स्वामी विवेकानंद ने भारत में ‘अमीरी-गरीबी की खाई ’ पर आंसू बहाए

Edited By ,Updated: 20 Apr, 2015 04:32 AM

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एक समाचार पढ़ा कि इस समय भारत की अर्थव्यवस्था विश्व में सबसे अधिक तेजी के साथ आगे बढ़ रही है। जब चीन में वृद्धि दर केवल 7.3 प्रतिशत है तो भारत में वृद्धि दर 7.5 प्रतिशत है।

(शांता कुमार): एक समाचार पढ़ा कि इस समय भारत की अर्थव्यवस्था विश्व में सबसे अधिक तेजी के साथ आगे बढ़  रही है। जब चीन में वृद्धि दर केवल 7.3 प्रतिशत है तो भारत में वृद्धि दर 7.5 प्रतिशत है। जी-20 के सभी देशों में भारत की वृद्धि दर सबसे अधिक है। इतना ही नहीं भारत में अमीरों और करोड़पतियों की संख्या बढ़ती चली जा रही है। 

विश्व के 20 सबसे अमीर व्यक्तियों में अमरीका के 5 और भारत के 3 हैं। यह सब पढ़ कर प्रसन्नता होती है, राष्ट्रीय स्वाभिमान से मस्तक ऊंचा हो जाता है। एक और समाचार पढ़ा कि भारत के एक धनवान उद्योगपति ने मुम्बई में 8000 करोड़ रुपए से अपना आलीशान मकान बनाया। उनका हैलीपैड भी उसी मकान में है। एक और समाचार आया कि एक अन्य अमीर व्यक्ति ने अपनी धर्मपत्नी के जन्मदिन पर 135 करोड़ रुपए का हवाई जहाज भेंट किया। ऐसे बहुत से समाचारों से लगता है कि भारत खुशहाल हो गया। शहीदों के सपनों का भारत बन गया।
 
परन्तु कुछ दिन के बाद मुम्बई के निकट के एक गांव जौहर तालूका का एक और समाचार पढऩे को मिला। 28 वर्षीय एक अति गरीब मां ने अपनी बेटी को 400 रुपए में रमेश नाम के व्यक्ति को बेच दिया। वह मां गरीबी और भुखमरी से इतनी लाचार थी कि 400 रुपए  लेकर अपने जिगर के टुकड़े को बेच कर चली गई। एक मां की लाचारी मजबूरी कितनी होगी कि 400 रुपए में वह कर दिया जिसे पढ़ कर ही दिल दहल जाता है।
 
उसी गांव में 1993 में 34 बच्चे कुपोषण और भुखमरी के कारण मर गए थे। पिछले वर्ष भी इसी कारण कुछ बच्चों के मरने का समाचार आया था। विश्व की ऐश्वर्य नगरी मुम्बई के बिल्कुल निकट इस क्षेत्र की आबादी 1 लाख 27 हजार के लगभग है जिनमें से 90 प्रतिशत आदिवासी गरीब रहते हैं। 
 
भारत के विकास के संबंध में इसी प्रकार के आर्थिक विषमता के समाचार छपते रहते हैं। भारत के विकास की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि विकास के साथ सामाजिक न्याय नहीं हुआ।  विकास का सबसे अधिक लाभ सबसे ऊपर के लोगों को मिला और सबसे कम लाभ सबसे नीचे के सबसे गरीब लोगों को हुआ। जितनी आर्थिक वृद्धि हो रही है उतनी ही आर्थिक विषमता भी बढ़ रही है।  
 
