काकात का इस्तेमाल ‘आधुनिक शिक्षा’ हेतु करने की वकालत

Edited By ,Updated: 05 Jul, 2015 10:08 PM

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एक हाथ में छोटा झोला तथा दूसरे में एक छाता लेकर मौलाना कलीमुल्लाह कासमी मुम्बई की बारिश से भीगी गलियों में घूमते रहते हैं

(मोहम्मद वजीहुद्दीन): एक हाथ में छोटा झोला तथा दूसरे में एक छाता लेकर मौलाना कलीमुल्लाह कासमी मुम्बई की बारिश से भीगी गलियों में घूमते रहते हैं। उनके झोले में कई रसीदी पुस्तकें तथा काकात (वार्षिक बचत तथा किराए से होने वाली आय का 2.5 प्रतिशत हिस्सा, जो मुसलमान परिवार परोपकार के लिए देते हैं) देने वाले संभावित लोगों की सूची होती है।

कासमी काकात एकत्र करने वाले उन सैंकड़ों लोगों में से एक हैं जो रमजान के दौरान साल में एक बार मुम्बई आते हैं। मुम्बई में देश के कुछ सबसे धनवान मुसलमान रहते हैं। कासमी, जो बिहार के सीतामढ़ी स्थित एक मदरसे की तरफ से धन एकत्र करते हैं, ने बताया कि उनका समुदाय उनकी कोई तरफदारी नहीं करता। दरअसल मामला इसके उलट है। जो व्यक्ति काकात देने के सक्षम है मगर नहीं देता, उसे अल्लाह को जवाब देना होगा।
 
काकात का उद्देश्य मुस्लिम समुदाय के आॢथक रूप से कमजोर लोगों की मदद करना है। मगर धन का असंगठित संग्रह तथा उचित रूप से इस्तेमाल न होने से इस उद्देश्य में रुकावट आती है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में काकात के रूप में एकत्र कुल धन का लगभग 60 प्रतिशत मदरसों द्वारा हड़प लिया जाता है जिनमें फर्जी मदरसे भी शामिल हैं। अब मुस्लिम समुदाय में मांग उठ रही है कि इस्लामिक शिक्षण संस्थानों को धन देने की बजाय इसका इस्तेमाल स्वरोजगार तथा समुदाय के सदस्यों के लिए आधुनिक शिक्षा हेतु किया जाए।
 
एसोसिएशन ऑफ मुस्लिम प्रोफैशनल्स (ए.एम.पी.) के अध्यक्ष आमिर इदरीसी ने कहा कि काकात का उद्देश्य गरीबी खत्म करना होना चाहिए न कि इसे बढ़ावा देना। उन्होंने कहा कि वर्षों से वही व्यक्ति अथवा मदरसे काकात का एक बड़ा हिस्सा हड़पते आ रहे हैं। ए.एम.पी. द्वारा हाल ही में काकात धन के उचित इस्तेमाल पर आयोजित एक बैठक के दौरान वक्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि कुल काकात का बड़ा हिस्सा मदरसों को जाता है जो मुस्लिम जनसंख्या के एक बहुत छोटे से हिस्से को शिक्षित करते हैं। ए.एम.पी. के कार्यकत्र्ता सईद खान ने कहा कि उनका समुदाय इस बात को लेकर वास्तव में ङ्क्षचतित है कि उन 96 प्रतिशत को कैसे शिक्षित किया जाए जो स्कूल जाते हैं।
 
काकात हर उस मुसलमान के लिए जरूरी मानी जाती है जो ‘साहिबे निसाब’ है अर्थात जिसकी वाॢषक बचत 77 ग्राम सोने की कीमत (लगभग 1.92 लाख रुपए) या 520 ग्राम चांदी (18,120 रुपए) की कीमत से कम नहीं। अधिकतर मुसलमान चांदी की कीमत से नहीं बल्कि सोने की कीमत के अनुसार काकात देते हैं। ए.एम.पी. के हिसाब से यदि भारत में लगभग 18.75 करोड़ मुसलमान हैं और प्रत्येक परिवार में औसत 5 सदस्य हैं तो 3.75 करोड़ मुस्लिम परिवार बनते हैं। इसके अनुसार यदि 20 प्रतिशत भी काकात देते हैं तो ऐसे 75 लाख परिवार बनते हैं। न्यूनतन वार्षिक बचत पर 2.5 प्रतिशत के हिसाब से कुल काकात लगभग 3600 करोड़ रुपए बनती है। 
 
हालांकि कई विशेषज्ञ मानते हैं कि ये आंकड़े बहुत ‘गलत’ हैं। अर्थशास्त्री डा. रहमतुल्लाह, जो काकात की प्रक्रिया के जानकार हैं और जिनका संगठन ऑल इंडिया कौंसिल ऑफ मुस्लिम अपलिफ्टमैंट (ए.आई.सी.एम.यू.) अपनी बैतुल काकात नामक इकाई के माध्यम से काकात धनराशि एकत्र और वितरित करता है, का कहना है कि भारतीय मुसलमानों की आॢथक स्थिति में सुधार हुआ है और कम से कम 50 प्रतिशत मुस्लिम परिवार काकात देते हैं। बहुत से बड़े व्यवसायी हैं जो करोड़ों में काकात देते हैं। डा. रहमतुल्लाह के अनुसार कुल काकात धन 45,000 से 50,000 करोड़ रुपए के बीच होना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि काकात बारे एक विश्वसनीय सर्वेक्षण होना चाहिए। 
 
इस्लामिक विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन खान का कहना है कि कुरान में लिखा गया है कि दान में दी गई धनराशि का इस्तेमाल केवल गरीबों तथा वंचित लोगों, कर्ज में डूबे लोगों, परमात्मा की राह में खर्च करने के लिए किया जाना चाहिए। खान ने कहा कि इसमें यह नहीं लिखा गया कि काकात में मिली धनराशि का इस्तेमाल धार्मिक शिक्षा पर किया जाए। जो लोग मदरसे चलाते हैं वे स्कूल जाने वाले गरीब बच्चों के नाम पर धन की मांग करते हैं।
 
काकात इकठ्ठी व वितरित करना एक उलझन भरा मुद्दा बना हुआ है क्योंकि कोई केन्द्रीय काकात कोष नहीं बनाया गया। बहुत से लोग केवल रमजान के महीने में ही काकात देने पर भी प्रश्र उठाते हैं। हालांकि वर्ष में किसी भी समय यह दी जा सकती है। चूंकि ऐसा माना जाता है कि किसी भी अन्य महीने की बजाय रमजान में किए गए किसी अच्छे काम के बदले अल्लाह से 70 प्रतिशत अधिक आशीष प्राप्त होती है, अधिकतर मुसलमान इस महीने काकात देते हैं।
 
वरिष्ठ धर्मगुरु मौलाना शोएब कोटी साल-दर-साल काकात लेने वालों को ‘व्यावसायिक भिखारी’ बताते हैं और कहते हैं कि इन्हें ऐसा करने से हतोत्साहित किया जाना चाहिए।                       
 

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