क्या लोकतंत्र ‘पुलिस राज’ में बदलता जा रहा है

Edited By ,Updated: 26 Jul, 2015 10:52 PM

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दिल्ली के पुलिस कमिश्नर बस्सी साहिब का कहना है कि यह दिल्ली के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा अगर पुलिस को चुनी हुई सरकार को रिपोर्ट करना पड़ेगा।

(आशुतोष): दिल्ली के पुलिस कमिश्नर बस्सी साहिब का कहना है कि यह दिल्ली के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा अगर पुलिस को चुनी हुई सरकार को रिपोर्ट करना पड़ेगा। वह यह भी कह गए कि यह एक ऐतिहासिक गलती होगी। सबको पता है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है और यहां पुलिस केन्द्र सरकार के अधीन है। वह सीधे गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करती है। यानी पुलिस पर दिल्ली की सरकार का कोई अधिकार नहीं है। आम आदमी पार्टी ने जनता से वायदा किया था कि वह दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ेगी। 

पिछले दिनों आनंद पर्वत इलाके में एक बच्ची को सरेआम चाकुओं से गोद कर दिनदिहाड़े मार दिया गया। पुलिस को इस मामले में सिर्फ एक गवाह मिला और जब दिल्ली के मुख्यमंत्री गए, टी.वी. कैमरे गए तो सैंकड़ों लोग निकल कर आए और कहा कि उन्होंने घटना को होते हुए देखा है। ऐसे में कई सवाल पुलिस की कार्रवाई पर उठते हैं। इस संदर्भ में आम आदमी पार्टी और सरकार ने कहा कि दिल्ली पुलिस को या तो हमारे अधीन किया जाए या फिर प्रधानमंत्री जी खुद हफ्ते में दो घंटे दिल्ली की कानून व्यवस्था का जायजा लें।
 
लोकतंत्र में पुलिस और सेना को चुने हुए लोगों के अधीन काम करना होता है। उनका समाज में एक योगदान है जिसे कम कर नहीं आंका जा सकता, लेकिन यह भी सच है कि पुलिस और सेना का अपना एक तर्कशास्त्र है उस तर्कशास्त्र में दुनिया भर में यह सहमति बनी है कि देश और राज्य की व्यवस्था को सेना और पुलिस के हवाले सौंपना देश हित में नहीं होता। समाज हित में नहीं होता। 
 
आप मानें या न मानें सेना और पुलिस का दमनकारी स्वभाव होता है, इसलिए दमनकारी स्वभाव के हाथ में अंतिम सत्ता नहीं सौपी जा सकती। यह न केवल देश और समाज विरुद्ध होगा बल्कि नागरिक विरुद्ध भी होगा। साथ ही यह आधुनिकता का भी विरोध होगा। सभ्यताओं ने विकास की कई सीढिय़ों को लांघ कर इस सच का सृजन किया है। सभ्यताएं इस निष्कर्ष पर पहुंची हैं कि लोकतंत्र में लाख खामियां हों लेकिन लोकतंत्र से बेहतर न तो कोई सामाजिक व्यवस्था है और न ही कोई सरकार। 
 
वर्ना इतिहास में ऐसे कई सम्राट और राजा हुए जिनको प्रजा ने जी भर कर प्यार किया। राजा को धरती पर ईश्वर का पदार्पण भी कहा जाता था। लेकिन इतिहास और सभ्यताएं ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी हैं जब राजाओं ने जनता का खून चूसा। इतिहास के इन्हीं खट्टे-मीठे अनुभवों के बाद यह नतीजा निकला कि किसी एक व्यक्ति या परिवार को सनातन सरकार चलाने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। जिनके लिए सरकार और सत्ता चलनी है, सत्ता की बागडोर उनके हाथ में होनी चाहिए और तब जाकर लोकतंत्र का आविष्कार हुआ।
 
1776 में अमेरिकी क्रांति के बाद लोकतंत्र की जो बयार चली है वह आज 21वीं सदी में लगातार मजबूत हो रही है। यहां तक कि 2011 में ट्यूनीशिया की अर्धक्रांति के बाद पूरा मध्यपूर्व आज लोकतंत्र लाने के लिए संघर्ष कर रहा है। लोकतंत्र विरोधी विचारधाराएं बंदूक के बल पर इतिहास की दिशा को मोडऩे  का प्रयास कर रही हैं, पर वे कामयाब नहीं होंगी यह मेरा विश्वास है। फ्रांसीसी क्रांति के बाद वहां भी बंदूकधारी सैनिक तानाशाहों ने इतिहास की धारा को पटलने की कोशिश की थी पर इतिहास की धारा नहीं बदली। 
 
