पुस्तक संस्कृति, समाज और सार्वजनिक पुस्तकालय

Edited By ,Updated: 21 Feb, 2024 05:47 AM

book culture society and public libraries

पुस्तक संस्कृति की जब बात करते हैं, तो साफ है कि हमारा भाव पुस्तकों के प्रति आत्मीय संवाद से है । पुस्तकों को जब जीवन का, कार्य व्यवहार का, अपनी गति व सोच का अभिन्न हिस्सा बनाते हैं, तो हमारे पास पुस्तक के साथ प्रेम करने का विकल्प और भाव होता है।

पुस्तक संस्कृति की जब बात करते हैं, तो साफ है कि हमारा भाव पुस्तकों के प्रति आत्मीय संवाद से है । पुस्तकों को जब जीवन का, कार्य व्यवहार का, अपनी गति व सोच का अभिन्न हिस्सा बनाते हैं, तो हमारे पास पुस्तक के साथ प्रेम करने का विकल्प और भाव होता है। जब पुस्तक संस्कृति की बात की जाती है तो यह देखा जाना जरूरी है कि हमारे जीवन में किस गहराई से पुस्तकों के लिए जगह है। पुस्तक किस तरह हमारे जीवन से जुड़ी है और जीवन के प्रत्येक पक्ष में कहां तक पुस्तकों का साथ है। इसे तभी समझा और जाना जा सकता है जब हम इस बात और भाव को समाज में व्यापक रूप से होते हुए देखते हैं। 

पुस्तक संस्कृति बनाने के लिए हमें अपने विचार, मन में इतनी जगह बनानी होगी कि विभिन्न अवसरों के लिए हमारे पास पुस्तकें हों। हम अपने आसपास के समाज में पुस्तक के लिए वातावरण निर्माण कर सकें। कम से कम जन्मतिथि, वैवाहिक वर्षगांठ पर अपने परिचितों को एक अच्छी पुस्तक भेंट कर सकें। रिटायरमैंट या अन्य जो भी अवसर आसपास आते हैं, उनमें आपकी उपस्थिति एक पुस्तक प्रेमी और पुस्तक संस्कृति के संवाहक के रूप में होती है, तो समाज में बड़ा मैसेज जाएगा। 

यह आपको तय करना होगा कि हर साल कुछ अच्छी पुस्तकें खरीद कर पढ़ें। जब आप पुस्तक पढ़ते हैं तो विचार की उस दुनिया के साथ चलते हैं, जो सामाजिकता की वह दुनिया होती है, जो लेखक द्वारा दी गई होती है। लेखक के संसार को जीना, फिर उसके संसार में जाना और उसके लिए कुछ नया लेकर आना ही पुस्तक संस्कृति का निर्माण करता है। जहां तक पुस्तक संस्कृति के साथ समाज की बात है, तो कोई भी मूल्यवान संदर्भ तब तक मूल्यवान नहीं बनता, जब तक उसमें समाज शामिल न हो । जब आप अपने ज्ञान को, अपनी पढ़ी गई दुनिया को औरों के साथ जोड़ते हैं, औरों से संवाद करते हैं, तो सच मानिए, आप पुस्तक संस्कृति का निर्माण कर रहे होते हैं। 

पुस्तकें समाज में आकर उल्लासित होतीं और खिलती व खिलखिलाती हैं। समाज में अन्य पर्वों की तरह पुस्तक पर्व के लिए भी अवसर व समय होना चाहिए। यदि पुस्तकें समाज में अपनी जगह बनाती हैं तो और लोगों के जीवन का आधार भी बनती हैं तथा लोगों के जीवन जीने का जरिया भी। जब प्रेमचंद भोला महतो के घर का शब्द चित्र खींचते हैं तो लिखते हैं कि उनके बरामदे में एक ताखे पर लाल कपड़े में लिपटी रामायण थी, रामचरितमानस थी, तो यहां सामाजिक पुस्तक प्रेम का जिक्र कर रहे होते हैं। यह पुस्तक संस्कृति का सामाजिक पक्ष था कि लोग अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए संतों-भक्तों की पंक्तियां इस्तेमाल करते थे। 

सार्वजनिक पुस्तकालय की जहां तक बात कर हैं तो वह आपको पुस्तकों के एक अपरिमित संसार में ले जाने की जगह होती है। यहां आप एक साथ असंख्य पुस्तकों को पाते हैं। अपने समय और समकाल को पाते हैं, तो पीछे जो पुस्तकों की दुनिया रही है, वह सब कुछ यहां उपलब्ध होता है। एक पुस्तकालय स्कूल-कॉलेज, विश्वविद्यालय में होता है, जहां विषय सामग्री को केंद्र में रखकर पुस्तकें होती हैं, पर जहां तक सार्वजनिक पुस्तकालयों की बात है, तो वह आम आदमी की मनोरुचियों को ध्यान में रखकर होते हैं। इस पुस्तकालय में जो लोग होते हैं, जो पढऩे आते हैं, उनकी रुचियों को ध्यान में रखते हुए पुस्तकालय अध्यक्ष द्वारा पुस्तकें मंगाई जाती हैं। 

पुस्तक पढ़ते-पढ़ते आप एक संसार में, एक समाज में न केवल जाते हैं, अपितु एक जीवन संसार को जीते हुए अपने बहुत करीब महसूस करते हैं। अपने संसार को नजदीक से देखते हैं। उसके विचार बोलते हैं। उसकी वाणी लोगों के भीतर जीवित हो अमर गान बन जाती है। इस तरह पुस्तक संस्कृति समाज और पुस्तकालय एक सांस्कृतिक सत्ता को निर्मित करने का मंच है। यहां से आप संसार के मन-मस्तिष्क पर राज करने का काम करते हैं।-डॉ. विवेक कुमार मिश्र 

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