Edited By ,Updated: 04 Sep, 2015 09:34 AM
भगवान श्रीकृष्ण के आने से बहुत पहले यदुवंश में श्रीदेवमढ़ जी मथुरा में रहते थे। उनकी दो पत्नियां थी पहली क्षत्राणी व दूसरी वैश्य जाति की थी।
भगवान श्रीकृष्ण के आने से बहुत पहले यदुवंश में श्रीदेवमढ़ जी मथुरा में रहते थे। उनकी दो पत्नियां थी पहली क्षत्राणी व दूसरी वैश्य जाति की थी। पहली पत्नी से पुत्र हुए 'श्री शूर' और दूसरी से हुए 'श्री पर्जन्य'। इन्हीं शूर के पुत्र हुए श्री वसुदेव।
पर्जन्यजी अधिकतर गो पालन का कार्य संभालते थे व महावन में रहते थे। कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा, इत्यादि वैश्य जाति के ही कार्य हैं। उनकी पत्नी का नाम था श्रीमती वरीयसी। उनके पुत्र थे श्री उपानन्द, श्री अभिनन्द, श्री नन्द, श्री सन्नन्द व श्री नन्दन। उनकी दो बेटियां थी श्रीमती नन्दिनी व श्रीमती सुनन्दा। श्रीनन्द का विवाह सुमुखजी की पुत्री श्रीमती यशोदा से हुआ था।
समय पर श्रीपर्जन्य ने अपने सबसे बड़े पुत्र श्रीउपानन्द को अपने वंश का प्रधान बनाने की इच्छा व्यक्त की। उस सभा में श्रीवसुदेव जी, श्री गर्ग मुनि, इत्यादि भी थे। पिता की बात सुनकर श्रीउपानन्द ने अपने छोटे भाई श्रीनन्द को पास बुलाकर उनका राज-तिलक कर दिया। तब से श्री नन्द, गोकुल के नन्द महाराज हो गए।
इससे श्रीनन्द को बहुत संकोच हुआ और बाकी सब को बहुत आश्चर्य हुआ। किन्तु श्रीउपानन्द के कहने पर, सब उनके निर्णय से सहमत हो गए। श्रीपर्जन्य व श्रीमती वरीयसी वृन्दावन चले गए व श्रीनन्द महाराज अपने भाइयों के आनुगत्य में गोकुल का कार्यभार संभालने लगे। समयानुसार सभी वृद्ध हो गए लेकिन वृज के राजकुमार होने की चाह सबके हृदय में थी।
कई प्रकार के यज्ञ, अनुष्ठान किए गए किन्तु कोई नतीजा नहीं आया। उन दिनों पृथ्वी पर बहुत से आतंकी, घमण्डी राजाओं का राज्य था। उन सबके अत्याचार पृथ्वी को अच्छे नहीं लगते थे। उनके पापों के भार से लदी पृथ्वी ब्रह्मा जी के पास गई। अपनी बिगड़ी हालत के बारे में बताया। सारी बात सुनकर ब्रह्माजी, शिवजी आदि देवताओं को लेकर पृथ्वी के साथ क्षीरसागर के तट पर गए। वहां पर उन्होंने परम-पुरुष भगवान श्रीविष्णु की स्तुति आरम्भ की। स्तुति करते-करते ब्रह्माजी ध्यान में चले गए।
उसी अवस्था में उन्होंने भगवान की वाणी सुनी। भगवान विष्णु सबको साथ लेकर गोलोक वृन्दावन गए। गोलोक वृन्दावन की अपूर्व शोभा। वहां हरे-भरे बहुत विशाल गिरिराज गोवर्धन, कल्प वृक्ष तथा कल्प लताओं से भरा था वो प्रदेश। यमुना जी स्वछन्द गति से बह रही थीं। वैदूर्य मणि से निर्मित सुन्दर सीढ़ीयां थीं, सुन्दर पक्षी, भ्रमर, वंशीवट, इत्यादि सब था।
वृन्दावन के बीच में बत्तीस वनों से युक्त एक निज निकुन्ज था। एक ओर लाल रंग वाले अक्ष्य वट थे। मणियों से बनीं दीवारें और आंगन। भ्रमरों की आवाजें संगीत बिखेर रही थीं। मत्त मयूर और कोयल अपने गीत गा रहे थे। बालसूर्य के समान कान्तिमान ललनाएं, रत्न-जड़ित आंगन में भागती फिर रही थी। गले में हार, बहूं में केयूर, नूपूरों की झंकार, मस्तक पर चूड़ामणि, पहने थीं। बहुत गाएं भी थी वहां। उजली, काली, हरी, लाल, पीली, इत्यादि रंगों की गाएं। उनकी रक्षा के लिए बहुत से चरवाहे भी थे, जिनके हाथ में छड़ी व बांसुरी थी। सभी श्याम रंग के थे।
वहीं पर एक हजार पंखुड़ी वाला कमल था। उसके ऊपर 16 पंखुड़ी वाला कमल, उसके ऊपर 8 पखुड़ी वाला कमल था। उसके ऊपर एक कौस्तुभ मणियों से जड़ा सिंहासन था जिस पर भगवान श्रीकृष्ण और श्रीमती राधाजी बैठे थे।
सबके देखते ही देखते श्रीविष्णु आगे बढ़े और श्रीकृष्ण में विलीन हो गए। उसी समय श्रीनृसिंह, श्रीविराट पुरुष, श्रीराम, श्रीनर-नारायण, इत्यादि सब आए और श्रीकृष्ण में विलीन हो गए। यह देख कर देवताओं ने उनकी स्तुति शुरु कर दी।
भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा- मैं शीघ ही पृथ्वी पर अवतरित होऊंगा। आप सब भी वहां जन्म लें।
देवी राधिका ने जब सुना की भगवान पृथ्वी पर अवतरित होंगे तो वे व्याकुल हो गई। भगवान ने उनसे कहा- आप चिन्ता न करें। मैं आपको भी साथ ही ले चलूंगा।
श्रीमती राधिकाजी के कहने पर श्रीवृन्दावन, चौरासी कोस वृज, श्रीगोवर्धन, श्रीयमुना को भगवान ने पृथ्वी पर अवतरित होने का आदेश दिया।
श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज
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