स्त्री बिकी तो वैश्या हुई, किन्तु उसको खरीदने वाले पुरुष सदैव सम्मान योग्य ही बने रहे

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 25 Apr, 2024 08:25 AM

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कवि और गीतकारों की कलम सदा ही स्त्री के रंग-रूप, चाल और चरित्र का वर्णन करती रही है। स्त्री के ख्वाब, मन की उड़ान, आंखों की नमी, टूटे वजूद और अंतर्मन की गहराइयों में झांककर एक अद्भुत अविरल मूर्त

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Best definition of woman: कवि और गीतकारों की कलम सदा ही स्त्री के रंग-रूप, चाल और चरित्र का वर्णन करती रही है। स्त्री के ख्वाब, मन की उड़ान, आंखों की नमी, टूटे वजूद और अंतर्मन की गहराइयों में झांककर एक अद्भुत अविरल मूर्त को कभी देखने का साहस कोई पुरुष जुटा ही नहीं पाया क्योंकि वह मूर्त ढंकी हुई थी, पुरुष के अनदेखेपन, अहं के आवरण से। शायद इसीलिए पुरुष की स्त्री पर लिखी हर, कहानी, कविता और गीत आज तक अधूरे हैं।

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स्त्री को या तो वस्तु समझा गया या स्वार्थी लोगों ने उसे पूजा की देवी कह कर महान बना दिया। किंतु इस महानता की नींव में चिन दी गईं उसकी इच्छाएं, खुशियां, एहसास, अधिकार और स्वतंत्रता। नारी हर युग में आजाद दिखती है किंतु वास्तव में होती नहीं। देवी सीता, राधा, मीरा, अहिल्या आदि अनेकों उदाहरण हैं। महर्षि वेदव्यास और वाल्मीकि की दिव्य दृष्टि हो अथवा तुलसी की मानस, सभी नारी के हृदय के भाव स्पंदन को महसूस करने में असमर्थ रहे हैं। इन्हें केवल सतीत्व और पतिव्रता धर्म के पाषाणों से घड़ दिया गया और इन्होंने ईश्वरीय लीला और नियति के आवरण से अपनी दुर्लभता को ढंक लिया क्योंकि लिखने के लिए पुरुष की लेखनी कभी वह साहस जुटा ही नहीं पाई।

सीता के हृदय की पीड़ा का प्रमाण है उनका धरा में समा जाना। राम युद्ध जीते थे सीता के सतीत्व के कारण। मीरा की भक्ति को भी चरित्र की कलंकता के तंजों से बींधा गया। अहिल्या निर्दोष होकर भी अपने ही पति द्वारा पाषाण बना दी गई। राधा का निश्चल प्रेम अल्हादित होते हुए भी न्यायोचित सिद्ध नहीं हुआ।

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स्त्री बिकी तो वैश्या हुई, किन्तु उसको खरीदने वाले पुरुष सदैव सम्मान योग्य ही बने रहे। किसी भी सदी की सामाजिक कुरीतियां अथवा रूढि़वादिता रही हों, उनका शिकार केवल स्त्री ही हुई। अंतर्मन की वेदना से कुंठित स्त्री की भावनाओं ने जब-जब हिम्मत जुटा कर अंगड़ाई लेने का प्रयत्न किया, तब-तब उसे परम्पराओं की विरोधी अथवा संस्कारहीन समझा गया।

क्यों स्त्री की बगावत बेवफाई और पुरुष की बगावत क्रांति हो गई ? स्त्री तमाम जीवन सामाजिक ढांचे और रिश्तों के आंगन में अपने अस्तित्व के लिए दो पग जमीन खोजती रही, किन्तु उसे जो भी मिला, शर्तों पर ही मिला।

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लोक जनमानस की मानसिकता सदैव ही स्त्री के प्रति संकीर्ण रही है। स्त्री के प्रति कोई भी युग, समुदाय, वर्ग, संवेदनशील हुआ ही नहीं, अर्थात मात्र दिन, महीने, साल और युग बदलते रहे, किंतु स्त्री के प्रति मानसिकता का मापदंड नहीं बदला।

आज स्त्री भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में शिखर पर प्रतिष्ठित व आर्थिक रूप से समृद्ध अवश्य हुई है, किंतु उसके निजी जीवन में झांककर देखने व गहनता से चिंतन करने पर निष्कर्ष निकलता है कि उसके संघर्षों की बजाय यथास्थिति केवल उनकी सफलताओं को ही स्वीकार करती है। कई बार तो सफलताएं मिलने से पहले ही वह जीवन की सुख-शांति व रिश्ते खो बैठती है और उसके हिस्से में आता है एक नीरस और अकेलेपन से युक्त जीवन क्योंकि स्त्री की स्थिति, वेदना और संघर्षों को केवल देखा व सुना गया, समझा कदापि नहीं गया।

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आज भी स्त्रियों के साथ घरेलू हिंसा और दुर्व्यवहार, कार्यक्षेत्र पर हो रहा शोषण, मानसिक तनाव में बढ़ती आत्महत्याएं आदि इसके जीवंत उदाहरण हैं। संस्कारों और मर्यादाओं के नाम पर स्त्री को केवल आत्म-सम्मान से समझौता करना सिखाया जाता है। सामाजिक भय के कारण उससे उसकी भावनाओं को दबाने और दूसरों के अनुरूप जीवन जीने में ही खुशी और सुख निहित है, ऐसी शिक्षा दी जाती है। ऐसे में स्त्री के बिखरे वजूद और खंडित हुए आत्म-सम्मान को कोई सहेजने का प्रयत्न नहीं करता। सभी को नारी सीता और सावित्री जैसी चाहिए, भले ही अपना चरित्र कितना दूषित हो।

एक सुंदर और सशक्त समाज के निर्माण हेतु आयु अवस्था के अनुरूप स्त्री की शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक स्थिति को समझने और सहयोग, स्थान, अधिकार व सम्मान प्रदान करने की आवश्यकता है। जिस देश, काल और युग में पुरुष वर्ग नारी की शक्ति, गुण, ज्ञान का सदुपयोग व भावनाओं का सम्मान निष्पक्ष मानसिकता से करने में सक्षम होगा, वही समय सभ्य, और समृद्ध राष्ट्र निर्माण की नींव रखने में सक्षम होगा।

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