शह और मात के खेल में एकनाथ शिंदे ने पलट दी उद्धव ठाकरे की बाजी

Edited By ,Updated: 24 Jun, 2022 03:32 AM

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बाला साहब ठाकरे अपने करियर के शुरुआती दौर में अंग्रेजी दैनिक ‘फ्री प्रैस जर्नल’ के लिए कार्टून बनाया करते थे। एक कार्टूनिस्ट के अलावा वह एक अच्छे वक्ता और लेखक भी थे। अपने मुस्लिम विरोधी

बाला साहब ठाकरे अपने करियर के शुरुआती दौर में अंग्रेजी दैनिक ‘फ्री प्रैस जर्नल’ के लिए कार्टून बनाया करते थे। एक कार्टूनिस्ट के अलावा वह एक अच्छे वक्ता और लेखक भी थे। अपने मुस्लिम विरोधी विचारों तथा हिटलर की प्रशंसा करने के लिए भी जाने जाते थे। बाला साहब ठाकरे ने मुम्बई में ‘मराठी मानूस’ के नारे के साथ 19 जून, 1966 को ‘शिवसेना’ की स्थापना की। उनका यह कथन कि महाराष्ट्र मराठियों का है स्थानीय लोगों में बेहद लोकप्रिय हुआ। 

ठाकरे ने महाराष्ट्र में शाखा प्रणाली शुरू करके स्थानीय लोगों की एक सेना बनाई जिन्हें ‘शिवसैनिक’ नाम दिया गया। इनका इस्तेमाल वह कपड़ा मिलों व औद्योगिक इकाइयों में मराठियों को नौकरी दिलाने में किया करते। ये शिवसैनिक अपने तरीके से लोगों की समस्याएं सुलझाते और बलप्रयोग सहित हर तरीका अपनाते जिससे इनकी लोकप्रियता बढ़ी तथा इनका आवास ‘मातोश्री’ शिकायतें सुलझाने वाले लोगों का प्रिय ठिकाना बन गया। 

जल्दी ही शिवसेना ने जड़ें जमा लीं और 1980 के दशक में ‘बृहन मुम्बई नगर निगम’ (बी.एम.सी.) पर कब्जा कर लिया और 1995 में भाजपा के साथ गठबंधन करके पहली बार सत्ता का स्वाद चखा। उनके पास कोई सरकारी ओहदा न होने के बावजूद उनके कड़ी सुरक्षा वाले आवास ‘मातोश्री’ में नेताओं, फिल्मी सितारों, खिलाडिय़ों और उद्योग जगत की बड़ी-बड़ी हस्तियों का आना-जाना लगा ही रहता था। 

शिवसेना को कई बार आंतरिक विद्रोह का सामना करना पड़ा। पहली बार दिसम्बर, 1991 में छगन भुजबल ने 8 विधायकों के साथ पार्टी छोड़ दी थी और कांग्रेस में शामिल हो गए थे। शिवसेना में दूसरी फूट जुलाई, 2005 में हुई जब पार्टी की कमान उद्धव ठाकरे को मिली। उद्धव से नाराज नारायण राणे ने 100 विधायकों के साथ पार्टी तोड़ दी। उसके बाद हुए चुनाव में राणे के साथ गए सभी विधायकों ने उपचुनाव में जीत हासिल कर शिवसेना को तगड़ा झटका दिया। इसके कुछ ही महीने बाद दिसम्बर, 2005 में उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे ने भी शिवसेना छोड़ कर 9 मार्च, 2006 को अपनी अलग राजनीतिक पार्टी ‘महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना’ बना ली। 

और अब 21 जून को पार्टी चौथी बार फूट का शिकार हुई जब उद्धव ठाकरे की सरकार में शहरी विकास मंत्री एकनाथ शिंदे बगावत करके शिवसेना के विधायकों व अन्य निर्दलीय विधायकों को लेकर सूरत शहर जा पहुंचे और वहां से उन्हें असम में गुवाहाटी के एक होटल में पहुंचा दिया। शिंदे तथा उनके साथी उद्धव ठाकरे पर हिन्दुत्व के एजैंडे से भटकने और राकांपा तथा कांग्रेस से बेमेल गठबंधन का आरोप लगाते हुए उनसे राकांपा और कांग्रेस के साथ गठबंधन तोड़ कर दोबारा भाजपा के साथ गठबंधन करने की मांग कर रहे हैं। 

22 जून को जहां उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री का सरकारी आवास ‘वर्षा’ खाली करके वापस अपने पैतृक आवास ‘मातोश्री’ में रहने चले गए वहीं उन्होंने शाम के समय इमोशनल कार्ड खेलते हुए कहा कि बागी विधायक सामने आकर उनसे मिलें और त्यागपत्र देने को कहें तो वह मुख्यमंत्री पद के साथ-साथ पार्टी अध्यक्ष का पद छोडऩे के लिए भी तैयार हैं। आखिर 23 जून का दिन ढलते-ढलते उद्धव ठाकरे द्वारा बुलाई हुई अपने विधायकों की बैठक में 55 में से केवल 12 विधायकों की उपस्थिति के चलते ‘शिवसेना’ ‘शिंदे शिवसेना’ में बदलती दिखाई दी। संजय राऊत का कहना है कि जिसे जाना है चला जाए परंतु असली समस्या यह आने वाली है कि  ‘शिवसेना’ का नाम और चुनाव चिन्ह किसे मिलेगा। 

इस बीच जहां संजय राऊत ने कहा है कि‘‘हम गठबंधन से बाहर निकलने को तैयार हैं परंतु बागियों को 24 घंटे में मुम्बई लौट कर उद्धव के सामने अपनी बात रखनी होगी।’’  हालांकि उन्होंने धमकी भी दे दी है कि ‘‘जो विधायक चले गए हैं उन्हें महाराष्ट्र में आना व घूमना बहुत मुश्किल होगा।’’विधायकों की नाराजगी का प्रमुख कारण यह है कि उद्धव उनकी बात सुनने के लिए कभी उपलब्ध नहीं रहे जबकि उद्धव का कहना है कि 2 वर्ष तो कोविड था और अभी भी वह कोविड से ग्रस्त होने के कारण किसी से मिल नहीं रहे थे। 

वहीं एकनाथ शिंदे काफी समय से मुख्यमंत्री बनना चाहता था। जाहिर है कि भाजपा का समर्थन भी उसके साथ होगा क्योंकि वह भी शुरू से ही महाराष्ट्र की सत्ता में लौटना चाहती थी। इसका संकेत इन बातों से मिलता है कि नाराज विधायकों को लेकर शिंदे पहले सूरत गया और फिर वहीं से वह गुवाहाटी पहुंचा जो दोनों ही भाजपा शासित राज्य हैं। उल्लेखनीय है कि शिवसेना ने 2019 में पहली बार भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ा था क्योंकि उन्हें डर लगने लगा था कि शिवसेना जो मुद्दे उठा रही है उन्हीं मुद्दों को भाजपा ने उठाना शुरू कर दिया है। 

कुल मिला कर उद्धव ठाकरे द्वारा 19 जून को पार्टी की 56वीं वर्षगांठ पर किया यह दावा चार दिन बाद 23 जून को ही गलत सिद्ध होता दिखाई दे रहा है कि पार्टी हर संकट से सुर्खरू होकर निकली है और 21 जून को शुरू हुई बगावत ने 2 दिनों के भीतर ही उद्धव ठाकरे की बाजी को पलट दिया है। अत: यह कहना सही है कि क्रिकेट की भांति राजनीति भी अनिश्चितताओं का खेल है। इसमें कब क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता।—विजय कुमार

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