इंगलैंड और अमरीका में ही नहीं भारत में भी जारी है नस्लीय भेदभाव

Edited By Punjab Kesari,Updated: 28 Jun, 2017 10:32 PM

racial discrimination continues in india and not only in america

7 जून, 1893 को दक्षिण अफ्रीका के एक रेलवे स्टेशन पर महात्मा गांधी को सिर्फ....

7 जून, 1893 को दक्षिण अफ्रीका के एक रेलवे स्टेशन पर महात्मा गांधी को सिर्फ इस कारण एक ट्रेन से उतार दिया गया था क्योंकि उनका रंग गोरा नहीं था और नस्लवादी रंगभेद की जिस समस्या का सामना महात्मा गांधी को उस समय दक्षिण अफ्रीका में करना पड़ा था, 125 साल बाद आज भी समाज में वह बुराई कायम है। 

1972 में जब मैं इंगलैंड गया था तो मुझे बताया गया कि जिन इलाकों में अश्वेत आकर रहना शुरू कर देते हैं तो उनके प्रति घृणा के कारण गोरे वहां से अपने मकान आदि बेच कर दूसरे इलाकों में चले जाते हैं जहां वे न हों। अंग्रेजों की नस्लवादी और रंगभेदी मानसिकता के विरुद्ध मलेशिया के एक फोटोग्राफर डैनियल ली एडम्स ने एक फोटो सीरीज चलाई थी जिसमें जातिवाद के शिकार इंगलैंड घूमने गए मलेशियनों ने, जिनमें अधिकांश युवतियां थीं, अपने अनुभव बताए थे। उदाहरण के तौर पर गोरे उन्हें यह कह कर छेड़ा करते थे कि ‘‘तुम्हारा रंग तो ‘कोक’ जैसा है’’  या ‘‘तुम तो बिल्कुल ‘एशियाई चिकन’ जैसी लगती हो।’’ 

यह बीमारी अकेले इंगलैंड में ही नहीं अमरीका में भी है और प्रसिद्ध अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने भी एक साक्षात्कार में कहा है कि अमरीका में उन्हें नस्ली भेदभाव का शिकार होना पड़ा था। इसी वर्ष मार्च में अमरीका की एक सब-वे ट्रेन द्वारा मैनहट्टïन जा रही राजप्रीत नामक एक सिख युवती को उस समय नस्ली भेदभाव का सामना करना पड़ा जब उस पर चिल्लाते हुए एक गोरा कहने लगा, ‘‘तुम लेबनॉन वापस चली जाओ। तुम इस देश की नहीं हो।’’ इसका नवीनतम प्रमाण हाल ही में इंगलैंड में सामने आया जब प्रधानमंत्री थैरेसा मे के संसदीय क्षेत्र मैडनहेड में जन्मे और पले-बढ़े भारतीय मूल के नि:संतान दम्पति संदीप और रीना मंडेर को वहां की बच्चा गोद देने वाली एजैंसी ने श्वेत बच्चा गोद लेने की अनुमति देने से इंकार कर दिया। 

एजैंसी को इस दम्पति ने बताया था कि तमाम कोशिशों और आई.वी.एफ. तकनीक का सहारा लेने के बावजूद वे बच्चा पैदा करने में असफल रहे हैं लिहाजा वे किसी भी जाति या पृष्ठभूमि वाले बच्चे को गोद लेना चाहेंगे। एजैंसी ने उनके आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया कि ‘‘गोद लेने के लिए हमारे पास उपलब्ध बच्चों में सभी गोरे हैं जिन्हें श्वेत ब्रिटिश या यूरोपीय आवेदकों को ही दिया जाएगा। अपनी सांस्कृतिक विरासत की वजह से आप गोरा बच्चा गोद नहीं ले सकते। लिहाजा भारत या पाकिस्तान में बच्चा गोद लेने की कोशिश करें।’’ नस्ल भेद की इस नवीनतम घटना से इंगलैंड में एक विवाद उत्पन्न हो गया। जहां प्रधानमंत्री थैरेसा मे ने इस मामले का संज्ञान लिया है वहीं  मंडेर दम्पति ने सेवाओं के प्रावधान में भेदभाव का आरोप लगाते हुए ‘एडॉप्ट एजैंसी’ के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई भी शुरू कर दी है। 

भारत में भी रंग, नस्ल और वेशभूषा के आधार पर इस तरह का भेदभाव हो रहा है। ऐसा ही एक मामला 25 जून को नई दिल्ली में भी सामने आया जब ‘दिल्ली गोल्फ क्लब’ से मेघालय की ‘टेलिन लिंगदोह’ नामक ‘खासी’ जनजाति की महिला को सिर्फ  इसलिए क्लब से बाहर निकाल दिया गया क्योंकि वह अपनी पारंपरिक पोशाक पहने हुए वहां आई थीं। ‘टेलिन’ असम सरकार में हैल्थ एडवाइजर ‘डा. निवेदिता बरथाकुर’ के बेटे की देखभाल करती हैं। वह भी उन 8 मेहमानों में शामिल थीं जिन्हें क्लब के लंबे पुरानेे सदस्य पी. तिमैया ने डिनर पर आमंत्रित किया था। 

तभी उन्हें देखकर क्लब के 2 कर्मचारियों ने उनके पास आकर कहा, ‘‘इस डाइङ्क्षनग हाल से निकलिए। यह जगह नौकरानियों के लिए नहीं है।’’ परन्तु इसके बाद जब मामले ने तूल पकड़ा तो क्लब ने माफी मांग ली। उल्लेखनीय है कि इसी पोशाक को पहन कर ‘टेलिन’ यू.के. से यू.ए. ई. तक दुनिया भर के पॉश रेस्तरांओं में ‘निवेदिता’ के साथ जा चुकी हैं। उक्त दोनों ही ताजा घटनाओं से स्पष्ट है कि आज 21वीं सदी में भी विश्व में रंग और नस्ल के आधार पर भेदभाव हो रहा है। हैरानी की बात है कि पश्चिमी देशों के साथ-साथ ऐसी घटनाएं अब भारत में भी होने लगी हैं : हैं फूल जुदा-जुदा पर खुशबू तो एक है,मजहब जुदा-जुदा हैं, लहू तो एक है।—विजय कुमार

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