तुर्की के बिना ‘नाटो’ का गुजारा नहीं

Edited By ,Updated: 28 Jul, 2016 12:39 AM

without turkey nato not make ends meet

‘ब्रेग्जिट’ और तुर्की के असफल राजपलटे के बीच क्या संबंध है? डोनाल्ड ट्रम्प, बर्नी सैंडर्स, कॉरबईन, पाब्लो...

‘ब्रेग्जिट’ और तुर्की  के असफल राजपलटे के बीच क्या संबंध है? डोनाल्ड ट्रम्प, बर्नी सैंडर्स, कॉरबईन, पाब्लो इग्लेसिआ, मेरीन ली पैन जैसे लोगों और कई अन्य स्थानों पर व्यवस्था के विरुद्ध घिर रहे तूफानों के दौर में ये दोनों मुद्दे ‘नाटो’ के लिए खतरे की घंटी बने हुए हैं। विश्व भर की दक्षिणपंथी सत्ता व्यवस्थाएं अपने बाल नोच रही हैं। रिपब्लिकन पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प किसी जमाने में ‘अमरीकी विशिष्टतावाद’ के ध्वजवाहक माने जाते थे लेकिन अब उन्होंने  अतीत से तौबा कर ली है। उन्होंने ‘न्यूयार्क टाइम्स’ को दिए साक्षात्कार में कहा, ‘‘अमरीका को दूसरों को भाषण पिलाने का कोई अधिकार नहीं। हमें खुद अपना घर ठीक करना होगा।’’

यूरोप से ब्रिटेन के औपचारिक ‘पाणिहरण’ ने अंधमहासागरीय शक्तियों के गठबंधन को कुछ इस अंदाज से कमजोर किया है कि दबाव के क्षणों में यूरोप रूसियों की मीठी-मीठी बातों पर कान धर सकता है। अमरीका में राष्ट्रपति की कुर्सी पर ट्रम्प बैठे या कोई अन्य, यह वस्तुस्थिति वाशिंगटन को किसी भी कीमत पर पसंद नहीं। हाल ही में वारसा (पोलैंड) में नाटो सदस्यों की भागदौड़ का एक ही सर्वोच्च उद्देश्य था : उस गठबंधन को सुदृढ़ बनाना जिसे डोनाल्ड रम्सफैल्ड की प्रसिद्ध उक्ति के अनुसार ‘नया यूरोप’ की संज्ञा दी गई है। पुराना यूरोप- यानी फ्रांस एवं जर्मनी बहुत तुनक-मिजाज और पौरुष-विहीन बन गया है। वैसे भी यह कोई नहीं जानता कि अगले वर्ष के चुनावों के बाद महाद्वीपीय यूरोप का चेहरा-मोहरा कैसा होगा?

निश्चय ही समय बहुत हताशापूर्ण है। अल्पकालिक दृष्टि से पश्चिमी देश रूस के विरुद्ध केवल एक ही मुद्दे पर अंक बटोर सकते हैं-रियो ओलिम्पिक की तैयारियों के बीच ‘सरकार प्रायोजित डोपिंग’ का आरोप लगा रूसी एथलीटों का नाम कलंकित करना और ऐसा करने के साथ-साथ अमरीकी चुनावी नतीजों की प्रतीक्षा करना। घटनाक्रम के इस खौलते हुए देगचे में यदि कोई कमी रह गई थी उसे एर्दोगन ने पूरा कर दिया है जिनका देश नाटो का कुंजीवत सदस्य है। राजपलटा असफल करने के बाद वह कई नौटंकियां कर रहे हैं।

लेकिन वह बात-बात पर ‘त्रिया चरित्र’ जैसा रंग क्यों दिखा रहे हैं? आखिर राजपलटा विफल करने के बाद उनके हाथों ऐसी शक्तियां आ गईं जिनका सपना कोई भी तानाशाह ले सकता है। इस स्थिति में कुछ विश£ेषकों ने ‘भेडिय़ा आया-भेडिय़ा आया’ की कथा की चर्चा शुरू कर दी है। तुर्की से निष्कासित किए जाने के बाद अमरीका में रह रहे सूफी धर्मोपदेशक फतह उल्लाह गुलण ने पहले ही आरोप लगा दिया है : ‘‘राजपलटे का नाटक शायद मुझे और मेरे समर्थकों को गिरफ्तार करने के लिए किया गया था। सचमुच में बिना व्यापक योजनाबंदी के हजारों अध्यापकों, डाक्टरों, जजों की सूची रातों-रात तो तैयार नहीं हो सकती। फिर भी एर्दोगन सरकार का आरोप है कि राजपलटे की साजिश गुलण ने ही रची थी।’’

राजपलटा विफल होने के बाद जो बात पश्चिमी देशों के पेट में मरोड़ पैदा कर रही है, उसी पर मास्को, तेहरान, दमिश्क और दक्षिण लेबनान (हिजबुल्ला शासित) की बांछें खिली हुई हैं। एक स्वत: सिद्ध निष्कर्ष यह कि राजपलटे की सफलता का पश्चिमी जगत द्वारा स्वागत किया जाना था। एर्दोगन और वाशिंगटन के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। ‘नाटो’ देशों के मन में इस्लामपरस्ती की ओर बढ़ रहे अवज्ञाकारी तुर्की की संगठन में लगातार मौजूदगी को लेकर ढेर सारी परेशानियां हैं। इस संबंध में अवश्य ही कुछ किए जाने की जरूरत है और वह भी शीघ्रातिशीघ्र।

