आखिर क्या ‘खुलेगा’ और क्या ‘बंद’ होगा

Edited By ,Updated: 28 Jun, 2020 02:53 AM

after all what will be opened and will be closed

कई लोगों के पास परिपूर्ण दृष्टि होती है। किसी के पास अच्छी होती है और वह सिद्ध पुरुष कहलाते हैं। वह उन चीजों को देख सकते हैं जिसको एक साधारण नश्वर जीव नहीं देख सकता। कुछ और बेहतर होते हैं। वह संत होते हैं। वह भविष्य के ज्ञाता होते हैं जोकि...

कई लोगों के पास परिपूर्ण दृष्टि होती है। किसी के पास अच्छी होती है और वह सिद्ध पुरुष कहलाते हैं। वह उन चीजों को देख सकते हैं जिसको एक साधारण नश्वर जीव नहीं देख सकता। कुछ और बेहतर होते हैं। वह संत होते हैं। वह भविष्य के ज्ञाता होते हैं जोकि एक औसत व्यक्ति की समझ से परे होता है। 

मुझे एक रिपोर्ट करने दें कि मैं अपने आसपास क्या देखता हूं और इसको आप लोग उसके साथ तुलना कर सकोगे जो आपके आसपास घटता है। चेन्नई जैसे बड़े शहर में सब कुछ खुला हुआ है, और अचानक ही सब कुछ बंद हो जाता है। यह लॉकडाऊन तथा अन-लॉकडाऊन व फिर से लॉकडाऊन के बीच उलझाने वाला एक झूला मात्र है। कोई नहीं जानता कि आखिर क्या खुलेगा और क्या बंद होगा और कब तक बंद होगा या कब तक खुलेगा। 

अमीर, मध्यम वर्ग और गरीब अपने घरों के अंदर बैठे हुए हैं। यह तो अपनी धन-दौलत को बचा रहे हैं या फिर बचत करने में लगे हैं। वह खुशहाली के बारे में प्रार्थना करते हैं कि न जाने कब क्या हो जाए। नीचे वाला मध्यम वर्ग अपने कार्यस्थल, उद्यम पर बैठ कर लुका-छुपी का खेल खेल रहा है। वह तभी बाहर निकलता है। जब इसकी जरूरत पड़ती है और जल्द ही अपने घरों को फिर से लौट जाता है। फैली हुई ऐसी भावनाएं एक डर है। 

यह गरीब है विशेषकर दुकानदार, स्वरोजगार पर निर्भर, आटो या टैक्सी ड्राइवर, कारपेंटर, प्लम्बर, इलैक्ट्रीशियन, जो बाहर निकल कर काम की तलाश करते हैं और अपने कमाने के बाद अपने घरों कोलौट जाते हैं। पहले की तुलना में वह 50 प्रतिशत ही कमा रहे हैं। फैली हुई ऐसी भावनाओं को निराशा कहते हैं। 

बहुत ज्यादा गरीब तहस-नहस हो चुके हैं। वह काम की तलाश में इधर-उधर प्रवास कर चुके हैं। वह अपने गांवों में लौट चुके हैं। उनको दो चीजें रोकती हैं एक तो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा स्कीम के अंतर्गत राशन तथा दूसरा मनरेगा कार्य। दोनों ही यू.पी.ए. सरकार की पहल थी। कुछ तो अभी भी एन.जी.ओ. की चैरिटी पर निर्भर हैं। ऐसी भावनाओं को सरकार के साथ असंतोष तथा किस्म के साथ लडऩा कहते हैं। छोटे कस्बों में सब कुछ खुला है। चाहे बाजार हों, दुकानें हों या अन्य सेवाएं उपलब्ध करवाने वाले कार्य। बाजारों में सब्जियां, फल, मीट तथा मछली को छोड़ बहुत कम ही लोग ऐसे हैं जो फुटवियर, कपड़ा, बार्बर शॉप इत्यादि के लिए जाते हैं। 

चमकती हुई कृषि 
ग्रामीण भारत पूरी तरह से खुला है। बहुत कम लोग मास्क डालते हैं। यहां पर परचून मात्रा में कटाई होती है। रबी की फसल हो चुकी है और बुआई का मौसम शुरू हो चुका है। यहां पर लोगों के चेहरे खिले हुए हैं। लोग जरूरी वस्तुएं खरीद रहे हैं। मगर पैकेज्ड फूड आइटमें, डाइट एवं न्यूट्रीशियन सप्लीमैंट्स खरीदे जा रहे हैं। यह ज्यादा यहां पर मशहूर भी नहीं। अमीर किसान ट्रैक्टर तथा कृषि संयंत्र खरीद रहे हैं। दोपहिया वाहन तथा छोटी कारों की बिक्री भी ज्यादा नहीं है। कमर्शियल वाहनों की मांग भी कम ही है। मगर फिर भी पैट्रोल तथा डीजल की कीमतों में वृद्धि होती जा रही है। सप्लाई चेन को बहाल किया जा रहा है। मगर जी.एस.टी. की अभी भी कुछ परेशानी है। 2020-21 में कृषि अच्छी कारगुजारी करेगी। अच्छा करने से मेरा अभिप्राय: चार प्रतिशत की अच्छी वृद्धि से है। कुल जी.डी.पी. वृद्धि में यह 0.60 प्रतिशत का योगदान देगी। 