रूसी क्रांति को भी कुछ समय तक सर्वसत्तात्मक सत्ता बनाया गया लेकिन 1990 में सब भरभरा कर गिर गया। उन्नत जर्मन समाज ने गलती से एक बार हिटलर को चुन लिया, उसका खमियाजा भी उस समाज ने खूब भुगता, पर आखिर में लोकतंत्र की वापसी हुई और हाल में वाक्या है लैटिन अमरीकी देशों का। 1810 के बाद वहां के देशों ने पुर्तगाली और स्पेनी राजशाही से आजादी पा ली। सिमोन बोलिवार और सान माॢतन जैसे देशभक्तों ने बड़ी-बड़ी कुर्बानियां दीं। अर्जेंटीना हो या फिर ब्राजील या पैराग्वे और मैक्सिको, चिली सबको आजादी मिली। पर सैनिक तानाशाहों ने इस आजादी को कुचलने का प्रयत्न भी किया। लोकतंत्र और सैनिक तानाशाहों के बीच संघर्ष 160 साल चला। पर 1980 के दशक में तानाशाही ने हार मान ली और पूरे लैटिन अमेरिका में क्यूबा को छोड़कर लोकतंत्र मजबूती से तमाम  खामियों के बीच खड़ा हो रहा है। 
 
इसकी बड़ी कीमत भी इस समाज ने चुकाई है। अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स के प्लासा द मायो में खड़े होकर इसको महसूस किया जा सकता है जहां हर साल पांच मई को मांएं आती हैं  और सैनिक तानाशाही के दौरान गायब हुए अपने बेटों की सलामती की दुआ मांगती हैं। 1976 से लेकर 1983 के बीच अकेले अर्जेंटीना में 30000 लोग गायब हो गए। ये सभी वे लोग थे जिन्होंने तानाशाही का विरोध किया था। खबर है कि इन सभी लोगों को समुद्र में डुबो दिया गया ताकि विरोध को दबाया जा सके। पर विरोध नहीं दबा। और अस्सी के दशक में लोकतंत्र की वापसी हुई। 
 
आज ब्यूनस आयर्स की सड़कों पर वहां का लोकतंत्र खुलकर सांस ले रहा है और समाज एक बार फिर 1930 के पहले के आॢथक विकास को पाने की तलाश में जुटा है और उसे उम्मीद है कि वह एक बार फिर लैटिन अमेरिका का पैरिस होने का गौरव हासिल कर लेगा। यह स्वतंत्र सांस की आजादी खुले आसमान के नीचे ही संभव है। सेना और पुलिस के बूट तले ये आवाजें दम तोडऩे लगती हैं। दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को यह बात शायद रिटायर होने के बाद समझ में आए जब वह एक आम नागरिक की तरह रोजमर्रा की चीजों के लिए जद्दोजहद करते नजर आएंगे। अभी सत्ता है, पद है, पुलिस का डंडा है, लोग उनसे खौफ खाते हैं इसलिए लोकतंत्र और लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार का मतलब समझ में नहीं आता। जिस दिन कोई पुलिस वाला बिना कारण के उन्हें बैंत मारेगा उस दिन समझ में आएगा कि पुलिस को क्यों चुनी हुई सरकार के अधीन होना चाहिए।
 
आज एक सवाल यह भी है कि आखिर एक पुलिस अधिकारी की इतनी हिम्मत पड़ी कैसे कि वह इस तरह की बात कह भी दे। क्योंकि इस तरह की बातों से ही एक नई विकृति का निर्माण होता है और फिर पूरे देश को उसकी तकलीफ उठानी पड़ती है। 
 
हकीकत यह है कि दिल्ली में आज जिस तरह से आम आदमी पार्टी के पीछे पुलिस को छोड़ दिया गया है, बिना किसी कानूनी परम्परा के एक मंत्री को उठा लिया जाता है और एक विधायक को जेल में ठूंस दिया जाता है, मीनाक्षी को न्याय दिलाने की लड़ाई लडऩे वाले वालंटियर के साथ हवालात में थर्ड डिग्री टार्चर होता है, दिल्ली कन्वीनर दिलीप पांडे पर पुलिस गाड़ी चढ़ाने वाले पुलिस कर्मी के खिलाफ कार्रवाई  करने की जगह उनके ही खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज कर ली जाती है ये सभी बातें इस ओर इशारा करती हैं कि देश को धीरे-धीरे पुलिस राज्य में तबदील किया जा रहा है जहां विरोधियों को, आलोचकों को तर्क से नहीं डंडे से निपटा जाएगा और विचार-विमर्श परम्परा को पूरी तरह से बूट तले रौंद दिया जाएगा। मैं नहीं चाहता कि कुछ समय बाद दिल्ली में भी अर्जेंटीनी मांओं की तरह हमारी और आपकी मांएं भी इंसाफ मांगने को मजबूर हों अपने लाल को पाने के लिए।
 
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