अच्छी-खासी जान-पहचान और संबंध रखने वाले इस्तांबुल स्थित एक भारतीय व्यवसायी ने राजपलटे के दिन की लोकप्रिय अवधारणा की पुष्टि की है। राजपलटा सफल हो गया होता यदि इसके नेताओं ने आई.एस.आई.एस. के विरुद्ध पुलिस कार्रवाई का निर्देश जारी न किया होता। उन्होंने तो अस्पतालों में उपचाराधीन तथा अन्य कहीं भी ठहरे हुए आई.एस. आतंकियों को दबोचने का हुक्म दे दिया था।

अंकारा से इस बारे में अलग-अलग तरह की रिपोर्टें आ रही हैं। वे किसी पहेली से कम नहीं। इनमें यह सुझाव दिया गया है कि तुर्की में मौजूद सी.आई.ए. का नैटवर्क आई.एस. के सफाए के विरुद्ध था। यह बात समझ से परे है कि यदि आई.एस. विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध का आदेश कथित तौर पर वाशिंगटन से ही जारी हुआ है तो तुर्की में आई.एस. के ‘समस्त’ ठिकानों को लक्ष्य बनाने के मामले में ढिलमुल रवैया क्यों बरता जा रहा है? केवल एक ही संभावना हो सकती है कि आई.एस. अनेक प्रकार के तत्वों की खिचड़ी है जिनमें से कुछेक को बचाए रखने की जरूरत है।

राजपलटे के नेताओं ने दूसरी गलती  यह की कि उन्होंने अमरीकी कमांडरों  को सूचना दिए बगैर  ईराक से तुर्की की सेनाएं वापस बुला लीं जबकि अमरीकी कमांडर गत माह फालुजा  में सफल सैनिक कार्रवाई के बाद अब मोसुल पर हमला करने की तैयारियां कर रहे थे। यदि अमरीकी हितों/सम्पत्तियों को नुक्सान पहुंचाए बगैर राजपलटा अपने रास्ते पर आगे बढ़ता रहता तो एर्दोगन   की लुटिया किसी न किसी हद तक डूब चुकी होती। अब वह सुरक्षित बच गए हैं तो इस राजपलटे से भी  बड़ी और बेहतर कार्रवाई करने की योजनाएं अवश्य ही बना रहे होंगे।  अमरीकियों के विरुद्ध उनके मन में जबरदस्त गुस्सा और आक्रोश है। उनकी इस मनोदशा के मद्देनजर तुर्की नाटो के सदस्य के रूप में कितना भरोसेमंद सिद्ध हो सकताहै?

नाटो देशों में सबसे बड़ी सेना  और इंसिॢलक में परमाणु अड्डा रखने वाले तुर्की के बगैर क्या नाटो पहले जैसी विश्वसनीयता बनाए रख सकता है? यह परमाणु अड्डा शीत युद्ध के चरम पर अमरीकी काप्र्स ऑफ इंजीनियर द्वारा बनाया गया था। यह अब कोई सैन्य दृष्टि से गोपनीय तथ्य नहीं है कि इस अड्डे में 50 बी-61 हाइड्रोजन बम मौजूद हैं जिनमें से प्रत्येक हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम  की तुलना में 100 गुणा से भी अधिक विनाशकारी है।

और एर्दोगन की हिमाकत देखिए कि उन्होंने इंसिॢलक परमाणु अड्डे की विद्युत सप्लाई काट दी थी। आखिर इस अड्डे की ही सप्लाई क्यों काटी गई? क्योंकि एर्दोगन को संदेह था कि गुलण और अमरीकियों के बीच सांठगांठ  है। गुलण की तुर्की में व्यापक संस्थागत शक्ति है और इन संस्थाओं तक अमरीकियों को कई वर्षों  से पहुंच हासिल है। गुलण खुद तो अमरीका के पेंसिलवेनिया शहर में अपने मुख्यालय में रहता है लेकिन वहीं से अपने तुर्की साम्राज्य का संचालन करता है। इसी कारण एर्दोगन ने राजपलटे की विफलता के बाद यह  कटु टिप्पणी की थी, ‘‘पेंसिलवेनिया में बैठ कर तुर्की की हुकूमत नहीं चलाई जा सकती।’’

इस संबंध में एन.बी.सी. न्यूज ने भी बहुत नाटकीय  समाचार को हवा दी : राजपलटे का समाचार सुनते ही एर्दोगन फटाफट इस्ताम्बुल पहुंचे लेकिन वहां बागियों ने उनके विमान को उतरने की अनुमति नहीं दी। फिर इस उड़ान को जर्मनी की ओर मोड़ा गया यानी कि प्रत्यक्षत: एर्दोगन निष्कासन की स्थिति की ओर  बढ़ रहे थे लेकिन जर्मनी ने भी उनके विमान को उतरने की अनुमति न दी। ऐसी स्थितियों में अन्य देशों का व्यवहार भी जर्मनी जैसा ही होता है।

फिर किसी चमत्कार की तरह एर्दोगन ऐन उस समय तुर्की में प्रकट हो गए जब राजपलटे के नेताओं ने ऐसे कदम उठाने शुरू कर दिए जो अमरीका को पसंद नहीं। यह रिपोर्ट   उस समय और भी रहस्यमय बन गई जब यह खुलासा हुआ कि तुर्की के जिन 2 पायलटों ने 24 नवम्बर 2015 को 2 रूसी पायलटों को विमान उतारने पर मजबूर किया था उन्हें एर्दोगन के वफादार सैनिकों ने बंधक बना रखा है। इंसिॢलक के अमरीकी सैन्य अड्डे  पर राजपलटे के नेताओं द्वारा नियंत्रित एफ-16 लड़ाकू विमानों में तेल भरा गया था। इसी कारण एर्दोगन नाटो पर लाल-पीले हो रहे हैं। नाटो की समस्या यह है कि तुर्की के बिना इसका गुजारा नहीं। इसी पहेली के हल का इंतजार है। 
        

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