कुर्द इलाके में जनमत संग्रह ने छेड़ा ‘ततैया का छत्ता’

Edited By Punjab Kesari,Updated: 29 Sep, 2017 12:22 AM

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ईराक के कुर्द बहुल क्षेत्र में 25 सितम्बर को हुए सुनियोजित जनमत संग्रह ने ततैया का छत्ता छेड़ दिया...

ईराक के कुर्द बहुल क्षेत्र में 25 सितम्बर को हुए सुनियोजित जनमत संग्रह ने ततैया का छत्ता छेड़ दिया है। स्वायत्तशासी कुर्द इलाके के राष्ट्रपति मसूद बरजानी को इस बात के लिए राजी करने हेतु अंतिम क्षणों तक प्रयास होते रहे कि वे जनमत संग्रह को स्थगित कर दें क्योंकि इसके चलते  इस्लामिक स्टेट यानी आई.एस. के बचे-खुचे तत्वों का सफाया करने काक्षेत्रीय और वैश्विक शक्तियों का अभियान अपने मुख्य लक्ष्य से भटक जाएगा। 

जहां अन्य बहुत सारे देशों ने जनमत संग्रह का विरोध किया वहीं अमरीका जैसे कुछेक देशों ने यह एतराज उठाया कि इसका मुहूर्त बिल्कुल ही गलत मौके पर निकाला गया है। केवल इसराईल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने बहुत शानो-शौकत और दृढ़ता से जनमत संग्रह का समर्थन किया। ऐसा करके उन्होंने स्वाभाविक ही अनेक देशों की सरकारों को कंपकंपी छेड़ दी है। सबसे बड़ी चिंता तो ईरान को लगी है। तेहरान ने पहले ही कह दिया था कि यदि कुर्द इलाके में जनमत संग्रह करवाया गया तो वह इस क्षेत्र से सटी अपनी सीमाओं को सील कर देगा। 

ईरान के ऐसे किसी भी कदम का लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी पर बहुत बुरा असर पड़ेगा क्योंकि वर्तमान में दैनिक उपभोग की सभी वस्तुएं ईरान से ही मंगवाई जाती हैं। सीमा बंद होने के बाद ये वस्तुएं कुर्द इलाके में उपलब्ध नहीं होंगी। चारों ओर से विभिन्न देशों से घिरे हुए इस इलाके के लिए यह बहुत कठोर सजा होगी। इस नतीजे पर पहुंचना बहुत आसान है कि जनमत के मुद्दे पर अमरीका और ईरान का दृष्टिकोण एक जैसा है। लेकिन वास्तव में यह आभास गलत है। जहां तक ईरान का सवाल है इसे तो किसी भी कुर्द इलाके की स्वतंत्रता से ही एलर्जी है। जहां तक अमरीका का संबंध है इसके लिए जनमत करवाने का समय बहुत असुविधाजनक था क्योंकि इससे इस पूरे क्षेत्र के लिए इसकी योजना अस्त-व्यस्त हो गई है। 

भारत किसी भी अन्य देश की तुलना में यह बेहतर जानता है कि ईराकी कुर्दिस्तान की स्वतंत्रता उस समय से ही अमरीका का चहेता सपना बनी हुई है जब इसकी सेनाओं ने पहली बार फरवरी 1992 में आप्रेशन डैजर्ट स्टार के दौरान ईराक में प्रवेश किया था। मार्च-अपै्रल 2003 में ईरान पर आखिरी हमले के बाद तो ये सेनाएं पक्के तौर पर ही ईराक में तैनात हैं। 1992 में ईराक के उत्तरी कुर्द इलाके को हवाई उड़ानों के लिए वर्जित करने का नतीजा यह हुआ कि एक स्वायत्तशासी इलाका अस्तित्व में आ गया। ये सब कुछ भविष्य की योजनाओं के मद्देनजर किया गया था।  

