बिन बुलाई मौत क्यों मर रहा है देश का ‘अन्नदाता’

Edited By ,Updated: 09 Jul, 2015 12:48 AM

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रोजाना ही समाचारपत्र देश के किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं की खबरों से भरे रहते हैं। कारण बताया जाता है

(हरपाल सिंह चीका): रोजाना ही समाचारपत्र देश के किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं की खबरों से भरे रहते हैं। कारण बताया जाता है कि किसान ने फसल खराब देख कर, महंगाई से तंग आकर, सिर पर चढ़े कर्जे के कारण, फसल का झाड़ घटने या फिर ओलावृष्टि-सूखा-बाढ़ के कारण अपनी फसल तबाह होने पर सल्फास की गोलियां खा कर, कीटनाशक दवाई पी कर या फंदा लगाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। गत एक दशक के आंकड़ों अनुसार देश भर में लगभग तीन लाख किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं।

भारत संस्कारी लोगों का देश है, जहां नैतिकता तथा सामाजिक जीवन-मूल्यों को सारे विश्व में सबसे अधिक प्राथमिकता दी जाती है। हमारे बुजुर्गों ने हजारों वर्षों के तजुर्बे के बाद धूप, हवा, जल-मिट्टी तथा इनके स्रोत, सूरज, पहाड़, चन्द्रमा, समुद्र, नदियां-नाले, वृक्षों (नीम, पीपल, बरगद) इत्यादि जैसे प्राकृतिक वरदानों की पूजा करनी शुरू कर दी ताकि मनुष्य इनको तबाह न करे और वातावरण का संतुलन बना रहे। 
 
पर इंसान ने दूरंदेशी की कमी तथा अपनी अल्प बुद्धि के कारण मुफ्त में मिले इन अनमोल वरदानों का जिस बेरहमी के साथ विनाश किया उसका परिणाम हमारे सामने है। मौसम तथा समय अनुसार या तो बारिश होती ही नहीं और यदि होती भी है तो बाढ़ आ जाती है, जिससे घर तथा फसलें तबाह हो जाती हैं। ऐसे व्यवहार के कारण किसान बेटों की तरह पाली फसल का नुक्सान देख कर साहूकारों तथा बैंकों से लिए ऋण वापस करने में खुद को असमर्थ पाकर आत्महत्या को ही एकमात्र उपाय समझ लेते हैं।
 
हमारे धार्मिक तथा पवित्र ग्रंथ ऐसे अप्राकृतिक व्यवहार की अनुमति नहीं देते। आज खेती करने वाले दिहाड़ीदारों ने भी पश्चिमी चकाचौंध वाली जीवनशैली को अपनाकर अपना खर्च बेहद बढ़ा लिया है। अपना पारम्परिक भोजन व पहरावा छोड़ दिया है। किसान की जोत (खेती योग्य जमीन) बहुत सीमित हो गई है, कुछ तो बिल्कुल भूमिहीन ही हो गए हैं। 
 
फसलों का मूल्य सरकारें ही तय करती हैं। खेती के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मशीनरी, रासायनिक दवाइयां तथा खादों के मूल्य कारखानेदार तय करते हैं, जबकि कृषि पैदावार की लागत तथा इनके बाजार मूल्य में जमीन-आसमान का अंतर है। इस कारण खेती एक बेहद घाटे का सौदा बन गई है। कृषि से संबंधित सारे सहायक धंधे भी घाटे का शिकार हो गए हैं। डेयरी फाॄमग, मुर्गीपालन, मछली पालन, खुंब की खेती तथा बागवानी आदि की मार्कीटिंग का सरकारी स्तर पर कोई पुख्ता प्रबंध न होने के कारण ये व्यवसाय बुरी तरह विफल हैं। 
 
किसानों तथा खेत मजदूरों के पास घर-गृहस्थी चलाने के लिए और कोई वैकल्पिक प्रबंध नहीं है। किसान द्वारा अपनी फसल मंडी में बेचने का भी एक अजीब तरीका है। व्यापारी तथा खरीद एजैंसियों की मिलीभगत के कारण काश्तकार की अंधी लूट होती है। मंडी बोर्ड, सब्जी मंडी तथा दाना मंडी ने किसानों के हितों की रखवाली करनी होती है पर वे मुनाफाखोरी से अपनी जेबें भरने के लिए खुद इस लूट में शामिल हो जाते हैं।
 
सारे हालात को देख कर लगता है कि किसान की बेहतरी के लिए कुछ करना सरकारों के एजैंडे में है ही नहीं और वे ‘जय किसान’ के नारे के अर्थ भी भूल गई हैं। सरकारी कार्यालयों में वे बाबू एयरकंडीशन्ड कमरों में बैठे किसी फाइव स्टार होटल से डिब्बाबंद खाना मंगवा कर खाते हैं और बोतल वाला पानी पीकर किसानों की बेहतरी के लिए स्कीमें बनाते हैं, फसलों की कीमतें तय करते हैं, जिनको खेती या इससे संबंधित व्यवसाय के बारे में कोई जानकारी ही नहीं होती। 
 
ये लोग कभी भी किसान के पक्ष में फैसले नहीं ले सकते। चाहिए यह है कि ऐसी उच्च स्तरीय कमेटियों में ग्रामीण किसानों तथा खेत मजदूरों को शामिल किया जाए। बेशक इनके पास किताबी ज्ञान नहीं होगा परन्तु खेती पुश्तैनी कार्य होने के कारण इनके पास अनुभव बहुतहोता है। ये परम्परागत देसी साइंसदान होते हैं। इनके सहयोग से लिए फैसले बिल्कुल सही तथा लाभदायक होंगे।
 
जब हालात का मारा किसान ‘बिन बुलाई मौत’ को गले लगाता है तो मंत्री तथा सरकारी अधिकारी पीड़ित परिवार के पास पहुंच कर सांत्वना की नौटंकी करते हैं, मामूली-सी सहायता राशि देने का ऐलान करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं और कह देते हैं कि इस विषय पर गम्भीर मंथन हो रहा है, जबकि असलियत में ऐसा कुछ भी नहीं होता। 
 
हमारी सरकारें शायद इस मानसिकता की धारणी हैं कि देश के किसान हमेशा आत्महत्याएं करते रहते हैं और संयुक्त राष्ट्र वाले इसका हल ढूंढेंगे। किसी समय सत्ता में बैठे ऐसी मानसिकता वाले लोग यह भी कह सकते हैं कि हमारे किसानों को ‘बिन बुलाई मौत’ मरने के लिए दुश्मन देश उकसा रहा है।
 
कभी हिन्दुस्तान की पवित्र धरती और हमारे महापुरुषों द्वारा उच्चारित वचन के अनुसार ‘उत्तम खेती, मध्यम व्यापार तथा निषिध चाकरी’ थी, परन्तु आजकल सब कुछ उल्टा-पुलटा है। समाज में ऐसा ‘उत्तम’ होने का रुतबा रखने वाला किसान किस राह पर चल पड़ा है? हम सभी का कत्र्तव्य है कि किसान के संबंध में महापुरुषों के दृष्टिकोण को दोबारा साकार करें। यह रंगीली दुनिया छोडऩे को किस का दिल करता है लेकिन वे कैसे हालात होंगे कि किसान का समाज तथा अपने परिवार से मोग भंग हो जाता है?

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