कब रुकेंगी किसानों की आत्महत्याएं

Edited By Punjab Kesari,Updated: 26 May, 2017 11:41 PM

farmers suicides will stop when

तीन वर्ष पूर्व नरेंद्र मोदी की सरकार बनी। इससे पहले और बाद में भी बड़े-बड़े वायदे किए गए....

तीन वर्ष पूर्व नरेंद्र मोदी की सरकार बनी। इससे पहले और बाद में भी बड़े-बड़े वायदे किए गए थे और आज भी किए जा रहे हैं कि सकारात्मक परिवर्तनों का दौर आ गया है। फलस्वरूप अब बहुत कुछ बदल गया है। दो वर्ष पूर्व दिल्ली में केजरीवाल की सरकार बनी। इस मामले में भी बहुत बदलाव का वायदा किया गया था। पंजाब में कै. अमरेंद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बने अभी दो महीने ही हुए हैं। इसने भी चुनाव से पहले और बाद में वायदा किया था कि प्रत्येक वर्ग के लोगों का जीवन सुधारा जाएगा- खासतौर पर कृषक वर्ग का कर्ज माफ कर दिया जाएगा। 

कैप्टन सरकार आने से नि:संदेह कुछ बदलाव आया है लेकिन बेचारे किसान के जीवन को किसी बदलाव ने अभी छुआ तक नहीं। केन्द्र में मोदी सरकार के गत तीन वर्ष के शासन दौरान देशभर में लगभग 40 हजार किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। यानी कि आर्थिक तंगी से जूझ रहे तथा कर्जे के क्रूर पंजों में फंसे किसान गत कई वर्षों से लगातार आत्महत्याएं कर रहे हैं। न मोदी सरकार ही इन आत्महत्याओं को रोक सकी है और न ही उससे पहले डाक्टर मनमोहन सिंह सरकार और न ही अब की कैप्टन अमरेंद्र सिंह सरकार। 

क्या यह माना जाए कि प्रधानमंत्री, कृषि मंत्री या फिर पंजाब के मुख्यमंत्री द्वारा किसानों को केवल झूठी तसल्लियां दी जा रही हैं? उपरोक्त आंकड़े तो केवल छोटे से कालखंड से संबंधित हैं। यदि इससे पहले के दौर की आत्महत्याओं का विवरण दिया जाए तो यह केंद्र के साथ-साथ प्रादेशिक सरकारों का मुंह तो चिढ़ाएगा ही, साथ यह भी बताएगा कि अधिकतर सरकारों द्वारा फिलहाल इस मामले में कुछ नहीं किया जा रहा। सवाल पैदा होता है कि आखिर देश के अन्नदाता आज आत्महत्याओं को प्राथमिकता क्यों दे रहे हैं? मरना तो कोई भी नहीं चाहता। यह कदम कोई व्यक्ति अत्यंत दुखी होकर तब उठाता है जब उसके समक्ष जीने का कोई रास्ता नहीं बचता। ऐसा करके वह खुद तो बेशक सदा के लिए दुखों से मुक्ति हासिल कर लेता है लेकिन उसके पीछे जो दुर्दशा उसके परिवार की होती है, उसके उल्लेख मात्र से रौंगटे खड़े हो जाते हैं। कड़वी सच्चाई यह है कि ऐसे परिवारों पर दुखों के पहाड़ टूट पड़ते हैं और कोई भी उनका हाथ नहीं थामता। 

फिर भी किसान की मुसीबतों की नींव उसके अल्पाकार भू-स्वामित्व से ही शुरू होती है। कृषि जोत छोटी होती जा रही है जबकि खर्चे लगातार बढ़ रहे हैं। खेती के लिए ट्रैक्टर, ट्यूबवैल, कृषि औजारों इत्यादि की जरूरत होती है। संशोधित बीज, महंगे उर्वरकों और महंगी कीड़ेमार दवाइयों की जरूरत पड़ती है। कृषि मजदूरों की भी जरूरत होती है। इन सबके बावजूद किसान सुबह से शाम तक मिट्टी से मिट्टी होता रहता है। फसल पकने पर मंडी में बेचने के पश्चात जो कुछ किसान की जेब में जाता है उससे तो कई बार खेती का लागत खर्चा भी पूरा नहीं होता। कई बार पकी फसल  बारिश, तूफान या किसी अन्य प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ जाती है तो किसान की हालत और भी बदतर हो जाती है। केंद्र द्वारा उसकी फसल का जो भाव तय किया जाता है वह कृषि लागतों से कहीं कम होता है। 