2003-04 की बात है जब राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने भारत पर लारें टपकानी शुरू की थीं। उन्होंने भारत को उत्तरी कुर्द इलाकों की जिम्मेदारी सम्भालने के लिए आमंत्रित किया था। सभी रैंकों के सैन्य अधिकारियों को तैयार-बर-तैयार रहने व भारतीय नौसेना के सबसे बड़े जलपोतों में सवार होकर प्रस्थान पर जाने का आदेश दे दिया गया था। यह सच है कि भारत अमरीका के हमजोली के रूप में पश्चिमी एशिया में साम्राज्यवादी भूमिका अदा करने के बिल्कुल कगार पर पहुंच चुका था लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अमरीका को एक महाशक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक खतरनाक शक्ति के रूप में देखते थे जो पश्चिम एशिया में अपनी हित साधना के लिए आगे बढ़ रही है। उन्होंने इस योजना को फलीभूत होने नहीं दिया था। 

क्षेत्रीय परिस्थितियां तो बदल गर्ईं लेकिन अमरीकी नीति निर्धारकों की उत्तरी कुर्द क्षेत्र के लिए मूल योजना वैसी की वैसी बनी रही। जनमत संग्रह के संबंध में यदि और कुछ नहीं तो अमरीका को इसकी टाइमिंग पर तो अवश्य ही शिकायत थी क्योंकि अमरीका इस्लामिक स्टेट के विरुद्ध लड़ाई में अग्रणी भूमिका में रहना चाहता था। इससे भी बड़ी चिंता इस बात की है कि जनमत संग्रह अप्रैल 2018 के आम चुनावों में ईराकी प्रधानमंत्री हैदर अल-अबदी के भाग्य पर बहुत विपरीत असर डालेगा।

अबदी अमरीका के वफादार नेता हैं और यदि उनकी सम्भावनाएं कमजोर पड़ती हैं तो इससे स्वाभाविक ही ईरान को लाभ पहुंचेगा। लेकिन ईरान की पोजीशन मजबूत होना एक ऐसा मुद्दा है जिस पर इसराईल के नेतन्याहू, सऊदी अरब के युवराज मोहम्मद बिन सलमान और अमरीका के डोनाल्ड ट्रम्प तीनों के ही माथे पर ही बल पड़ जाते हैं। ईरानी शासक जनमत संग्रह को दो गुणों से देखते हैं: यदि जनमत संग्रह की परिणति कुर्दों की आजादी के रूप में होती है तो ईरान इसकी सीमाओं को सील कर देगा जिससे बरजानी की सरकार का दम घुटने लगेगा।

कुर्द वर्चस्व वाला ईराक का उत्तरी क्षेत्र इसके कुल भौगोलिक क्षेत्र का 20 प्रतिशत बनता है। यदि यह एक अलग देश का रूप धारण कर लेता है तो ईराकी आबादी में शिया समुदाय का अनुपात बढ़कर 85 प्रतिशत तक चला जाएगा। जिससे मध्य पूर्व में शिया प्रभाव क्षेत्र की स्थिति और अधिक मजबूत हो जाएगी। ईरानी शासक अपने देश में मौजूद कुर्द जनसंख्या से कोई भयभीत नहीं है क्योंकि वे मुश्किल से इसकी कुल जनसंख्या का 4 प्रतिशत बनते हैं।

जहां तक तुर्की का संबंध है उसके लिए ईराकी इलाके में कुर्दों का अपना स्वतंत्र देश अस्तित्व में आना जिंदगी-मौत का सवाल बना हुआ है। ईराक की सीमा से सटे तुर्की के काफी क्षेत्र में कुर्दों का वर्चस्व है। तुर्की का प्रमुख कुर्द शहर दियारकबीर कच्चा तेल पैदा करने  वाला मुख्य क्षेत्र है। तुर्की के कम से कम 15 बिजली घर इस इलाके में से गुजरने वाली नदियों पर स्थित हैं लेकिन ईराकी सीमा पर तुर्की के टैंक और सैनिक इन कारणों से तैनात नहीं हैं। बल्कि बरजानी की कुर्द सरकार की नजरों में तुर्र्की ने सेना इसलिए तैनात  कर रखी है कि यदि कुर्द वर्चस्व वाले ईराकी इलाके में ङ्क्षहसा भड़कती है तो बेघर हुए लोगों को तुर्की में प्रवेश करने से रोका जा सके। 