केन्द्र की नई सरकार एक नारा दे रही है-‘‘सबका विकास-सबका साथ’’।  विचार तो बहुत अच्छा है परन्तु काफी नहीं है। सबका विकास, परन्तु सबसे नीचे के सबसे गरीब का विकास सबसे पहले और सबसे अधिक होना चाहिए।  विकास की 15 सीढिय़ों में से कुछ ऊपर की सीढ़ी पर पहुंच गए, कुछ 10  पर पहुंच गए और कुछ अभागे पहली सीढ़ी पर ही तरस रहे हैं। सबसे नीचे वालों को अधिक तेजी से ऊपर लाना पड़ेगा। तभी एक संतुलन बैठेगा।  स्वतंत्रता के बाद यह हुआ नहीं। यदि अमीर 15 कदम ऊपर जाता है तो कुछ गरीब कठिनाई से 2  कदम आगे जा पाते हैं 13 कदमों का फर्क और बढ़ जाता है। कुछ अति गरीब तो पहली सीढ़ी पर ही पड़े रहते हैं। इसी विकास से एक तरफ अमीरी चमकती जा रही है और दूसरी तरफ गरीबी सिसकती रहती है।  
 
इसी प्रकार के विकास के कारण भारत के 36 बड़े उद्योगपतियों की सम्पत्ति 12 लाख करोड़ रुपए हो गई। यह रकम भारत सरकार के एक साल के गैर-योजना बजट से भी अधिक है। यह भारत के 25 करोड़ लोगों की सम्पत्ति के बराबर है।  
 
भारत के 100  सबसे अमीर लोगों की सम्पत्ति एक वर्ष में 6 लाख  45 हजार करोड़ से बढ़ कर 12 लाख 90 हजार करोड़ हो गई। केवल एक साल में दोगुनी।  सबसे अधिक अमीरों की सम्पत्ति में सबसे अधिक वृद्घि। 
 
2 वर्ष पहले के राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे के अनुसार 26 करोड़ भारतीय अति गरीब हैं, उनमें से 6 करोड़ केवल 8 रुपए रोज पर गुजारा करते हैं।  राष्ट्रसंघ के विश्व हंगर इंडैक्स के अनुसार विश्व के 119  देशों में भारत नीचे 94वें स्थान पर है।
 
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम में मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारत नीचे 127वें स्थान पर है, जबकि कुछ वर्ष पहले भारत 113वें स्थान पर था। राष्ट्रसंघ की एक रिपोर्ट के अनुसार सबसे अधिक भूखे लोग भारत में रहते हैं।  कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या सबसे अधिक भारत में है। भारत कृषि प्रधान देश है और अन्न के बिना कोई देश जीवित नहीं रह सकता।  
 
वह अन्न पैदा करने वाला किसान गरीबी और निराशा की उस सीमा पर पहुंचा है जहां पर लगातार आत्महत्या कर रहा है। अब तक 2 लाख 70 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इस बार मौसम की मार पड़ी तो लगातार आत्महत्याओं के समाचार आ रहे हैं। खेती सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यवसाय है और भारत में खेती की सबसे अधिक उपेक्षा हुई है। शहीदों और देश-भक्तों ने लम्बा संघर्ष करके एक खुशहाल भारत बनाने का सपना लिया था परन्तु आज 3 भारत बन गए  हैं।  अमीर-भारत, गरीब-भारत और भूखा आत्महत्या के कगार पर खड़ा भारत। इस दिशा में केन्द्र की नई सरकार बहुत कुछ करने की कोशिश कर रही है।  पर दरिद्र नारायण व अन्त्योदय की दिशा में और भी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
 
भारत का यह आॢथक परिदृश्य-आलीशान महलों में सजती-संवरती, चमकती अमीरी और पिछड़े गांवों की झोंपडिय़ों में तरसती-कराहती गरीबी, कर्जे के बोझ में दबे मजबूरी में आत्महत्या करते अन्नदाता किसान, कभी सोने की चिडिय़ा कहे जाने वाले भारत में विश्व के सबसे अधिक गरीब और भूखे, सब से अधिक कुपोषण से मरने वाले बच्चे, अमीर व गरीब में बढ़ती इस खाई से आॢथक विषमता के कारण बढ़ते अपराध और नक्सलवाद से रोज मरते लोग सुरक्षा बलों का आहत मनोबल—ये सब सोच वेदना की टीस गहरी हो जाती है। 
 
