‘गैर-शासन’ वाला रहा मोदी का शुरूआती कार्यकाल

Edited By ,Updated: 28 May, 2015 01:33 AM

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सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरुण जेतली प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलवाने के लिए देश के विभिन्न भागों से सम्पादकों को आमंत्रित कर रहे हैं ताकि उनके पहले वर्ष के शासन की उपलब्धियों का बखान कर सकें।

(कुलदीप नैयर) सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरुण जेतली प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलवाने के लिए देश के विभिन्न भागों से सम्पादकों को आमंत्रित कर रहे हैं ताकि उनके पहले वर्ष के शासन की उपलब्धियों का बखान कर सकें। यह जनसम्पर्क अभियान नया नहीं है क्योंकि उनके सभी पूर्ववर्ती ऐसा कर चुके हैं।

भारत की पहचान, जवाहर लाल नेहरू ऐसा नहीं करते थे। फिर भी, जब 1962 में भारत चीन के हाथों पराजित हुआ, नेहरू ने इसका स्पष्टीकरण देने के लिए सम्पादकों से मुलाकात की। लाल बहादुर शास्त्री ने इतनी अधिक सद्भावना बना रखी थी कि उन्हें उनको संतुष्ट करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। यद्यपि, पाकिस्तान के साथ 1965 के युद्ध, जिसमें दोनों देशों ने जीत का दावा किया, के बाद ताशकंद जाने से पूर्व शास्त्री ने सम्पादकों को विश्वास में लिया। उनकी विनम्रता देखिए कि रवाना होने से पूर्व उन्होंने उनसे कहा कि उनका भविष्य उनके हाथ में है और जो कुछ वे लिखेंगे वह जनमत का मार्गदर्शन करेगा।

इंदिरा गांधी तब तक घोड़े पर सवार रहीं जब तक फसलों के मामले में असफलता नहीं मिली और अमरीका से गेहूं आयात करना पड़ा जिसका भुगतान रुपयों में करना पड़ा। उन्होंने भी सम्पादकों से अनौपचारिक बात की और भारत की खराब हो रही आर्थिक स्थितियों पर रोशनी डाली।

उनके बेटे राजीव गांधी, जिन्हें बोफोर्स घोटाले के कारण बहुत चोट पहुंची थी, ने कभी भी अपना दबाव नहीं बनाया। एक, वह जानते थे कि वंशवादी संबंधों के कारण उन्हें एक पायलट के पद से पैराशूट के माध्यम से प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठा दिया गया और दूसरे,वह राजनीतिक क्षेत्र में अपनी सीमाओं के प्रति जागरूक थे।

वह इस हीनभावना से ग्रस्त थे कि उनके भाई, संजय गांधी, उस कार्य के लिए अधिक उपयुक्त थे जो उनकी मां ने उन पर थोप दिया था। वह भी सम्पादकों को खुश करने के लिए अपनी सीमाओं से आगे निकल जाते थे। उनके उत्तराधिकारी, जो कद में उनसे कम थे, ने प्रधानमंत्री कार्यालय का विस्तार करते हुए सूचना सलाहकारों की नियुक्ति की।

मोदी अपने खुद के जनसम्पर्क अधिकारी हैं। उन्होंने किसी को भी सूचना सलाहकार के तौर पर नियुक्त नहीं किया। सम्भवत: उन्होंने इसकी जरूरत महसूस की है जो प्रधानमंत्री से मिलने के लिए जेतली द्वारा सम्पादकों को दिए निमंत्रण से झलकती है। मगर क्या इससे मदद मिलेगी? मोदी संभवत: किसी कुशासन के दोषी नहीं हैं, फिर भी उनका कार्यकाल ‘गैर-शासन’ था। ऐसा कुछ भी नहीं है जो उनके पहले वर्ष के शासन में उपलब्धि के तौर पर दिखाई देता हो।

उदाहरण के लिए उनका चीन का दौरा। न तो यह उत्पादकतापूर्ण था और न ही असुखद संकट। हालांकि, यह सफल नहीं था, यह इसके गुणों को जांचने के लिए मापदंड नहीं है। उन्होंने दौरे के दौरान भारतीय क्षेत्र पर चीन के कब्जे बारे भारत की अप्रसन्नता प्रकट की जो अच्छी बात है। अब उपलब्ध विश्वस्त रिपोर्टों से यह पता चला है कि उन्होंने अरुणाचल के लोगों के पासपोर्ट पर स्टैपल वीजा का मुद्दा भी उठाया, जिस पर चीन अपना क्षेत्र होने का दावा करता है।

मेरी निजी राय है कि मोदी को अपना दौरा रद्द कर देना चाहिए था जब उनके पेइचिंग पहुंचने से एक दिन पूर्व सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा संचालित एक समाचार पत्र में भारत के खिलाफ निंदापूर्ण लेख छापा गया जिसमें एक नक्शे में अरुणाचल प्रदेश तथा जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा नहीं दिखाया गया।

