चार्वाक: खाओ-पीओ मौज करो

Edited By ,Updated: 18 Mar, 2017 02:44 PM

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देवताओं का सर्वत्र आदर-मान-सम्मान तथा प्रतिष्ठा थी। उन पर कभी विपत्ति पडऩे पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक सहायता करते थे। यह सब देखकर असुरों ने सोचा, ‘‘हम भी अपने आचार-विचार

देवताओं का सर्वत्र आदर-मान-सम्मान तथा प्रतिष्ठा थी। उन पर कभी विपत्ति पडऩे पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक सहायता करते थे। यह सब देखकर असुरों ने सोचा, ‘‘हम भी अपने आचार-विचार देवताओं जैसे करते हैं ताकि हमारी भी प्रतिष्ठा बढ़े तथा त्रय महादेव एवं त्रय महादेवियां हमारा विरोध न कर हमारे साथ सहयोग करें, हमारा मान करें। इन सबकी दृष्टि में हम भी सम्मानित हों।’’


ऐसा विचार कर असुरों ने आसुरी-वृत्तियों का त्याग करना शुरू किया तथा धर्म-मार्ग पर चलने लगे। देवताओं में तो ईर्ष्या-द्वेष तथा अपने को अन्यों से श्रेष्ठ समझने का अहंकार था, अब असुरों ने दुष्प्रवृत्ति को त्यागा और ‘समभाव’ से सबके साथ विनयपूर्वक व्यवहार और धर्माचरण करने लगे। असुरों के इस कार्य और विचार से उनकी प्रतिष्ठा बढऩे लगी और वे देवताओं के बराबर प्रतिष्ठा पाने लगे। कभी-कभी तो देवताओं से भी अधिक सम्मान उन्हें मिलने लगा।

 

देवता इससे बड़े चिंतित हुए। कहां तो मान-सम्मान पर उनका एकाधिकार था और अब सौतेले भाई भी उनकी बराबरी में आने लगे। देवताओं में द्वेष-भाव जागा। जब तक कोई बुरा पक्ष सामने न हो, तब तक अच्छाई का क्या महत्व और किसी की अपेक्षा श्रेष्ठ होने का अहंकार? चूंकि असुर बुरे थे, इसलिए देवता अच्छे थे पर जब असुरों ने देव-गुण अपना लिए तो वे भी इनके बराबर हो गए। देवताओं को असुरों की यह अच्छाई सहन न हुई।


वे पहुंचे भगवान विष्णु के पास तथा असुरों के धर्ममार्गी होने की शिकायत की। यह सुन कर विष्णु ने कहा, ‘‘इसमें चिंता की क्या बात है, यह तो बड़ी अच्छी बात हुई। जो असुर तुम्हें सताते थे, तुम पर आक्रमण करते रहते थे, तुम्हें शांति से जीने नहीं देते थे, वे सब अब सन्मार्गी हो गए हैं किसी को दुख नहीं देते। तुम्हारे शत्रु अच्छे आचरण वाले हो गए हैं, यह तो तुम सब के लिए बड़ी प्रसन्नता की बात है।’’


देवेन्द्र ने कहा, ‘‘प्रभो! यह तो ठीक है पर उनके इस आचरण से हमारी श्रेष्ठता समाप्त हो रही है। वे भी हमारे समकक्ष हो रहे हैं। भूलोक में उन्हें भी प्रतिष्ठा मिल रही है। हमारी सत्ता को कोई चुनौती देने वाला भले ही न हो, पर हमारी बराबरी का कोई हो जाए, वह भी अपना शत्रु ही है, यह तो दुख की बात है। इसलिए प्रभो कोई उपाय कीजिए कि उनकी प्रतिष्ठा न बढ़े।’’


देवताओं की बात सुन कर विष्णु हंसे, बोले, ‘‘तो यह बात है। दूसरों की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा का दुख तुम सबको है। ठीक है, मैं इसके लिए कुछ उपाय करता हूं। एक माया-पुरुष का सृजन कर उसे भूलोक भेजता हूं, वह वहां जाकर जैसा उचित होगा वैसा ही करेगा।’’


देवगण आश्वस्त होकर चले गए। भगवान विष्णु ने एक माया-पुरुष का सृजन किया और उसे पृथ्वी पर भेज दिया। आर्यावर्त में यह ‘चार्वाक’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। चार्वाक जब बड़ा हुआ तो उसने देखा कि यहां के लोग न जाने किस दिव्य-स्वप्र में जीते रहते हैं। जो कहीं दिखाई नहीं देता, उसको पाने की लालसा में अपना वर्तमान जीवन कष्ट में बिता रहे हैं। सबके सब देवता तथा ईश्वर के चक्रव्यूह में फंसे हैं। उन्हें वर्तमान जीवन तथा यह संसार सब कुछ दुख भरा लगता है तथा जिसे देखा नहीं, जिसके बारे में जानते नहीं, जो केवल उसकी कल्पना में बसता है, उस ईश्वर और स्वर्ग को पाने के लिए यह सब अपने वर्तमान जीवन को ही नरक जैसा भोग रहे हैं।


