अब HRD मिनिस्ट्री बताएगी, किसे कहें इंटरनैशनल स्कूल?

Edited By ,Updated: 29 Jul, 2015 10:03 AM

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देश में इंटरनैशनल स्कूलाें की बढ़ रही तादाद ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के भीतर एक बहस छेड़ दी है। इसलिए अब मंत्रालय ऐसे शैक्षिक संस्थानों की स्थापना के बारे में एक नई नीति लाने पर विचार कर रहा है।

नई दिल्लीः देश में इंटरनैशनल स्कूलाें की बढ़ रही तादाद ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के भीतर एक बहस छेड़ दी है। इसलिए अब मंत्रालय ऐसे शैक्षिक संस्थानों की स्थापना के बारे में एक नई नीति लाने पर विचार कर रहा है। तीन विदेशी बोर्ड्स-जिनीवा का इंटरनैशनल बैकालॉरेट (IB), कैंब्रिज इंटरनैशनल एजुकेशन और ब्रिटेन के ऐडेक्सेल से जुड़े करीब 600 इंटरनैशनल स्कूल इस वक्त देश में हैं। मंत्रालय द्वारा कराए गए सर्वे के मुताबिक, IB स्कूलों की ही संख्या 2003 से 2013 के बीच 10 गुना तक बढ़ चुकी है। 
 
ये संस्थान मुख्यत: उन स्टूडेंट्स के लिए होते हैं, जो मेजबान देश के नागरिक नहीं होते, लेकिन अब भारत में भी मिडिल क्लास फैमिली के लाेग अपने बच्चों को इन स्कूलों में भेजने लगे हैं। इन स्कूलों में पढ़ाई का एक बड़ा फायदा यह माना जाता है कि विदेश में उच्च शिक्षा लेने में आसानी रहती है। 
 
एक सरकारी अधिकारी के मुताबिक, 'इनमें से कोई भी स्कूल राइट टु एजुकेशन एक्ट के दायरे में नहीं आता है। इस कानून में देश में कोई स्कूल चलाने के लिए बुनियादी जरूरतें बताई गई हैं। कई स्कूलों ने राष्ट्रीय या राज्य स्तर की मान्यता लिए बगैर इंटरनैशनल बोर्ड्स से संबद्धता ले ली है। हमारे पास भी ऐसी कोई साफ परिभाषा नहीं है कि भारत में किस स्कूल को इंटरनैशनल कहा जाए। लिहाजा ऐसी नीति की जरूरत है, तो ऐसे संस्थानों के लिए कुछ नियम तय करे।' 
 
सूत्रों के अनुसार, सरकार जिस नीति पर विचार कर रही है, उसमें विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात, शिक्षकों के वेतन, किसी कक्षा में भारतीय और विदेशी छात्रों के अनुपात और फीस के ढांचे के खुलासे सहित अन्य बातों का एक मानक बनाया जा सकता है। एक अन्य अधिकारी ने कहा कि नई नीति में इंटरनैशनल स्कूल की उचित परिभाषा होने से इस श्रेणी के दुरुपयोग की गुंजाइश भी नहीं रहेगी। मंत्रालय इस बात पर भी विचार कर रहा है कि आरटीआई एक्ट के तहत इन स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए सीटें रिजर्व रखी जानी चाहिए या नहीं।

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