परिणाम यह होता है कि किसान न तो फसल को संभाल कर घर में रख सकता है और न खेती के बिना कोई अन्य काम कर सकता है। इसलिए घाटा खाने के बाद भी वह खेती में ही लगा रहता है। इस घाटे की पूॢत वह बैंकों, सहकारी समितियों एवं आढ़तियों से ऋण लेकर करता है। साल दर साल यह घाटा बढ़ता ही जाता है और किसान कर्ज वापस नहीं कर पाता। उसने ट्रैक्टर की किस्तें अदा करनी होती हैं तथा घर का खर्च चलाना होता है। इसके अलावा बच्चों की पढ़ाई, विवाह-शादी तथा बुजुर्गों की मृत्यु, रस्म किरया इत्यादि पर भी खर्च करना होता है। कैप्टन सरकार ने पंजाब के किसानों के आंसू चुनावों से पूर्व ही पोंछने के प्रयास किए थे लेकिन सच्चाई यह है कि आंसू यथावत बह रहे हैं, आत्महत्याएं पहले की तरह जारी हैं। कर्ज माफी के संबंध में बनाई गई समिति की रिपोर्ट का इंतजार किया जा रहा है। कोई नहीं कह सकता कि यह रिपोर्ट कब आएगी। 

हाल यह है कि कृषि घाटे का धंधा बन गई है। गत वर्षों में हजारों ही किसान खेती को अलविदा कह चुके हैं।  कल जो किसान खेतों का मालिक था वह आज शहरों में स्वयं मेहनत-मजदूरी करने को मजबूर है। हैरानी और अफसोस है कि देश को अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बनाने वाले किसानों का मोदी सरकार ने भी सही ढंग से हाथ नहीं थामा है। इसलिए यदि किसी समय हरित क्रांति के अग्रणी रह चुके पंजाब के किसान लगातार आत्महत्याएं कर रहे हैं, तो इस मामले में आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु एवं महाराष्ट्र भी पीछे नहीं हैं। दिल्ली का जंतर-मंतर अक्सर ही देश भर के किसान संगठनों के रोष प्रदर्शन का अखाड़ा बनता रहता है। 

अभी अधिक दिन नहीं हुए जब तमिलनाडु के किसानों ने अपने गले में मृतक किसानों की खोपडिय़ों की मालाएं पहन कर और मुंह में चूहे लेकर नंगे धड़ रोष प्रदर्शन किया। लेकिन मोदी सरकार के कानों पर जूं नहीं सरकी और न ही प्रदेश की सरकारों के। हैरानी की बात तो यह भी है कि केंद्र सरकार बड़े-बड़े उद्योगपतियों को तो मामूली सी तपिश लगने पर रहमतों की बारिश शुरू कर देती है। विजय माल्या जैसे कारोबारी बैंकों से हजारों करोड़ की ठगी मारकर इंगलैंड में गुलछर्रे उड़ा रहे हैं तो सरकार मूकदर्शक बनी रहती है। इतनी भारी राशि का मामूली सा प्रतिशत खर्च करके भी किसानों की आत्महत्याएं रोकने का प्रयास नहीं हो रहा। 

किसानों को आत्महत्याओं की दलदल में से निकालना केंद्र सरकार के लिए आसान नहीं। डा. मनमोहन सिंह की सरकार ने किसानों के कल्याण हेतु प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डा. स्वामीनाथन से एक रिपोर्ट तैयार करवाई थी, जिसमें मुख्य रूप में दो सुझाव दिए गए थे- पहला: किसानों की फसलों के दाम कृषि लागतों के अनुसार दिए जाएं। दूसरा: किसानों के  कुल  उत्पादन पर 50 प्रतिशत मुनाफा दिया जाए। वास्तव में यह मुनाफा ही किसान की तंगहाली को दूर करेगा और उसकी घरेलू जरूरतें पूरी करेगा जिनको फिलहाल वह ट्रैक्टर इत्यादि बेचकर पूरा करता है। सवाल यह है कि सरकार ने यह रिपोर्ट तैयार तो करवा ली लेकिन इसे अब तक लागू करने की बजाय ठंडे बस्ते में डाला हुआ है। इसका सीधा सा तात्पर्य यह है कि आज आत्महत्याओं के दौर में से गुजर रहे किसानों को बचाने की सरकार को कोई चिंता नहीं। इससे पहले कि आत्महत्याओं के मार्ग पर चल रहे किसानों की सूची और लंबी हो जाए, केंद्र सरकार को प्रदेशों के साथ तुरंत परामर्श करके जहां तक संभव हो, किसानों का ऋण माफ करना चाहिए और शीघ्रातिशीघ्र डा. स्वामीनाथन की रिपोर्ट लागू करनी चाहिए।
 

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