Jageshwar Dham Almora Uttarakhand: जागेश्वरधाम में शंकराचार्य जी द्वारा कीलित कर दिए गए शिवलिंग...

Edited By Updated: 09 May, 2025 11:47 AM

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Jageshwar Dham Almora Uttarakhand: वर्तमान कुमाऊं उत्तराखंड (उत्तरांचल) राज्य का एक बड़ा भाग है। कुमाऊं भाषा बोली, नृत्य-संगीत व योद्धाओं के लिए तो जाना ही जाता है, परंतु प्राचीन सनातन धर्म संस्कृति का भी महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। यहां के जनपद...

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Jageshwar Dham Almora Uttarakhand: वर्तमान कुमाऊं उत्तराखंड (उत्तरांचल) राज्य का एक बड़ा भाग है। कुमाऊं भाषा बोली, नृत्य-संगीत व योद्धाओं के लिए तो जाना ही जाता है, परंतु प्राचीन सनातन धर्म संस्कृति का भी महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। यहां के जनपद अल्मोड़ा को कुमाऊं प्रांत की धार्मिक व सांस्कृतिक राजधानी कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, जहां कम से कम पांच सौ मंदिर आज भी विराजमान हैं। सर्वाधिक सुप्रसिद्ध है जागेश्वरधाम, यानी जागेश्वर शिव मंदिर व मंदिर समूह, जहां 124 मंदिर एक ही स्थान पर अवस्थित हैं। आसपास 276 मंदिर और भी हैं। जागेश्वरधाम आस्था और प्राकृतिक सौंदर्य के साथ ही वास्तु कला व चित्रकला का अद्भुत संगम है।

Jageshwar Dham Almora

उत्तराखंड के जनपद अल्मोड़ा में मुख्यालय से 35 किलोमीटर दूर कैलाश मानसरोवर के प्राचीन मार्ग पर समुद्र तल से 1,870 मीटर की ऊंचाई पर देवदार के घने पेड़ों के बीच स्थित जागेश्वरधाम व जागेश्वर मंदिर भारत के पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक माना जाता है। जिस प्रकार देवघर-वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को चिताभूमि पर स्थित होने से व मनोकामना लिंग की मान्यता तथा पंचशूल धारण करने के कारण द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक माना जाता है, जबकि दक्षिण भारत के परली स्थित वैद्यनाथ (परल्यां तू वैद्यनाथ) को बारह में से एक की मान्यता है, ठीक उसी प्रकार गुजरात के सौराष्ट्र कठियावाड़ स्थित द्वारिकापुरी स्थित नागेश्वर शिव मंदिर को द्वादश ज्योतिर्लिंग की मान्यता है, परंतु उत्तराखंड के लोग जागेश्वर शिव मंदिर को ही नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मानते हैं और उसी रूप में पूजन-अर्चना करते हैं। जागेश्वर मंदिर (नागेश्वर नाथ) अनादि है, जिसका समय-समय पर जीर्णोद्धार व पुनरुद्धार होता रहता है।

आद्य शंकराचार्य (509-477 ई.पू.) का यहां आगमन हुआ और उन्होंने इसे पुनप्र्रतिष्ठित भी किया। पुराणों में इसे हाटकेश्वर महादेव कहा गया है जबकि राजस्व व भू-लेखा खाता में इसे पारुण अंकित किया गया है। हिमालय के कुमाऊं क्षेत्र पर कत्यूर राजवंश एवं चंद्र राजवंश का शासन रहा है। उनके ही शासनकाल में अल्मोड़ा के अधिकांश मंदिरों का निर्माण हुआ है। जागेश्वर मंदिर समूह जागेश्वरधाम परिसर व समीप के मंदिरों का निर्माणकाल भी इन्हीं शासकों की देन है। उत्तर भारत पर जब परवर्ती गुप्त राजवंश का शासन था, तब 8वीं से 12वीं शताब्दी ईस्वी तक में इनका निर्माण हुआ, ऐसा आधुनिक इतिहासकार मानते हैं।

