Khudiram Bose Death Anniversary: मात्र 18 साल की उम्र में खुदीराम बोस ने दिया बलिदान

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 11 Aug, 2022 08:03 AM

khudiram bose death anniversary

खुदीराम बोस स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में सबसे कम उम्र के क्रांतिकारियों में से एक थे। बंगाल में मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में 3 दिसम्बर, 1889 को पिता त्रैलोक्य नाथ बोस तथा माता लक्ष्मीप्रिया देवी

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Khudiram Bose Death Anniversary:  खुदीराम बोस स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में सबसे कम उम्र के क्रांतिकारियों में से एक थे। बंगाल में मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में 3 दिसम्बर, 1889 को पिता त्रैलोक्य नाथ बोस तथा माता लक्ष्मीप्रिया देवी के घर जन्मे खुदीराम के सिर से कम उम्र में माता-पिता का साया उठ गया। बड़ी बहन ने माता-पिता की भूमिका निभाते हुए खुदीराम का लालन-पालन किया।

खुदीराम ने अपनी स्कूली जिंदगी में ही राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। वह जुलूसों में शामिल होकर ब्रिटिश सत्ता के साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते हुए उत्साह से सबको चकित कर देते थे। वह रैवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वन्दे मातरम के पर्चे वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 में बंगाल के विभाजन (बंग-भंग) के विरोध में चलाए आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया।

क्रांतिकारी सत्येन बोस के नेतृत्व में वह अंग्रेजों के विरुद्ध मैदान में कूद पड़े थे। फरवरी 1906 में मिदनापुर में एक औद्योगिक तथा कृषि प्रदर्शनी में क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ द्वारा लिखे सोनार बंग्ला नामक इश्तिहार बांटते हुए उन्हें पकड़ा गया, लेकिन खुदीराम ने सिपाही के मुंह पर घूंसा मारा और शेष पत्रक बगल में दबाकर भाग गए।

6 दिसम्बर, 1907 को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया, परन्तु गवर्नर बच गया। सन् 1908 में उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों वाटसन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया लेकिन वे भी बच निकले।
मिदनापुर में ‘युगान्तर’ नामक क्रांतिकारियों की गुप्त संस्था के माध्यम से, खुदीराम क्रांतिकारी कार्यों में पहले ही जुट चुके थे। एक साल में ही खुदीराम बोस ने बम बनाना सीख लिया था जिन्हें वह पुलिस थानों के बाहर प्लांट करते थे।

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1905 में लॉर्ड कर्जन ने जब बंगाल का विभाजन किया तो उसके विरोध में सड़कों पर उतरे अनेक भारतीयों को कलकत्ता के तत्कालीन मैजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड ने क्रूर दंड दिया। अन्य मामलों में भी उसने क्रांतिकारियों को बहुत कष्ट दिया था। इसके परिणामस्वरूप किंग्सफोर्ड को पदोन्नति देकर मुजफ्फरपुर में सत्र न्यायाधीश के पद पर भेजा गया। ‘युगांतर’ समिति की एक गुप्त बैठक में किंग्सफोर्ड को मारने का निश्चय हुआ। इस कार्य हेतु खुदीराम तथा प्रफुल्ल कुमार चाकी का चयन किया गया। मुजफ्फरपुर आने पर दोनों ने किंग्सफोर्ड के बंगले की निगरानी की। उन्होंने उसकी बग्घी तथा घोड़े का रंग देख लिया। खुदीराम किंग्सफोर्ड को उसके कार्यालय में जाकर ठीक से देख भी आए।

30 अप्रैल, 1908 को दोनों किंग्सफोर्ड के बंगले के बाहर घोड़ागाड़ी में उसके आने की राह देखने लगे। रात में साढ़े 8 बजे क्लब से किंग्सफोर्ड की बग्घी जैसी दिखने वाली बग्घी के आते ही खुदीराम ने अंधेरे में ही निशाना लगाकर जोर से बम फैंका परंतु उस दिन किंग्सफोर्ड थोड़ी देर से क्लब से बाहर आने के कारण बच गया।

दैवयोग से बग्घियां एक जैसी होने के कारण दो यूरोपीय स्त्रियों मिसेज कैनेडी और उनकी बेटी को अपने प्राण गंवाने पड़े। खुदीराम तथा प्रफुल्ल कुमार दोनों ने रातों-रात नंगे पैर भागते हुए 24 मील दूर स्थित वैनी रेलवे स्टेशन पर जाकर ही विश्राम किया। अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गई और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। पुलिस से घिरा देख प्रफुल्ल ने खुद को गोली मारकर शहादत दे दी जबकि खुदीराम पकड़े गए और उन पर हत्या का मुकद्दमा चला।

उन्होंने स्वीकार किया कि उन्होंने तो किंग्सफोर्ड को मारने का प्रयास किया था लेकिन बहुत अफसोस है कि निर्दोष मिसेज कैनेडी और उनकी बेटी गलती से मारे गए। 8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें मौत की सजा भी सुना दी गई। इतना संगीन मुकद्दमा और केवल पांच दिन में समाप्त ? यह बात न्याय के इतिहास में एक मजाक बनी रहेगी। फांसी की सजा सुनाई गई तो खुदीराम के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। फैसला देने के बाद जज ने उनसे पूछा, ‘‘क्या तुम इस फैसले का मतलब समझ गए हो?’’

खुदीराम ने जवाब दिया, ‘‘हां, मैं समझ गया हूं। मेरे वकील कहते हैं कि मैं बम बनाने के लिए बहुत छोटा हूं। अगर आप मुझे मौका दें तो मैं आपको भी बम बनाना सिखा सकता हूं।’’

वीर सपूत खुदीराम को मुजफ्फरपुर के काराग्रह में रखा गया था जहां अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें 11 अगस्त, 1908 को फांसी दे दी। उस समय उनकी उम्र 18 साल 8 महीने 8 दिन थी। खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। नौजवानों में लोकप्रिय इस धोती के किनारे पर ‘खुदीराम’ लिखा होता था। बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिए वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया।  

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