Edited By Jyoti,Updated: 24 Jul, 2022 12:30 PM
अनुवाद एवं तात्पर्य: प्रत्येक इंद्रिय तथा उसके विषय से संबंधित राग द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम होते हैं। मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि वे आत्म साक्षात्कार के मार्ग में अवरोधक हैं। जो लोग कृष्ण भावनाभावित
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक-
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।
अनुवाद एवं तात्पर्य: प्रत्येक इंद्रिय तथा उसके विषय से संबंधित राग द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम होते हैं। मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि वे आत्म साक्षात्कार के मार्ग में अवरोधक हैं। जो लोग कृष्ण भावनाभावित हैं वे स्वभाव से भौतिक इंद्रियतृप्ति में रत होने से झिझकते हैं किन्तु जिन लोगों की ऐसी भावना न हो उन्हें शास्त्रों के यम-नियमों का पालन करना चाहिए।अनियंत्रित इंद्रिय भोग ही भौतिक बंधन का कारण है किन्तु जो शास्त्रों के यम-नियमों का पालन करता है वह इंद्रिय विषयों में नहीं फंसता।
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जब तक यह भौतिक शरीर रहता है तब तक शरीर की आवश्यकताओं को यम-नियमों के अंतर्गत पूर्ण करने की छूट दी जाती है किन्तु फिर भी हमें ऐसी छूटों के नियंत्रण पर विश्वास नहीं करना चाहिए। मनुष्य को अनासक्त रहकर इन यम-नियमों का पालन करना होता है क्योंकि नियमों के अंतर्गत इंद्रिय तृप्ति का अभ्यास भी उसे उसी प्रकार पथभ्रष्ट कर सकता है, जिस प्रकार राजमार्ग तक में दुर्घटना की सम्भावना रहती है। भले ही इनकी कितनी ही सावधानी से देखभाल क्यों न की जाए किन्तु कोई गारंटी नहीं दे सकता कि सबसे सुरक्षित मार्ग पर भी कोई खतरा नहीं होगा। भौतिक संगति के कारण दीर्घ काल से इंद्रिय सुख की भावना कार्य करती रही है। अत: नियमित इंद्रिय भोग के बावजूद च्युत होने की हर संभावना बनी रहती है, अत: सभी प्रकार से नियमित इंद्रिय भोग के लिए आसक्ति से बचना चाहिए। (क्रमश:)