हिंसा आधारित न हो सत्ता परिवर्तन

Edited By Updated: 13 Sep, 2025 06:30 AM

change of power should not be based on violence

सत्ता में बदलाव होना कोई आश्चर्य नहीं बल्कि एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो बताती है कि जनता जागरूक है। लेकिन अगर इसका आधार हिंसा, आगजनी, लूटपाट, सामूहिक नरसंहार, स्त्रियों को आदान-प्रदान की वस्तु समझकर और पुरुषों को गुलाम बनाकर तथा युवाओं को भड़काकर...

सत्ता में बदलाव होना कोई आश्चर्य नहीं बल्कि एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो बताती है कि जनता जागरूक है। लेकिन अगर इसका आधार हिंसा, आगजनी, लूटपाट, सामूहिक नरसंहार, स्त्रियों को आदान-प्रदान की वस्तु समझकर और पुरुषों को गुलाम बनाकर तथा युवाओं को भड़काकर किया जाए तो समझना चाहिए कि हम बर्बर युग में जी रहे हैं अर्थात प्रजातंत्र, लोकतंत्र जैसे शब्द अपना अर्थ खो चुके हैं। हम फिर से सामंती, बादशाही, हिटलरवाद और साम्प्रदायिक ताकतों के गठजोड़ से निरंकुश शासन प्रणाली की ओर बढ़ रहे हैं ताकि दास प्रथा का अंत न हो और शासक की क्रूरता तक को उसका उपहार या दयादृष्टि माना जाए।

समस्या को समझना होगा : यह संसार हमेशा से अमीरी और गरीबी के बीच बंटा हुआ है, ऊंच नीच सब जगह है। गरीबी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से कोई देश अछूता नहीं है। संसाधनों को हथियाने की लड़ाई सब जगह है। यह बात केवल पिछले 5 से 10 वर्षों तक के घटनाक्रम को समझने से समझी जा सकती है। सबसे पहले अफ्रीका महाद्वीप के देशों पर नजर डालें, जिनमें ङ्क्षहसा से सत्ता बदली गई और लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारों को उखाड़ फैंका गया। 

सबसे पहले वहां गृह युद्ध जैसी स्थिति पैदा की गई, अस्थिरता के प्रयास किए गए, विदेशी शक्तियों ने दखलअंदाजी शुरू की और देखते ही देखते सत्ता परिवर्तन हो गया। अटलांटिक महासागर से लाल सागर तक का क्षेत्र प्रभावित हुआ। इस्लामिक उग्रवाद, आतंकवाद का बोलबाला, अलकायदा और आई.एस.आई. से जुड़े समूहों का प्रभाव बढ़ता गया। ये सभी देश आर्थिक रूप से कमजोर, शिक्षा में पिछड़ेपन का शिकार और खराब शासन के प्रतीक थे। सभी संपन्न, पूंजीवादी या साम्यवादी देश इस बात से एकमत थे और हैं कि इन सभी स्थानों पर प्रकृति की असीम कृपा है। प्राकृतिक संसाधनों का खजाना है, बहुमूल्य धातुओं जिनमें यूरेनियम प्रमुख है, सोने की खानें हैं और उन्हें इन्हीं पर कब्जा करना है, चाहे आपस में बंदरबांट करें या जितना जिसकी मुट्ठी में आ जाए, ले और दूर बैठकर तमाशा देखे।  