कहीं पर अंधकार
सब कुछ अंधकार तथा अनिश्चितताओं से घिरा पड़ा है। एम.एस.एम.ईज. का सोचना है कि सरकार ने उनको त्याग दिया है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने उधार गारंटी के तौर पर 10 करोड़ एम.एस.एम.ईज में से 45 लाख एम.एस.एम.ईज को 3 लाख करोड़ देने का वायदा किया है। अभी तक मात्र 70 हजार करोड़ रुपयों की स्वीकृति दी है और मात्र 35 हजार करोड़ व्यय किए जा चुके हैं। हजारों की तादाद में एम.एस.एम.ईज बंद हो चुके हैं और लाखों लोग शायद हमेशा के लिए रोजगार खो चुके हैं। पर्यटन यात्रा, एयरलाइंस, बस, ट्रांसपोर्ट, हास्पिटैलिटी, होटल इंडस्ट्री, उपभोक्ता वस्तुएं, निर्माण, निर्यात इत्यादि सबका बुरा हाल है। यह सब सुस्त पड़ चुके हैं। कइयों को तो करोड़ों में घाटा सहन करना पड़ रहा है और कुछ दीवालिया होने की कगार पर हैं। 

मांग अभी भी बेहद कम है जिससे विनिर्माण तथा सॢवस सैक्टर पर संकट पड़ रहा है। लोग नकदी की जमाखोरी कर रहे हैं। साल दर साल प्रसार में मुद्रा 40 प्रतिशत बढ़ चुकी है। इसके दो कारण हैं एक तो यह कि कोविड संक्रमण का डर है और दूसरा हास्पिटिलाइजेशन की लागत। एक और खतरा चीन का सिर पर मंडरा रहा है। कोविड का डर तथा चीन के साथ संघर्ष भारत को 2020-21 में मंदी की ओर ले जाएगा जोकि पिछले 42 वर्षों में पहली बार होगा। मंदी का मतलब और ज्यादा बेरोजगारी (ग्रामीण क्षेत्र तथा हाथ से किए जाने वाले कार्य को छोड़कर) तथा आय और मजदूरी में कमी आना है। लोग गरीबी रेखा के हाशिए पर हैं और बहुत ज्यादा गरीबी की तरफ धकेले जा रहे हैं। 

अभी भी संकुचन
वित्त मंत्रालय ने गेहूं की वसूली में (382 एल.एम.टी.), खरीफ, बुआई (13.13 मिलियन हैक्टेयर) फर्टीलाइजर बिक्री एवं विदेशी एक्सचेंज रिजर्व (507 बिलियन डालर) में अच्छे सपने देखे। बाकी का डाटा विनिर्माण तथा सेवाओं में कम संकुचन का है। हालांकि इसने साल दर साल वृद्धि नकारात्मक पाई है। साल दर साल विनिर्माण 27.4 प्रतिशत संकुचित हुआ है और सेवाएं 5.4 प्रतिशत हुई हैं। बिजली का उपभोग 12.5 प्रतिशत, पैट्रोलियम उत्पादों का उपभोग 23.2 प्रतिशत तथा कोयले का उपभोग 4 प्रतिशत तक संकुचित हुआ है। पिछले वर्ष की तुलना में रेलवे मालभाड़ा कम हुआ है। अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में भारी तादाद में नौकरियां गंवाई हैं। 

अकेले ही वित्त मंत्रालय वी-शेप रिकवरी का अनुमान लगा रहा है, जो 2020-21 में 5 प्रतिशत नीचे तथा 2021-22 में 5 प्रतिशत ऊपर की ओर है। इतनी रिकवरी का अनुमान लगाया गया है, मगर ऐसा नहीं है। जब कुल आऊटपुट 2019-20 की कुल आऊटपुट से ऊपर होगी, तब उसे ही रिकवरी मान लिया जाएगा। मगर ऐसा 2022-23 तक होना संभव नहीं लगता।-पी. चिदम्बरम

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