याद आता है 25 दिसम्बर 1892—कन्याकुमारी की शिला पर एक युवा संन्यासी विवेकानन्द।  घर-बार परिवार सब कुछ छोड़ दिया केवल मोक्ष प्राप्त करने के लिए—4 वर्ष पूरे भारत में घूम कर जब देखी गरीबी, भुखमरी, पिछड़ापन, दीनता-हीनता, स्वाभिमान शून्यता तो ऐतिहासिक घोषणा की-‘‘हे प्रभु नहीं चाहिए मुझे मोक्ष  जब तक भारत का प्रत्येक व्यक्ति भर पेट भोजन नहीं कर लेता। मैं बार-बार जन्म लूं और मातृभूमि की सेवा करू’’ —और फिर स्वामी विवेकानन्द ने देश को हिलाया, युवकों को ललकारा, स्वाभिमान जगाया और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की। इसलिए सुभाष, नेहरू व अरविंद घोष ने उनको आधुनिक भारत का निर्माता कहा। 
 
मन पटल पर एक कल्पना उभर आती है।  विवेकानन्द भारत में आए हैं। उल्लास छा जाता है। उन्हें प्रणाम कर कहते हैं कुछ लोग- ‘‘हम आपकी जन्म-शताब्दी मना रहे हैं आप आए भाग्यशाली हैं हम, आज पूरा देश आपको याद कर रहा है।  हमने उसी कन्याकुमारी की शिला पर आपका भव्य स्मारक बनाया है चलिए सबसे पहले वहीं चलिए.......’’
 
स्वामी जी मौन शांत देखते हैं सब की तरफ, दिव्य दृष्टि से उस सारे भारत को देखते हैं जिसे 125 वर्ष पहले पूरे 4 साल घूम कर देखा था। उनकी आंखें सजल होती हैं, कुछ आंसू टपकते हैं, अपने गेरुए वस्त्र से पोंछते हैं।  सब का उल्लास गहरी हैरानी में बदल जाता है। 
 
अपनी सजल आंखें उठा कर उसी ओजस्वी वाणी में बोलते हैं स्वामी जी - ‘‘शताब्दी मना रहे हो  लाखों लोगों के  कार्यक्रम भाषण-पुस्तकें—करोड़ों रुपए से कन्याकुमारी की शिला पर मेरा भव्य स्मारक —वाह क्या बढिय़ा तरीका है मुझे याद करने का।  उसी शिला पर मैंने जिस बात के लिए मोक्ष को भी छोड़ दिया था तुम उसे पूरी तरह भूल गए। मैंने कहाथा भूल जाओ देवी-देवताओं को। भारत के गांव का गरीब ही तुम्हारा देवता है। उसकी सेवा ही भगवानकी पूजा है।  मैंने संन्यासी होते हुए सत्यनारायण नहींदरिद्र नारायण की बात कही थी।  वह गरीब दरिद्र आजसवा सौ साल के बाद भी दरिद्र है। मैंने प्रत्येक भारतीय की भूख मिटाने को कहा था तुम ने भारतको विश्व के सबसे अधिक भूखे लोगों का देश बना दिया।’’
 
स्वामी जी रुके, आंखें पोंछीं और फिर बोले- ‘‘तुमने कुछ दिशाओं में सराहनीय उन्नति भी की है।  विश्व में नाम भी बनाया है पर वह नहीं किया जो दरिद्र नारायण के संदेश से तुम्हें करने को कहा था।  वही बात बाद में महात्मा गांधी जी ने अन्त्योदय के संदेश से कही थी।  तुम हम दोनों को भूल गए।  गरीब को झोंपड़ी में छोड़ कर विकास के शिखर पर जा रहे हो’’
 
कहते-कहते स्वामी जी की आंखों से आंसू टपकने लगे। सामने खड़े लोग हतप्रभ हो शून्य में निहारने लगे, वह फिर बोले-‘‘तुम स्मारक बनाते रहे, भाषण करते सुनते रहे। तुम सदियों से यही कर रहे हो तभी सदियों की गुलामी में डूबे रहे। वह करके दिखाओ जिस के लिए मैंने मोक्ष भी छोड़ दिया था। फिर बुलाना मुझे, आऊंगा—कहते-कहते अदृश्य हो गए स्वामी जी।’’
 

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