रूस-यूक्रेन युद्ध के परिणामस्वरूप विश्व पर पड़ने वाला प्रभाव

Edited By ,Updated: 21 Mar, 2022 04:15 AM

impact on the world as a result of the russo ukraine war

रूस-यूक्रेन युद्ध के 25वें दिन भी कोई समाधान निकलता दिखाई नहीं दे रहा। इस युद्ध में यूक्रेन की विजय हो या रूस की, वह जीत भी हार के समान ही होगी क्योंकि दोनों देशों में अलगाव ही रहेगा। यूक्रेन में तबाही मचा रहा रूस भले ही उसकी धरती को जीत ले परंतु...

रूस-यूक्रेन युद्ध के 25वें दिन भी कोई समाधान निकलता दिखाई नहीं दे रहा। इस युद्ध में यूक्रेन की विजय हो या रूस की, वह जीत भी हार के समान ही होगी क्योंकि दोनों देशों में अलगाव ही रहेगा। यूक्रेन में तबाही मचा रहा रूस भले ही उसकी धरती को जीत ले परंतु यूक्रेनवासियों के दिलों को वह कभी भी जीत नहीं पाएगा और यह भी तय है कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन तब तक युद्धविराम नहीं करेंगे जब तक वह यूक्रेन की राजधानी कीव पर कब्जा नहीं कर लेते और जेलेंस्की देश छोड़ कर भाग नहीं जाते या फिर मारे नहीं जाते। लगभग समूचे विश्व समुदाय को युद्ध के अंजाम के प्रभाव ने चिंता में डाल दिया है। 

इस युद्ध में चाहे किसी भी पक्ष की जीत हो, इसके परिणामस्वरूप विश्व में बहुत कुछ बदल जाने वाला है। जहां पहले सबकी नजर एशिया पर टिकी हुई थी, वहीं अब एक बार फिर सबका यूरोप पर ध्यान केंद्रित हो गया है। 

फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने गत वर्ष नवम्बर में अमरीकी प्रभुत्व वाले 30 देशों के सैन्य संगठन ‘नाटो’ को ‘ब्रेन डैड’ संगठन बताया था, लेकिन अब ‘नाटो’ एक बार फिर संगठित होकर स्वयं को जीवित रखने और एक  मजबूत सैन्य संगठन के रूप में आगे आने के लिए नए नियम बना कर सक्रिय हो रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध के परिणामस्वरूप अमरीका और यूरोप के आपसी रिश्तों के साथ-साथ यूरोप और इंगलैंड के रिश्ते भी बै्रग्जिट के बाद पहली बार सुधार की ओर अग्रसर हैं और ये स्वयं को एक इकाई मानने लगे हैं। 

दूसरा, रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले के पहले दिन से ही यूरोपीय देशों द्वारा सेना पर किया जाने वाला खर्च, जो उनके बजट का 3 प्रतिशत था, उसी दिन जर्मनी तथा अन्य देशों का खर्च बढ़ कर 6 प्रतिशत हो गया और ऐसा प्रतीत होता है कि यह खर्च निरंतर अब बढ़ता ही जाएगा। ऐसे में  वे शिक्षा, चिकित्सा तथा पर्यावरण की सुरक्षा आदि के लिए निर्धारित फंड में से रकम निकाल कर उसका इस्तेमाल प्रतिरक्षा पर करने को विवश हो गए हैं और जल्दी ही इस घटनाक्रम के चलते बढऩे वाले उपनिवेशवाद के खतरे के दृष्टिïगत एशियाई देश भी अपनी प्रतिरक्षा पर खर्च की राशि बढ़ाने को विवश हो जाएंगे। यदि युद्ध इसी प्रकार जारी रहा तो अन्य देशों का भी सैन्य बजट दोगुना-तिगुना तक बढ़ जाएगा। 