तुर्की का शरणार्थियों से डरना निर्मूल नहीं है क्योंकि यह पहले ही सीरिया से आए 30 लाख शरणाॢथयों की समस्या से जूझ रहा है। जनमत को लेकर जो भय व्याप्त है वह उस अफरा-तफरी का हिस्सा है जो अमरीका ने इस क्षेत्र में फैला रखी है। जब अमरीका ने ईराक में हस्तक्षेप किया था तो उसका यह कार्यक्रम एक सूत्रीय था यानी सद्दाम हुसैन से छुटकारा पाना लेकिन उसके बाद अमरीका बिल्कुल ही अप्रत्याशित परिणामों से लगातार जूझता आ रहा है।

उत्तरी ईराक को हवाई उड़ानों के लिए प्रतिबंधित करने की प्रक्रिया ने कुर्द वर्चस्व वाले इस क्षेत्र को एक स्वायत्तशासी व्यवस्था में बदल दिया। बगदाद स्थित केन्द्रीय ईराकी सरकार के पास केवल रक्षा और विदेश मामले ही रह गए जबकि शेष सभी क्रियाकलाप बरजानी के नेतृत्व वाली स्थानीय सरकार के नियंत्रण में हैं। दुनिया में सबसे अधिक पैट्रोलियम तेल पैदा करने वाले क्षेत्रों में से एक स्थित किरकुक जैसे शहरों के भाग्य का फैसला बाद में किया जाना था। नई ईराकी सरकार के जिस संविधान की रचना अमरीकियों ने की थी उसकी धारा 140 में यह दर्ज है कि किरकुक जैसे शहरों के भाग्य का फैसला जनमत द्वारा 2007 से पहले-पहले ईराक के लोगों द्वारा किया जाएगा। 

स्पष्ट है अमरीकियों को यह पूर्ण विश्वास था कि बाहुबल के बूते ही ईरान पर नियंत्रण स्थापित कर लेंगे और स्थितियों को अपने हित के अनुरूप ढाल लेंगे लेकिन घटनाओं की चाल उनके सपनों के अनुरूप नहीं दिख रही। जब न्यूयार्क टाइम के स्तम्भकार टामस फ्राइडमैन ने 2015 में एक साक्षात्कार दौरान ओबामा से पूछा ‘‘आपने उसी समय इस्लामिक एस्टेट पर हवाई हमले करने का आदेश क्यों नहीं दिया था जब इसने पहली बार सिर उठाया था?’’ तो ओबामा की प्रतिक्रिया बहुत ही स्तब्ध कर देने वाली थी : ‘‘उस समय आई.एस. बगदाद की ओर बढ़ रहा था और उस पर हमला करने से मलिकी पर दबाव कम हो जाने की सम्भावना थी।’’ दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि केवल नूरी अल मलिकी की सरकार को अस्थिर करने के लिए ही अमरीका ने इस्लामिक स्टेट को पांव मजबूत करने दिए थे। 

इसी बीच उत्तरी इलाकों में पूरी तरह अफरा-तफरी फैल चुकी थी और बगदाद के साथ वित्तीय संबंधों में अराजकता आ चुकी थी। बरजानी को ऐसे में यह सूझा कि वह जनमत संग्रह की घोषणा करके इस स्थिति में से निकल सकते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में उन्हें जनमत संग्रह की टाइमिंग बिल्कुल ही सही महसूस हुई क्योंकि उत्तरी ईराक में आई.एस. के विरुद्ध लड़ते हुई ईराक की सेनाएं बहुत थक चुकी हैं और वे बरजानी के विरुद्ध कोई कठोर कार्रवाई करने की स्थिति में नहीं हैं। 
 

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