Edited By ,Updated: 13 Nov, 2025 05:39 AM

अन्य राज्यों की तरह बिहार में भी महिला मतदाताओं को रिझाने में सत्ता के दावेदारों ने कसर नहीं छोड़ी। नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने चुनाव की घोषणा से ऐन पहले महिला सशक्तिकरण के नाम पर सवा करोड़ से भी ज्यादा महिलाओं के बैंक खाते में 10-10...
अन्य राज्यों की तरह बिहार में भी महिला मतदाताओं को रिझाने में सत्ता के दावेदारों ने कसर नहीं छोड़ी। नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने चुनाव की घोषणा से ऐन पहले महिला सशक्तिकरण के नाम पर सवा करोड़ से भी ज्यादा महिलाओं के बैंक खाते में 10-10 हजार रुपए ट्रांसफर किए तो महागठबंधन ने ‘माई-बहिन योजना’ के तहत हर महिला को अढ़ाई हजार रुपए महीना देने का वायदा किया। महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने जीविका दीदियों का वेतन बढ़ा कर 30 हजार रुपए करने का वायदा भी मतदान से पहले कर दिया।
महिलाओं पर इस चुनावी मेहरबानी का कारण समझना मुश्किल नहीं। 2010 से ही हर चुनाव में महिलाएं मतदान में पुरुषों से बाजी मारती रही हैं। 2010 में पुरुषों का मतदान प्रतिशत जहां 51.5 ही रहा, 54.5 प्रतिशत महिलाओं ने वोट डाले। 2015 में हुए अगले विधानसभा चुनाव में मतदान का यह अंतर और बढ़ गया।
पुरुष मतदान का प्रतिशत 53.3 तक ही सुधरा तो महिलाएं 60.5 प्रतिशत पर पहुंच गईं। बेशक 2020 के पिछले विधानसभा चुनाव में महिला मतदान प्रतिशत में कुछ कमी आई लेकिन 54.5 प्रतिशत पुरुष मतदान के मुकाबले 59.7 प्रतिशत के साथ आगे वे ही रहीं। इस चुनाव में भी मतदान में महिलाओं के आगे रहने के संकेत हैं। हार-जीत मतदान से ही तय होती है। मतदान में महिलाएं आगे हैं तो जाहिर है कि सरकार के चयन में भी उनकी पसंद पुरुषों के मुकाबले ज्यादा निर्णायक भूमिका अदा करती है। इसलिए भी कोई खुद को महिलाओं का हितैषी दिखाने में पीछे नहीं रहना चाहता। चुनावी आंकड़े और विश्लेषण यह संकेत भी देता है कि बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो देश भर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता महिलाओं में अन्य राजनेताओं के मुकाबले ज्यादा है। बेशक महिलाओं में राजनीतिक जागरूकता और मतदान में बढ़ती उनकी भागीदारी देश और समाज के लिए सुखद संकेत है। वांछित परिणामों पर बहस हो सकती है, पर बिहार में महिला सशक्तिकरण के लिए कदम उठाए गए हैं। पंचायत चुनाव में 35 प्रतिशत आरक्षण है तो पुलिस भर्ती में 50 प्रतिशत लेकिन बात जब विधानसभा और लोकसभा की चुनावी राजनीति में प्रतिनिधित्व की आती है तो तस्वीर निराशाजनक उभरती है।
मसलन, इस विधानसभा चुनाव में बिहार की 243 सीटों पर 2357 पुरुष उम्मीदवार मैदान में हैं लेकिन महिला उम्मीदवारों की संख्या मात्र 258 ही है। संसद और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण के लिए वर्ष 2023 में 106वां संविधान संशोधन पारित करते समय अपनी प्रतिबद्धता दोहराने वाले राजनीतिक दल महिलाओं को कम टिकट के लिए ‘जीत की संभावना’ की कसौटी की आड़ लेते हैं। पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में 370 महिलाओं को टिकट दिए गए लेकिन सिर्फ 26 यानी 7 प्रतिशत ही जीत पाईं जबकि पुरुष उम्मीदवारों की जीत का प्रतिशत 10 रहा। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि जिन राजनीतिक दलों की अपनी जीत की संभावना कम रहती है, वे महिलाओं को टिकट देने में उदारता दिखाते हैं। 2022 में प्रियंका गांधी ने ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ का नारा देते हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 148 महिला कांग्रेस उम्मीदवार उतारीं, पर मात्र एक जीत पाई। जीत की बेहतर संभावना वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और हरियाणा जैसे राज्यों में कांग्रेस ने महिलाओं के प्रति ऐसी उदारता कभी नहीं दिखाई। इस बार बिहार में महिलाओं को सबसे ज्यादा 26 टिकट मायावती की बसपा ने दिए हैं। 25 टिकटों के साथ प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी दूसरे नंबर पर है।
ये दोनों ही सत्ता की प्रमुख दावेदार नहीं लगतीं। सत्ता के प्रमुख दावेदारों में भाजपा और जद-यू ने 13-13 टिकट दिए हैं तो राजद ने 11, कांग्रेस के 61 उम्मीदवारों में 5 महिलाएं हैं। चिराग पासवान की लोजपा (आर) ने 29 में से 6 उम्मीदवार महिलाएं उतारीं लेकिन एक का नामांकन रद्द हो गया। एक और सच यह भी है कि जीत की संभावना वाली सीटों पर टिकट में अक्सर राजनीतिक परिवारों की महिलाओं को ही मौका मिलता है। मसलन, जीतनराम मांझी ने अपने हिस्से आईं 6 सीटों में से 2 पर महिलाओं को टिकट दिया, जिनमें से एक उनकी समधन ज्योति देवी हैं तो दूसरी बहू दीपा। राजग में 6 सीटों वाली एक और पार्टी रालोमा के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी पत्नी स्नेहलता को उम्मीदवार बनाया है। दरअसल यही महिला सशक्तिकरण की चिर-परिचित राजनीतिक शैली बन गई है।
मतदान में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के बावजूद चुनावी राजनीति में उनकी घटती हिस्सेदारी हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर ही सवालिया निशान है। बिहार में 2010 में 34 महिलाएं जीत कर विधानसभा पहुंची थीं। 2015 में यह संख्या घट कर 28 रह गई तो 2020 में 26। वैसे चुनावी लोकतंत्र में आधी आबादी की बढ़ती भागीदारी और घटती हिस्सेदारी की यह विडंबना राष्ट्रव्यापी है। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में भी 20 से ज्यादा राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का मतदान प्रतिशत ज्यादा था। कमोबेश यही कहानी 2019 के लोकसभा चुनाव की रही लेकिन आजादी के बाद से ही उनकी जीत का प्रतिशत घटता जा रहा है। 1957 में चुनाव लडऩे वाली 45 महिलाओं में से 22 जीत कर लोकसभा पहुंच गई थीं लेकिन 2024 में चुनाव लडऩे वाली 800 महिलाओं में से मात्र 74 ही जीत पाईं। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में आधी आबादी की यह तस्वीर देश के राजनीतिक नेतृत्व से ईमानदार आत्मविश्लेषण और प्रतिबद्धता की मांग करती है।-राजकुमार सिंह