जन-स्वास्थ्य प्रणाली खुद ‘आई.सी.यू.’ में

Edited By ,Updated: 22 Sep, 2015 02:14 AM

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क्रोध और वेदना। दु:ख और हताशा। हमारी उदासीन, निर्मम तथा स्वार्थी स्वास्थ्य प्रणाली ने एक और जीवन छीन लिया है।

(पूनम आई. कौशिश): क्रोध और वेदना। दु:ख और हताशा। हमारी उदासीन, निर्मम तथा स्वार्थी स्वास्थ्य प्रणाली ने एक और जीवन छीन लिया है। एक 7 वर्षीय बच्चे की डेंगू के कारण मौत के बाद उसके माता-पिता द्वारा आत्महत्या से केन्द्र और दिल्ली सरकार कुंभकर्णी नींद से जागी और फिर उन्हें एहसास हुआ कि डेंगू ने देश की राजधानी को अपनी चपेट में ले लिया है। अब तक इस बीमारी के कारण दिल्ली में 18 मौतें हो चुकी हैं और डेंगू के अढ़ाई हजार से अधिक मामले प्रकाश में आ चुके हैं। फिर भी हमारे नेतागण परस्पर दोषारोपण के खेल में व्यस्त हैं। 

लोगों का आक्रोश केवल डेंगू या उसके कारण हुई मौतों पर ही नहीं है अपितु हमारी लोक स्वास्थ्य प्रणाली पर भी है जो आज आई.सी.यू. में है, जबकि सरकार कहती है कि डरने की कोई बात नहीं है। स्थिति पूर्णत: नियंत्रण में है। सब कुछ ठीक-ठाक है। किन्तु क्या वास्तव में ऐसा है? आम आदमी को कब तक बेवकूफ बनाते रहोगे? 
 
जरा सोचिए, केवल डेंगू से बचने के लिए क्या करें और क्या न करें की जानकारी देने, उपचार के लिए अस्पताल निर्धारित करने,  परीक्षणों के लिए प्रयोगशालाएं निर्धारित करने, रेडियो और टी.वी. पर निर्वाणात्मक उपायों की घोषणा करने से यह संंक्रमण दूर हो जाएगा? सरकार की ओर से घिसा-पिटा उत्तर दिया जाता है, जो इस मामले में विलम्ब से कार्रवाई करने, खराब नियोजन और कुप्रबंधन पर पर्दा नहीं डाल सकता है। 
 
यह किसी भी संकट के प्रति हमारे उदासीन और बचकाने दृष्टिकोण को दर्शाता है। इससे एक प्रश्न उठता है कि क्या आम आदमी केवल एक संख्या बन कर रह गया है? या क्या सरकार मौत की सौदागर बन रही है? भारत की निकम्मी तथा धन की कमी का सामना कर रही लोक स्वास्थ्य प्रणाली के बारे में क्या कहें जिसे बढ़ती आबादी तथा स्वच्छता की दुर्दशा ने और बिगाड़ दिया है। एक ऐसी स्वास्थ्य प्रणाली के बारे में आप क्या कहेंगे,  जिसने 10 वर्ष में पोलियो उन्मूलन जैसी उल्लेखनीय उपलब्धि प्राप्त की किन्तु दूसरी ओर जहां महिलाएं प्रसव या नसबंदी के दौरान काल की ग्रास बन जाती हैं। 
 
क्या यह विडम्बनापूर्ण नहीं है कि हमारा देश विश्व में सर्वाधिक मॉरफीन का उत्पादन करता है किन्तु दर्द से कराह रहे रोगी के लिए यह खरीदना मुश्किल हो जाता है। विसंगति देखिए। एक ओर हमारा देश तेजी से चिकित्सा पर्यटन का केन्द्र बन रहा है जहां पर अन्य देशों के लोग अच्छा और सस्ता इलाज कराने के लिए आते हैं, दूसरी ओर अपने देश के नागरिकों के लिए ये सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। 
 