तीसरी बात यह है कि बाल्टिक और काला सागर क्षेत्र के छोटे देशों में अब ‘नाटो’ के स्थायी अड्डे बनने जा रहे हैं, जिससे विश्व में विसैन्यीकरण के स्थान पर सैन्यीकरण को बढ़ावा मिलने की आशंका बढ़ गई है। चौथा, ध्यान देने योग्य एक बात यह भी है कि वर्ष 1965 के बाद पहली बार किसी युद्ध में परमाणु युद्ध की धमकी की गूंज सुनाई दी है। इस पर 1965 के बाद से अब तक किसी ने इस पर सक्रियतापूर्वक चर्चा नहीं की थी, यह पहला मौका है जब रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला करने के अगले ही दिन पुतिन द्वारा इसकी धमकी दे देने से इसकी चर्चा शुरू हो गई। न केवल न्यूक्लियर बल्कि थर्मल और कैमिकल हथियारों का जिक्र भी हो रहा है, जो चिंताजनक बात है। इसी बीच रूस से अमरीका तथा यूरोपीय देशों को तेल की सप्लाई प्रभावित होने की आशंका के दृष्टिगत अमरीका ईरान तथा वेनेजुएला से तेल खरीदने की सोच रहा है और ये दोनों ही देश दमनात्मक शासन प्रणाली के प्रतीक हैं। 

दूसरी ओर यूरोपियन यूनियन (ई.यू.) कतर और अजरबाईजान  से तेल खरीदने की सोच रहा है। अक्सर यह देखा गया है कि जब तेल की अर्थव्यवस्था बढ़ती है तो डिक्टेटरशिप भी बढ़ती है तो आॢथक फायदा कुछ हद तक ही सीमित रहता है। जहां दमन होता है वहां लोकतंत्र नहीं रहता। ऐसे में इन देशों से तेल खरीदने का मतलब वहां तानाशाही को बढ़ावा देने के समान ही होगा। अत: इन देशों पर अपनी निर्भरता रखने की बजाय संबंधित देशों को नवीकरण योग्य ऊर्जा तथा सोलर एनर्जी के स्रोत पैदा करने की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए। पश्चिमी देशों को केवल प्रतिबंधों पर ही नहीं बल्कि  ‘ग्रीन मैनहट्टन प्रोजैक्ट’ पर भी ध्यान देना होगा। 

छठा यह कि रूस छोड़ कर जाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां अब दोबारा रूस में नहीं आएंगी। अत: हो सकता है कि चीनी कंपनियां रूस में आकर उनकी कमी पूरी करने का प्रयास करें। ऐसी स्थिति में रूस और चीन के रिश्तों में बदलाव आएगा और चीन को एक बड़ी शक्ति के रूप में मान्यता मिलेगी। चीन विश्व में एक नए सत्ता केन्द्र के रूप में अमरीका के बराबर आकर खड़ा हो गया है। 

सातवीं बात यह है कि इस घटनाक्रम का सबसे बड़ा प्रभाव यह पडऩे वाला है कि रूस द्वारा अब दूसरे देशों पर साइबर हमले बढ़ाए जा सकते हैं। कुछ समय पूर्व अमरीका के राष्ट्रपति बाइडेन ने पुतिन से साइबर हमलों से पीछे हटने के लिए कहा था और वे कम भी हुए थे परंतु अब साइबर हमले बढ़ जाएंगे क्योंकि रूस मीडिया को नियंत्रित करना चाहेगा। एक ओर जब जेलेंस्की ने पहली बार यूरोप और अमरीका के सांसदों को उनकी संसद में संबोधित किया तो उन्होंने कहा कि युद्ध की एक छोटी सी संभावित परत पश्चिम के भीतर संस्कृति युद्ध का अंत हो सकती है जोकि लैफ्ट का राइट से और लिब्रल्ज का कंजर्वेेटिव्स के साथ है। अब सभी देशों की सत्ताधारी या फिर विपक्षी पाॢटयां मतभेद भुलाकर यूक्रेन की सहायता को आगे आ रही हैं। 

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