धार्मिक प्रसंग: संत कहें सहज सुभाए, संतों का कहा बिरथा न जाए

Edited By Jyoti,Updated: 05 Sep, 2021 02:31 PM

dharmik concept in hindi

यमुना तट पर स्थित किसी राज्य में मधुसूदन नामक प्रजा वत्सल, धार्मिक एवं दानवीर राजा शासन करता था। उसके राज्य में जन कल्याण हेतु भ्रमण कर रहे पंद्रह-बीस संतों का समूह आकर रुका।

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यमुना तट पर स्थित किसी राज्य में मधुसूदन नामक प्रजा वत्सल, धार्मिक एवं दानवीर राजा शासन करता था। उसके राज्य में जन कल्याण हेतु भ्रमण कर रहे पंद्रह-बीस संतों का समूह आकर रुका।

यात्रा में विभिन्न स्थानों पर पड़ाव के दौरान उन संतों के समूह में से एक-दो संत सभी से भिक्षा मांगते और लोगों से संतों के प्रवचन सुनने का आग्रह करते। उन्हीं में से एक संत प्रात: ही नगर के बाजारों-मोहल्लों में घूमने लगे और ऊंचे स्वर में अलाप करते जा रहे थे, ‘‘एक लाख की एक बात, तीन लाख की तीन बातें।’’

धीरे-धीरे यह बात महाराज मधुसूदन तक जा पहुंची तो उन्होंने अपने खास आदमियों को उन संतों को आदर भाव से दरबार में लाने का आदेश दिया। महात्मा जी दरबार में आए तो मधुसूदन ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की मुद्रा में पूछा, ‘‘महात्मन क्या चाहिए?’’

महात्मा बोले, ‘‘तुम दे सकोगे?’’

मधुसूदन बोले, ‘‘आज्ञा कीजिए, यथाशक्ति प्रयत्न करूंगा।’’

महात्मा बोले, ‘‘हम कुछ महात्मा उत्तरी आर्यावर्त में भ्रमण करते हुए तु हारी नगरी में विश्राम के लिए ठहरे हैं, उनके भोजन का प्रबंध करना है।’’

‘‘मेरा अहोभाग्य।’’ मधुसूदन बोले।

महात्मा बोले, ‘‘भिक्षा नहीं चाहिए राजन, परिवर्तन चाहिए। मैं आपको तीन उपयोगी बातें बताऊंगा। आप तीन समय के भोजन का प्रबंध करें।’’

महाराज मधुसूदन की आज्ञा की देर थी, सब भोजन सामग्री उपस्थित हो गई। धार्मिक राजा की धार्मिक प्रजा महात्माओं के प्रवचन सुनने को उमड़ पड़ी। चार दिन संत समागम चला। सभी लोग महात्माओं के दर्शन कर स्वयं को भाग्यशाली समझने लगे। महाराज ने प्रमुख महात्मा से विनती की कि आपके इस स्नेह और कृपा से हम धन्य हो गए हैं। कृपया भविष्य में भी आने की विनती स्वीकार करें।

प्रमुख महात्मा राजा मधुसूदन से बोले, ‘‘राजन! हमारी बातें सदा स्मरण रखना जो तु हारे काम आएंगी। पहली, प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में उठना, दूसरी, घर आए का स मान और  तीसरी, क्रोध के समय भी शांत रहना।’’

उसी दिन से राजा मधुसूदन  ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब’ की नीति अपना कर तीनों बातों पर आचरण करने लगे और यह नीति उनकी जिंदगी का हिस्सा बन गई।

एक प्रात: महाराज उठकर यमुना तट पर भ्रमण कर रहे थे। आकाश में अभी तारे चमक रहे थे और तभी राजा को एक जोर की आवाज सुनाई दी। राजा ने ऊपर देखा तो उन्हें एक विशालकाय स्त्री दिखाई दी। उसकी आंखों में आंसू भरे हुए थे।

महाराज ने उस स्त्री की ओर देख कर पूछा, ‘‘देवी! कौन हो तुम और रो क्यों रही हो?’’

वह स्त्री बोली, ‘‘मैं होनी (नियति) हूं।’’

महाराज बोले, ‘‘रोने का क्या कारण है?’’

‘होनी देवी’ बोली, ‘‘मेरे रोने का कारण यह है कि इस राज्य के प्रजापालक और दयालु एवं कृपालु राजा की कल मृत्यु हो जाएगी। उसके राज्य की प्रजा के अनाथ हो जाने पर मुझे रोना आ रहा है। सामने वाले पर्वत से एक सांप निकल कर इस राजा को कल सायं सूर्य डूबने से पूर्व ही डस लेगा।’’

अब तक पौ फूटने लगी थी। प्रकाश होने लगा। सूर्यदेव भी अपनी किरणें बिखेरने लगे थे। राजा ने देखा ‘होनी देवी’ अलोप हो चुकी थीं।  दिन को  दरबार लगा तो महाराज ने सारी बात अपने मंत्रियों को सुनाई। सुन कर किसी ने इसे भ्रम तो किसी ने स्वप्न कहा परंतु राजा को संतों की बात पर विश्वास था जिस कारण उन्हें अपनी मृत्यु का दो दिन पूर्व पता चल गया। कुछ ज्ञानी दरबारी इस बात को ठीक समझ कर ङ्क्षचतित हो गए।

