम नागरिक इसमें सक्रिय भूमिका निभाएं तभी यह आंदोलन सफल होगा।नि:संदेह ‘स्वच्छ भारत अभियान’ मोदी जी की एक प्रशंसनीय पहल थी। पहली बार किसी प्रधान मंत्री ने हमारे चारों ओर दिनों-दिन जमा होते जा रहे कूड़े के ढेरों की बढ़ती समस्या के निस्तारण का एक देश व्यापी अभियान छेड़ा था। उस समय बहुत से नेताओं, फिल्मी सितारों, मशहूर खिलाडिय़ों व उद्योगपतियों तक ने हाथ में झाड़ू पकड़ कर फोटो खिंचवा कर इस अभियान का श्रीगणेश किया था। पर सोचें आज हम कहां खड़े हैं?

शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में स्थायी सफाई व्यवस्था बनाना अब भी एक बड़ी चुनौती है। कचरा पृथक्करण, पुन: उपयोग और रीसाइक्लिंग की जागरूकता में अपेक्षाकृत कमी दिखती है। कुछ जगहों पर शौचालयों के रख-रखाव, जलापूर्ति और व्यवहार परिवर्तन को लेकर समस्याएं बनी हुई हैं। इसलिए अभियान के उद्देश्य और जमीनी सच्चाई में अंतर बना हुआ है और अनेक स्थानों पर पुराने तरीकों का पालन अब भी हो रहा है।दिल्ली हो या देश का कोई अन्य शहर यदि कहीं भी एक औचक निरीक्षण किया जाए तो स्वच्छ भारत अभियान की सफलता का पता चल जाएगा। यदि इतने बड़े स्तर पर शुरू किए गए अभियान की सफलता अगर काफी कम पाई जाती है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? नि:संदेह स्थानीय निकाय जिम्मेदार हैं। किंतु हम सब नागरिक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।

उल्लेखनीय है कि यदि हम नागरिक किसी साफ-सुथरे मॉल या अन्य स्थान पर जाते हैं तो सभी नियमों का पालन करते हैं। कचरे को केवल कूड़ेदान में ही डालते हैं। इस तरह हम एक साफ-सुथरी जगह को साफ़  रखने में सहयोग अवश्य देते हैं। लेकिन ऐसा क्या कारण है कि जहां किसी नियम को सख्ती से लागू किया जाता है तो हम पूरा सहयोग देते हैं। परंतु जहां कहीं भी किसी नियम को लागू करने में एजैंसियां ढिलाई बरतती हैं या हमारे विवेक पर छोड़ देती हैं तो आम नागरिक भी उसे हल्के में ले लेता है। 

आश्चर्य की बात तो यह है कि हम सब जानते हैं कि लगातार कचरे के ढेरों का, हमारे परिवेश में चारों तरफ बढ़ते जाना, हमारे व हमारी आने वाली पीढिय़ों के स्वास्थ्य के लिए कितना खतरनाक है? फिर भी हम सब निष्क्रिय बैठे हैं। हमें जागना होगा और इस समस्या से निपटने के लिए सक्रिय होना होगा। इसलिए नारे चाहे ‘स्वच्छता’ के लगें या ‘स्वदेशी’ के, जनता की भागीदारी के बिना, नारे-नारे ही रहेंगे।-विनीत नारायण
 

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