नई दिल्ली इस दौरे को लेकर इतनी उतावली क्यों थी, यह मेरी समझ से बाहर है। इससे कम उकसावे के कारण नई दिल्ली ने इस्लामाबाद में विदेश सचिवों की बैठक रद्द कर दी थी। विदेश सचिवों की बैठक से पूर्व नई दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त ने हुर्रियत नेताओं से मुलाकात की थी। प्रत्यक्ष रूप से चीन के साथ संबंधों के लिए ऐसा कोई पैमाना नहीं है। इसकी बजाय भारत अपने बड़े बाजार में उसे पहुंच बनाने का प्रस्ताव दे रहा है।

यह देखते हुए कि भारत चीन का सामना नहीं कर सकता, इसका यह अर्थ नहीं कि नई दिल्ली को पेइचिंग से बहुत डरना चाहिए। इसका उपयुक्त जवाब देने के लिए नई दिल्ली को तिब्बत से आने वाले लोगों के लिए स्टैपल वीजा शुरू कर देना चाहिए।

यदि हम यह मानते हैं कि सीमा विवाद चीन के साथ हमारे संबंधों को खराब कर रहा है तो हम खुद को मूर्ख बना रहे हैं। नेहरू ने इसे सही रूप में रखा था जब उन्होंने कहा था कि यह झगड़ा दो महाशक्तियों के बीच है जो अलग विचारधाराओं पर चल रही हैं। केवल हमारी अगली पीढ़ी ही निर्णय करेगी कि क्या पूर्णतावादी साम्यवाद के खिलाफ लोकतंत्र विजय हासिल करेगा अथवा नहीं।

अभी जो स्थिति है, पूर्णतावाद जीता है। अधिकांश दक्षिण एशियाई देश पेइचिंग के प्रभाव में हैं, हालांकि वे प्रशासन के अपने तरीके पर चलते हैं। नेहरू ने आशा जताई थी कि एक लोकतांत्रिक राजनीति को प्राथमिकता दी जानी चाहिए मगर उन्होंने साम्यवादी विचारधारा की शक्ति पर भरोसा नहीं किया था। मतपेटी के लिए तर्क की जरूरत है, बल प्रयोग की नहीं।

मोदी की सर्वाधिक खराब कारगुजारी आर्थिक क्षेत्र में है। बहुत से लोग उनके ‘अच्छे दिन आ गए’ के वायदे के झांसे में आ गए थे। सच्चाई पूर्णत: भिन्न है। आम आदमी को कभी भी इतना कष्ट नहीं झेलनापड़ा था जितना कि वह आज झेल रहा है।

फिर भी मोदी का शासनकाल कई मायनों में लोकतांत्रिक है। उनके अतीत को देखते हुए मुझे आशा थी कि वह पहले दिन से ही संकुचित विचारधारा वाली अपनी बंदूकें तान लेंगे मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया, जो एक राहत की बात है। फिर भी उनकी नीतियों को लेकर कोई गलतफहमी नहीं है। उन्होंने धार्मिक आधार पर समाज को बांटने का काम अपनी पार्टी के गैर-जिम्मेदार लोगों पर छोड़ दिया है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा विश्व हिन्दू परिषद के सदस्यों पर।

मोदी तथा उनके गृहमंत्री राजनाथ सिंह का जनाश्वासन कि वह मुसलमानों सहित सभी समुदायों के लिए समान अधिकार चाहते हैं, सकारात्मक पहलू है मगर उन्होंने कभी भी माहौल को संकुचित विचारधारा के प्रदूषण से मुक्त रखने में मदद नहीं की। फिर भी यह अजीब लगता है कि हिन्दू राष्ट्र की विचारधारा वाले लोग उकसाऊ भाषण देते हैं जो लोगों को साम्प्रदायिक दंगों में शामिल होने के लिए नहीं उकसा पाते। यह एक बड़ी राहत है। बेहतर होता कि वे वातावरण को दूषित नहीं करें। सम्भवत: वे इससे समाज को होने वाले नुक्सान के प्रति जागरूक हैं जिसमें 80 प्रतिशत हिन्दू हैं।

ऐसा दिखाई देता है कि मोदी ने एक लाल रेखा खींच दी है जिसे संघ तथा उसके सहयोगी पार नहीं करते। इससे एक स्वस्थ धर्मनिरपेक्ष माहौल बनाने में मदद मिली है। हम आशा करते हैं कि मोदी शासन के बाकी 4 वर्षों में साम्प्रदायिक सद्भावना बनी रहेगी। सम्भवत: उन्हें तथा उनकी पार्टी को एहसास हो गया है कि सम्प्रदायवाद न तो शांति और न ही लोकतांत्रिक विशेषताओं के लिए अच्छा है। उन्हें तथा उनकी पार्टी को यह अवश्य सुनिश्चित करना होगा कि हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच अविश्वास किसी भी रूप में सामने न आए।

ऐसी शिकायतें हैं कि मुस्लिम युवाओं को उठा कर बिना मुकद्दमे चलाए नजरबंद कर दिया जाता है। यह जानकर और भी खौफ पैदा होता है कि उनमें से सैंकड़ों बिना मुकद्दमे के वर्षों से जेलों में पड़े हैं। यह कहना कि ऐसा कांग्रेस शासन काल में भी होता था, अपराध की जघन्यता को कम नहीं करता।

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