महाराज मधुसूदन के यहां संतान के रूप में एक कन्या थी। मंत्रिमंडल में निर्णय लिया गया कि यदि सुबह वाली बात सच Þई तो पड़ोसी राज्य आक्रमण कर सकता है, अत: राजकुमारी को पुरुष वेश में सिंहासन पर बैठा दिया जाए और जल्दी ही योग्य वर देख कर उसकी शादी करके राज्य की बागडोर दामाद राजकुमार को सौंप दी जाए।

महाराज ने यह बात रानी को सुनाई तो वह भी व्याकुल हो गई। महाराज ने दरबारियों का  निर्णय भी रानी को बता दिया।

अगले दिन फिर महाराज सुबह-सवेरे उठे और यमुना तट पर भ्रमण करने चले गए। आज उनके साथ दो मंत्री भी थे।

उजाला होते ही सभी महल में आ गए। नित्य कर्म से निवृत्त होकर वे बाहर निकले। तभी राजा को याद आया कि उन संतों ने ‘आए का आदर करना’ भी कहा था। यह वचन भी शिरोधार्य करना चाहिए, सोचकर महाराज ने आदेश दिया कि जहां से सांप ने निकलना है वहां से महल तक सारा मार्ग घास, फूल-पत्तियों आदि से सजा कर अगरबत्तियों से महका दिया जाए। स्थान-स्थान पर मीठे दूध की व्यवस्था की जाए।

पर्वत से उद्यान तक ऐसी ही सजावट कर दी गई और उद्यान में स्वयं महाराज मधुसूदन अपने काल रूपी सर्प का इंतजार करने लगे।
ठीक समय पर सांप उसी पर्वत से निकला। मार्ग में कोमल घास और फूलों की सजावट और अगरबत्तियों की सुगंध से प्रसन्न होता हुआ कभी लोटता, कभी स्वादिष्ट दूध पीकर रेंगने लगता। परिणामस्वरूप सूर्य डूबने के समय तक वह उद्यान में पहुंच न सका।

देर बाद वहां पहुंचा तो मधुसूदन बड़े विनम्र भाव से बोले, ‘‘नाग देवता अपना कार्य करें।’’

सांप मनुष्य वाणी में बोल उठा, ‘‘राजन! मैं आपके स्वागत से अति प्रसन्न हूं। मृत्यु तो मैं आपको दे नहीं सकता क्योंकि आप दूसरों के दुखों को अपना दुख मानते हैं। हां आप मुझसे कुछ भी मांग सकते हैं।’’

‘‘मेरे पास सब कुछ है नाग देवता। मुझे कुछ नहीं चाहिए, आप अपना कार्य करें, कहीं समय बीत न जाए।’’

‘‘अच्छा राजन! यदि आप कुछ नहीं मांगते तो मैं ही तु हारी मौत मरता हूं।’’ 
इतना कहते ही सांप ने अपने आपको डस लिया और निर्जीव हो गया।

आए का आदर करने का प्रत्यक्ष फल देखने को मिला। राजा मधुसूदन ने मन ही मन उन संतों को माथा टेक अभिवादन किया और महल की ओर बढ़ चले। रानी रो-रो कर व्याकुल हो रही थी कि अभी उसका सुहाग उजडऩे की खबर आई कि आई।

महाराज एवं पतिदेव की आज्ञा को शिरोधार्य कर रानी अपनी बेटी को पुरुष वेश में तैयार करके उसे गले लगा कर खुद को भी और अपनी बेटी को ढांढस बंधा रही थी।

मधुसूदन महल में प्रविष्ट हुए तो सामने का दृश्य देखकर अवाक रह गए। मन में विचार आ गया कि यह रानी है या नीच औरत। मेरे मरने के याल से ही किसी को आङ्क्षलगन किए हुए है। मुझे आज तक पता ही न चल सका कि इसके इस पुरुष से न जाने कब के संबंध हैं। ऐसा विचार आते ही राजा ने तलवार निकाल ली और तेजी से रानी की ओर बढ़े। रानी आंखें मूंदे बेसुध रो रही थी।

एकाएक राजा मधुसूदन को उन संतों के तीसरे कथन का स्मरण हो आया, ‘‘क्रोध के समय शांत रहना।’’ 

महाराज मधुसूदन तलवार छोड़कर आगे बढ़े। देखा तो उनकी बेटी ही पुरुष वेश में थी। महाराज ने अपनी रानी को उठाया और सारी घटना से अवगत कराया।

रानी और राजकुमारी महाराज के गले लग कर रोने लगीं पर ये खुशी के आंसू थे।

सुबह होते ही पूरे राज्य में ढोल नगाड़े बजाए गए, खुशियों के गीत गाए गए। मिठाइयां बांटी गईं क्योंकि प्रजा को उनका राजा उन संतों के आशीर्वाद से मिल गया।

निष्कर्ष: ‘‘जैसे केले के पात में पात-पात में पात, वैसे ही संतन की बात में बात-बात में बात।’’

संत कहें सहज सुभाए, संतों का कहा बिरथा न जाए। —उदय चंद्र लुदरा 

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