महाबली का हथियार : जो भी विध्वंस को हथियार बनाकर सत्ता हासिल करने में विश्वास करने वाली शक्तियां हैं, चाहे देशी हों या विदेशी, सबसे पहले युवाओं को अपने मोह जाल में फंसाकर उनका मनोबल गिराने का काम करते हुए यह विश्वास दिलाती हैं कि वर्तमान सरकार ही उनकी सभी समस्याओं की जड़ है। देश में कुछ भी सही नहीं है और उसे गद्दी से हटाना ही उनकी परेशानियों को दूर करने का एकमात्र उपाय है। इसके बाद बेरोजगारी की बात कर युवाओं से सरकारी नौकरियों के न मिलने की बात कही जाती है। एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जाएगी। कुछ समय पहले वाराणसी से सिंगरौली तक जाना था। एक कैब ली और यात्रा शुरू हुई। 4-5 घंटे का सफर था,  इसलिए ड्राइवर से बात होने लगी। उसने कहा कि उसे नौकरी नहीं मिली, ग्रैजुएट है और बेरोजगार है। यह गाड़ी पिछले साल ली थी, इस साल दो और खरीद लीं, आज तो ड्राइवर ड्यूटी पर नहीं आया, इसलिए मैं आपको पहुंचाने आ गया। 

हिसाब-किताब रखने को दो लोग रखे हुए हैं, गाडिय़ों की देखभाल का काम पिताजी करते हैं और अब अपनी जमीन पर खेती करने के लिए एक बड़ा ट्रैक्टर खरीदना है, कई मॉडल हैं, उनकी टैस्ट ड्राइव चल रही हैं। पर जी, क्या बताऊं आपको, सरकारी नौकरी नहीं मिल रही, सरकार ने अपना वायदा पूरा नहीं किया। वैसे महीने के एक-डेढ़ लाख कमाई हो जाती है। मैं मन में सोच रहा था कि यह व्यक्ति इतना कुछ करते हुए भी 30-40 हजार की नौकरी न मिलने पर सरकार को कोसते हुए नहीं थक रहा  तो इसकी क्या वजह होगी? जो उसके यह बताने से स्पष्ट हुई कि कुछ नेताओं के साथ उसका उठना-बैठना है जो उससे कहते हैं कि आंदोलन करना है, बात समझ में आती जा रही थी कि वास्तविकता क्या है?

दूसरा है धार्मिक तनाव बढ़ाकर सांप्रदायिक ङ्क्षहसा फैलाने की साजिश जो एक लहर की तरह इतनी तेजी से बढ़ती है कि उसे संभालना टेढ़ी खीर बन जाता है। उदाहरण के लिए भारत में राम मंदिर के निर्माण के बाद मुस्लिमों के प्रति बदलता नजरिया और विवादास्पद धार्मिक स्थलों को लेकर बढ़ता सांप्रदायिक तनाव जो कभी भी आग में घी डालने का काम कर सकता है। तीसरा है कि संवैधानिक संस्थाओं को सत्ताधारी पार्टियों और विपक्ष के नेताओं द्वारा कमजोर करने के निरंतर ऐसे प्रयास करना जिससे इनका अस्तित्व और आवश्यकता दोनों व्यर्थ लगने लगें। चौथा है सत्ता परिवर्तन को सट्टेबाजी बना देना। इन सभी कारणों में से एक भी अगर किसी देश में हो तो उसकी थोड़ी सी झलक मिलने पर ही वहां असंतोष और अस्थिरता होना तय है। अगर सभी एक साथ जमा हो जाएं तो विनाश निश्चित है। जितने भी देशों में यह हुआ है, वहां कभी समाप्त न होने वाले युद्ध की विभीषिका से अनुमान लगा सकते हैं।

निष्कर्ष यही है कि सबसे पहले आंतरिक और बाह्य सुरक्षा जो चाक-चौबंद न हो तो संकट के बादल मंडराना निश्चित है। दूसरी बात यह कि सतत् विकास सुनिश्चित किए बिना कुछ बदला तो वह आत्मघाती होगा। तीसरा सवाल यह कि प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल एक दायरे में रहकर नहीं किया और पर्यावरण संरक्षण के साथ कोई खिलवाड़ किया तो कुदरत के कहर से बचना असंभव है और चौथी जरूरत यह कि जन भावनाओं को न समझने की गलती कर ली तो फिर ईश्वर भी नहीं बचा सकता।- पूरन चंद सरीन
 

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