स्वामी प्रभुपाद: स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लक्षण

Edited By Prachi Sharma,Updated: 05 Dec, 2023 06:51 PM

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जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिरबुद्धि है, जो मोह रहित है और भगवद्विद्या को

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न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः॥5.20॥

अनुवाद एवं तात्पर्य: जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिरबुद्धि है, जो मोह रहित है और भगवद्विद्या को जानने वाला है, वह पहले से ही ब्रह्म में स्थित रहता है।

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यहां पर स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लक्षण दिए गए हैं। पहला  लक्षण यह है कि उसमें शरीर और आत्मतत्व का भ्रम नहीं रहता। वह यह भलीभांति जानता है कि मैं यह शरीर नहीं हूं अपितु भगवान का एक अंश हूं। अत: कुछ प्राप्त होने पर न तो उसे प्रसन्नता होती है और न शरीर की कुछ हानि होने पर शोक होता है।

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मन की यह स्थिरता स्थिरबुद्धि या आत्मबुद्धि कहलाती है। अत: वह न तो स्थूल शरीर को आत्मा मानने की भूल करके मोहग्रस्त होता है और न शरीर को स्थायी मानकर आत्मा के अस्तित्व को ठुकराता है। इस ज्ञान के कारण वह परमसत्य अर्थात ब्रह्म परमात्मा तथा भगवान के ज्ञान को भलीभांति जान लेता है।इस प्रकार वह अपने स्वरूप को जानता है और परब्रह्म से हर बात में तदाकार होने का कभी यत्न नहीं करता। इसे ब्रह्म साक्षात्कार या आत्म साक्षात्कार कहते हैं। ऐसी स्थिरबुद्धि कृष्णभावनामृत कहलाती है।

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