भारत की त्रासदी यह है कि स्वतंत्रता के 68 वर्षों बाद भी हम प्रत्येक नागरिक के लिए स्वास्थ्य देखभाल सेवाएं उपलब्ध कराने में विफल रहे हैं। डेंगू को ही लें। प्रति वर्ष मानसून के  दौरान यह एक जानलेवा बीमारी बन जाती है किन्तु गत कुछ वर्षों में इसके फैलने को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया गया। इसका एक कारण डेंगू और मच्छर जनित अन्य बीमारियों जैसे मलेरिया और चिकनगुनिया को फैलने से रोकने के लिए धनराशि के आबंटन में कमी आई है। वर्ष 2012 में यह 50 करोड़ रुपए थी किन्तु इस वर्ष केन्द्र ने इसके लिए केवल 17 करोड़ रुपए आबंटित किए। इसका दुष्प्रभाव पड़ा जिसके चलते स्वास्थ्य महानिदेशालय ने इसके लिए आबंटन कुल व्यय के 10 प्रतिशत से कम कर 5 प्रतिशत कर दिया और इसके कारण डेंगू के फैलने से रोकने के उपाय प्रभावित हुए। 
 
अन्य सामान्य रोगों जैसे मलेरिया, क्षय रोग, काला जार, जापानी बुखार आदि रोगों की भी यही स्थिति है। ग्रामीण भारत विकासशील देशों की इन बीमारियों से जूझ रहा है तो शहरी भारत का मध्यम और उच्च वर्ग विकसित देशों के जीवनशैली रोगों जैसे मधुमेह और मोटापे से जूझ रहा है। 
 
हमारे गांवों में 50 प्रतिशत लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं। 37  प्रतिशत लोगों को भरपेट खाना नहीं मिलता है। 65 प्रतिशत लोगों के घरों में शौचालय नहीं हैं और 50 प्रतिशत लोग खुले में शौच करते हैं। देश में 12.5 लाख बच्चे एक वर्ष के होने से पहले ही मर जाते हैं। 48 प्रतिशत बच्चों को समुचित पोषाहार नहीं मिलता है। केवल 7  प्रतिशत  बच्चों को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित न्यूनतम स्वीकार्य पोषाहार मिलता है। 
 
यही नहीं, पिछले 3 दशकों में एक करोड़ बीस लाख कन्या भ्रूणों का गर्भपात कराया गया और 45 प्रतिशत महिलाओं का विवाह 18 वर्ष से पूर्व हुआ, जिसके कारण उन्होंने कम उम्र में गर्भ धारण किया और मातृ मृत्यु दर बढ़ी। देश में प्रति वर्ष 3 करोड़ गर्भवती महिलाओं में से लगभग एक लाख छत्तीस हजार महिलाओं की मृत्यु हो जाती है। 15 से 49 वर्ष की 10 में से 9 गर्भवती महिलाएं कुपोषण और खून की कमी की शिकार हैं जिसके कारण शिशु मृत्यु दर 20 प्रतिशत तक है। इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक 10 मिनट में एक मां की मौत होती है और चिकित्सा प्राधिकारी कुछ नहीं कर पाते हैं।
 
यह सच है कि केन्द्र सरकार ने अप्रैल 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन शुरू किया और इसके अंतर्गत 18 राज्यों पर विशेष ध्यान दिया गया किन्तु मृत्यु दर बढ़ती जा रही है। 125 करोड़ की जनसंख्या में से केवल 24.30 करोड़ लोगों को ही सरकारी स्वास्थ्य बीमा सुविधाएं उपलब्ध हैं। 30 करोड़ लोगों को स्वास्थ्य बीमा सुविधा उपलब्ध नहीं है और इसका कारण यह भी है कि लोक स्वास्थ्य कभी भी सरकार की प्राथमिकता नहीं रहा है। ग्रामीण अवसंरचना के बारे में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के एक अध्ययन में पाया गया कि इसके 28 गांवों पर एक डाक्टर उपलब्ध है और वह 20 हजार लोगों को देखता है। 
 
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में प्रति एक लाख लोगों पर औसतन 45 डाक्टर और 8.9 बिस्तर हैं तथा गरीब राज्यों में यह स्थिति और भी खराब है। हमारा देश अभी भी संक्रामक रोगों को नियंंत्रित करने के लिए जूझ रहा है तो दूसरी ओर गैर-संचारी रोग बढ़ते जा रहे हैं। भविष्य में हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर जैसे रोगों में प्रति दशक औसतन 45 प्रतिशत वृद्धि की संभावना है। हमारी स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली की इस दयनीय स्थिति के कारण सामान्य रोग भी महामारी का रूप ले रहे हैं। फिर भी हमारे प्राधिकारी स्वास्थ्य और संकट प्रबंधन या इनके स्थायी समाधान की बुनियादी बातें सीखने के लिए तैयार नहीं हैं।  
 
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