तस्वीरों में देखें मणि महेश यात्रा और पढ़ें कैसे हुआ इस यात्रा का आरंभ

Edited By ,Updated: 14 Sep, 2015 03:44 PM

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देवभूमि हिमाचल में सारा साल सनातन धर्म से संबंधित मेले, त्यौहार व जातरें चलते ही रहते हैं लेकिन चंबा मणि महेश भरमौर यात्रा का विशेष महत्व है।

देवभूमि हिमाचल में सारा साल सनातन धर्म से संबंधित मेले, त्यौहार व जातरें चलते ही रहते हैं लेकिन चंबा मणि महेश भरमौर यात्रा का विशेष महत्व है।  हड़सर से 13 किलोमीटर की कठिन चढ़ाई एवं समुद्र तल से 13500 फुट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेश की डल झील एवं कैलाश दर्शन में भोलेनाथ के प्रति लोगों में इतनी श्रद्धा बढ़ गई है कि मौसम एवं कड़ाके की शीत लहर के बावजूद लाखों की संख्या में शिव भक्त यहां आते हैं। 

अमरनाथ यात्रा की समाप्ती के बाद भोले बाबा के भक्तों के लिए मणिमहेश यात्रा के द्वार 5 सितम्बर से 20 सितम्बर तक खुल गए हैं। इन 15 दिनों के दौरान लाखों शिव भक्त भगवान शिव के मणिमहेश कैलाश के दर्शन करने के लिए आएंगे। यह पहली बार होगा कि इस यात्रा का आयोजन पूरी तरह से मणिमहेश ट्रस्ट के माध्यम से किया जाएगा। इस ट्रस्ट में भरमौर के चौरासी मंदिर परिसर में मौजूद सभी मंदिरों को शामिल किया गया है तो साथ ही बन्नी माता मंदिर, भरमाणी माता मंदिर व स्वामी कार्तिक के मंदिर को शामिल किया गया है। 
 
प्राचीन मान्यताओं के अनुसार जब मणिमहेश यात्रा पर गुरु गोरखनाथ अपने शिष्यों के साथ जा रहे थे तो भरमौर तत्कालीन ब्रम्हापुर में रुके थे। ब्रम्हापुर जिसे माता ब्रम्हाणी का निवास स्थान माना जाता था मगर गुरु गोरखनाथ अपने नाथों एवं चौरासी सिद्धों सहित यहीं रुकने का मन बना चुके थे। वे भगवान भोलेनाथ की अनुमति से यहां रुक गए मगर जब माता ब्रम्हाणी अपने भ्रमण से वापस लौटीं तो अपने निवास स्थान पर नंगे सिद्धों को देख कर आग बबूला हो गईं। भगवान भोलेनाथ के आग्रह करने के बाद ही माता ने उन्हें रात्रि विश्राम की अनुमति दी और स्वयं यहां से 3 किलोमीटर ऊपर साहर नामक स्थान पर चली गईं, जहां से उन्हें नंगे सिद्ध नजर न आएं मगर सुबह जब माता वापस आईं तो देखा कि सभी नाथ व चौरासी सिद्ध वहां लिंग का रूप धारण कर चुके थे जो आज भी इस चौरासी मंदिर परिसर में विराजमान हैं।
 
यह स्थान चौरासी सिद्धों की तपोस्थली बन गया, इसलिए इसे चौरासी कहा जाता है। गुस्से से आग बबूला माता ब्रम्हाणी शिवजी भगवान के आश्वासन के बाद ही शांत हुईं। भगवान शंकर के ही कहने पर माता ब्रम्हाणी नए स्थान पर रहने को तैयार हुईं तथा भगवान शंकर ने उन्हें आश्वासन दिया कि जो भी मणिमहेश यात्री पहले ब्रम्हाणी कुंड में स्नान नहीं करेगा उसकी यात्रा पूरी नहीं मानी जाएगी। यानी मणिमहेश जाने वाले प्रत्येक यात्री को पहले ब्रम्हाणी कुंड में स्नान करना होगा, उसके बाद ही मणिमहेश की डल झील में स्नान करने के बाद उसकी यात्रा संपूर्ण मानी जाती है। ऐसी मान्यता सदियों से प्रचलित है। 

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