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अत: मंदिरों में गुप्तकाल की बनावट का दर्शन होता है। नागेश्वरधाम शिव मंदिर आदि में चंद्र राजाओं के शासनकाल में भट्ट ब्राह्मणों को पूजा आदि की जिम्मेदारी दी गई थी, तब से अब तक अनवरत ये ही कार्यरत हैं। इन मंदिरों का संरक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करता है। यहां मंदिरों का निर्माण लकड़ी व सीमैंट आदि से नहीं किया गया, बल्कि ये पत्थरों के बड़े-बड़े स्लैबों से निर्मित हैं। प्राचीन अभियांत्रिकी के बेजोड़ नमूने हैं ये मंदिर। दरवाजों की चौखटें देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं, मंदिरों के निर्माण में ताम्बे की चादरों और देवदार की लकड़ी का भी इस्तेमाल किया गया है। कुमाऊं के राजाओं ने नागेश्वर में देवदार के घने जंगल के मध्य ही अपना वास बनाया था। लिंग पुराण के अनुसार स्वयं भगवान विष्णु द्वारा प्रकट किया गया यह द्वादश ज्योतिर्लिंग नागेश्वर है, जो अब जागेश्वर कहलाता है। यहां भगवान शंकर व सप्तऋषियों ने भी तपस्या की थी।

जब भगवान शंकर यहां तपस्या कर रहे थे, तब जागेश्वर पहाड़ में निवास करने वाले ऋषियों की पत्नियां यहां कुश बीनने पहुंचीं और उनके विचित्र स्वरूप को देख कर मूर्छित होकर गिर पड़ीं। अपनी पत्नियों को लौटता न देख सभी ऋषि वहां पहुंचे तो उन्हें भगवान शंकर पर संदेह हुआ कि उन्होंने ही कुछ किया है और भगवान शंकर को श्राप दे डाला।

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इस श्राप के कारण समस्त जगत में हाहाकार मच गया और इसका प्रभाव सब पर पड़ा। अत: सप्तऋषियों ने यहां घोर तपस्या की, जिससे यहां शिवलिंग जाग्रत होकर विराजमान हो गया। महाभारत काल में जब पांडव हिमालय आए तो वे कुमाऊं भी गए। जागेश्वर में भगवान शिव महादेव ने स्वयं उन्हें दुर्योधन के नवीनतम षड्यंत्र से ज्ञात कराया था।

जागेश्वरधाम मंदिर समूह में सबसे प्राचीन महामृत्युंजय का मंदिर माना जाता है जिसमें धातु का तांत्रिक यंत्र भी है। यहां पुष्टि देवी, नवग्रह, सूर्य भगवान आदि देवी-देवताओं की मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं। यहां के मंदिर वास्तुकला के लिए अत्यंत प्रसिद्ध हैं। स्थापत्य कला की दृष्टि से उत्कृष्ट इन मंदिरों की बाह्य दीवारों में कुछ शिलालेख अंकित हैं, जिन्हें अब तक पढ़ा नहीं जा सका। देवी-देवताओं की मूर्तियां अत्यंत आकर्षक हैं। शिव, पार्वती और विष्णु भगवान की मूर्तियां विशेष रूप से आकर्षक हैं। जागेश्वरधाम पहुंचने के पहले स्थित है दंडेश्वर मंदिर, जो अत्यंत विशाल है। यहां के अन्य मंदिरों की ऊंचाई भी 100 फुट तक है। इनके ऊपरी भाग में कलश रखे गए हैं।

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जागेश्वरधाम में कलश रात्रि, महाशिवरात्रि एवं सावन माह में आस्थावान भक्तों की अपार भीड़ रहती है। इन्हीं मंदिरों से थोड़ी दूरी पर पुरातत्व विभाग ने संग्रहालय बनाकर उसमें कई प्राचीन मूर्तियों का संग्रहण किया हुआ है। देवदार के घने वन एवं वहां से बर्फ से ढंकी हिमालय की चोटियों का दृश्य भी आनंददायक है।

प्राचीनकाल में जागेश्वरधाम नागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकृत हो जाती थीं, जिसका भारी दुरुपयोग होने लगा था। जब सुप्रसिद्ध अद्वैत दार्शनिक अभिनव शंकर, शंकराचार्य (आठवीं शताब्दी ईस्वी) जागेश्वरधाम पहुंचे तो उन्होंने महामृत्युंजय में विराजमान शिवलिंग को कीलित करके उसके दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। शंकराचार्य जी द्वारा शिवलिंग कीलित कर दिए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएं पूरी नहीं होतीं, बल्कि मात्र यज्ञ अनुष्ठान से की जाने वाली मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी हो सकती हैं। यहां नि:संतान माताओं को श्रद्धा व आस्थापूर्वक पूजन करने से संतान की प्राप्ति होती है।   

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