Smile please: ऐसे व्यक्ति को सुख-संपदा कभी आनंद प्रदान नहीं करती

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 12 Aug, 2023 09:20 AM

smile please

संपन्नता एवं समृद्धि का सृजन सबसे पहले हमारे मानस पटल के धरातल पर होता है। प्राय: समाज का दृष्टिकोण है कि जिसके पास भौतिक संपत्ति अर्थात धन आदि है,

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Inspirational context: संपन्नता एवं समृद्धि का सृजन सबसे पहले हमारे मानस पटल के धरातल पर होता है। प्राय: समाज का दृष्टिकोण है कि जिसके पास भौतिक संपत्ति अर्थात धन आदि है, वह धनी तथा संपन्न माना जाता है। जिसके पास धन-संपदा का अभाव है, उसे निर्धन तथा अभावग्रस्त माना जाता है।

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यह तो समाज की आर्थिक धार पर धनी और निर्धन की परिभाषा है परंतु हमारे आध्यात्मिक ग्रंथों का सिद्धांत आज के भौतिक सिद्धांत से अलग है। हमारे मनीषियों एवं ऋषियों ने मानसिक रूप से समृद्ध व्यक्ति को वास्तविक धनी स्वीकार किया है। यदि मनुष्य आंतरिक रूप से समृद्ध एवं संतुष्ट नहीं है तो बाहर की भौतिक समृद्धि भी उसे सुख की अनुभूति नहीं करा सकती।
कुछ लोगों के पास धन-दौलत तथा भौतिक सुख-सुविधाओं की कोई कमी नहीं होती लेकिन फिर भी वे अपने जीवन से संतुष्ट नहीं होते।

अत्यधिक प्रसिद्धि की व्यर्थ कामना मानसिक पटल को अशांत, तनावग्रस्त बना देती है। इसके विपरीत धन के अभाव में भी जो व्यक्ति आंतरिक रूप से संतुष्ट है जिसने अपनी वर्तमान स्थिति के साथ अपना संतुलन स्थापित कर लिया है, वह व्यक्ति धन से रहित होने पर भी धनवान है। मानसिक संतुष्टि को हमारे ग्रंथों में सर्वोपरि धन माना गया है।

जिस मनुष्य के पास धन-धान्य के होने के बावजूद भी आंतरिक तथा मानसिक संतुष्टि नहीं है, वह सबसे बड़ा दरिद्र है। ऐसे मनुष्य अपनी अत्यधिक लालसा के वशीभूत सदैव धन-संपत्ति के संग्रह में लीन रहते हैं। अपनी अंतहीन तृष्णा से संतप्त ऐसे लोग हमेशा मानसिक रूप से दरिद्र की श्रेणी में आते हैं।

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हमारे दार्शनिकों का कहना है कि जिस मनुष्य की तृष्णा विशाल हो गई है, वह दुनिया का सबसे बड़ा निर्धन है। ऐसा व्यक्ति अपने जीवन में कभी भी आंतरिक रूप से आनंद की अनुभूति नहीं कर सकता। हमारी मानसिक अवस्था भी हमारी समृद्धि तथा दरिद्रता के लिए महत्वपूर्ण है। जो व्यक्ति तनाव मुक्त जीवन जी रहा है, वह उस व्यक्ति की अपेक्षा अधिक समृद्ध है जो बहुत धनवान तो है परंतु जिस का जीवन अत्यधिक तनाव तथा लालसा से भरा है।

आंतरिक तथा मानसिक रूप से परिपूर्ण होना ही वास्तविक संपन्नता है। मानसिक तथा वैचारिक दरिद्रता सबसे बड़ा अभिशाप है। मानसिक रूप से दरिद्र व्यक्ति को बाहर की भौतिक सुख-संपदा कभी आनंद प्रदान नहीं कर सकती। मन की आंतरिक संतोषप्रद वृत्ति मनुष्य को अभाव में भी प्रेरणा प्रदान करती रहती है। मानसिक रूप से दरिद्र व्यक्ति सदा जो प्राप्त है, उससे कभी प्रसन्न, संतुष्ट नहीं होता, जो वस्तु प्राप्त नहीं है उसी के अभाव का निरंतर रोना रोता रहता है। आर्थिक की अपेक्षा मानसिक रूप से दरिद्र मनुष्य का जीवन सदैव दयनीय ही बना रहता है। मानसिक दरिद्रता मनुष्य जीवन की उन्नति में सबसे बड़ी बाधा है।

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