उसने संकल्प किया कि देवता, ईश्वर, आत्मा-परमात्मा,  स्वर्ग- नरक के दुश्चक्र को तोडऩा होगा। उसने वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों, ऋषि-वाक्यों सब को झूठा कहा और यह घोषणा करता फिरा कि यह सब कुछ नहीं है, केवल हमारी कल्पना की उपज है। यह संसार सत्य है। इसमें जो कुछ है, वही सत्य है। इसके ऊपर आकाश में कुछ नहीं है। उसके तर्क और विवेचन से लोग प्रभावित होने लगे। लोगों ने उसे ऋषियों जैसा सम्मान दिया। उसके नए विचारों का प्रभाव बढऩे लगा। लोग ऋषि, वेद, पुराण, स्वर्ग, नरक को झूठा समझने लगे। चार्वाक की विचारधारा स्थापित होने लगी।


वह कहता था, ‘‘देव-ईश्वर कुछ नहीं है। यहां का सब कुछ तथा यह संसार प्रकृति की देन है। इस शून्य आकाश में पृथ्वी, जल, वायु, अग्रि के संयोग से जीव तथा वनस्पतियों का निर्माण होता है। इसी के संयोग से सब में चेतना आती है। वही जब विखंडित हो जाता है तो फिर सब शून्य में मिल जाता है। इसी को जन्म और मरण कहते हैं। प्रकृति में यह निर्माण और ध्वंस बराबर चलता रहता है। न कोई कहीं से आता है न कोई कहीं जाता है। प्रकृति का सारा खेल यहीं होता रहता है इसलिए ईश्वर, देवता, स्वर्ग, नरक, वेद-शास्त्र आदि को किसी कल्पना में मत जिओ। जब तक जिओ सुख से जिओ। सुख से जीने के लिए ऋण भी लेना पड़े तो संकोच मत करो। यह संसार तथा यह जीवन ही सत्य है। इससे परे कहीं कुछ नहीं।’’


इस प्रकार चार्वाक ने आर्यावर्त में एक नई विचारधारा को जन्म दिया। इससे असुरों की प्रतिष्ठा को तो कोई आंच न आई। हां, देवों-ऋषियों के अस्तित्व पर ही संकट आ गया। स्वर्ग-नरक सबकी स्थापना व्यर्थ हुई। अपनी पद-प्रतिष्ठा, व्यवस्था तथा स्थापना को इस प्रकार समाप्त होते देख देवता बड़े विचलित हुए, भागे-भागे विष्णु के पास गए और कहा, ‘‘भगवन्! यह क्या किया? चार्वाक जैसा अधर्मी, नास्तिक भूलोक में क्या कर रहा है, क्या कह रहा है, इसका आपको कुछ पता है? हमारी बात तो छोडि़ए, उसने तो आप परब्रह्म परमात्मा की सत्ता तक को नकार दिया है। कहता है कि यह सब कल्पना है जो है जो दिख रहा है, यही सत्य है, इसी को सुख से भोगो। क्या यही उपाय करने का आश्वासन देकर आपने हमें संतुष्ट किया था? उसके सृजन से असुरों का तो कुछ न बिगड़ा। भूलोक में मानवों में जो हमारी प्रतिष्ठा थी तथा जो आपकी सत्ता थी, उसने उस सबको झूठा कर दिया। ऐसा नास्तिक अधर्मी आपने कहां भेज दिया?’’


देवताओं की बात सुन कर विष्णु को हंसी आ गई। कहने लगे, ‘‘मैंने तो आप सबके कहने से इस मायापुरुष को भेजा था। अब वह नए सिद्धांत तथा जीवन-दर्शन की बात कह रहा है तो मैं क्या करूं? वह नास्तिक नहीं है। किसी के अस्तित्व को न मानने का मतलब है कि उसके अस्तित्व को स्वीकार करना। पहले उसके होने को मानना है कि वह है, फिर यह कहना कि वह सब मिथ्या है। जो वस्तु, विचार, कल्पना में आ गया, उसका मतलब है कि उसका अस्तित्व है। वह उसके होने को स्वीकारता है, पर मानता नहीं। ईश्वर, देव, ऋषि, स्वर्ग-नरक, वेद-पुराण, आत्मा सबके होने को वह स्वीकार करता है, पर सब कुछ होने का कहीं न कहीं काल्पनिक रूप में ही सही, वह स्वीकार तो करता ही है। मानने और स्वीकार करने के भेद को समझो।’’


इसलिए हे देवो! चार्वाक के विचार से चिंतित मत होओ। यह उसका चिंतन है। किसी को कोई हानि नहीं होगी। जैसे देवलोक में भले-बुरे विचार वाले हैं, सुरी-आसुरी वृत्ति के लोग हैं, वैसे ही भू-लोक में भी सब विचारधारा, स्वभाव तथा चिंतन के लोग हैं। सृष्टि में यह विभिन्नता निरंतर बनी रहेगी। इससे चिंतित मत होओ। अपने आचार-विचार पर ध्यान दो। यही श्रेयस्कर मार्ग है।’’ 

 

(विष्णु पुराण से) -गंगा प्रसाद शर्मा
(‘राजा पाकेट बुक्स’ द्वारा प्रकाशित ‘पुराणों की कथाएं’ से साभार)

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