बदलता समाज, तार-तार होते रिश्ते

Edited By ,Updated: 07 Dec, 2022 04:56 AM

changing society strained relationships

रिश्ते जीवन का आधार होते हैं। पारिवारिक दृष्टिकोण से आंका जाए अथवा सामाजिक संरचना के लिहाज से आकलन किया जाए, मानवीय जीवन में रिश्तों का सदैव विशेष महत्व रहा है। संबंधों की प्रगाढ़ता काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि किसी भी रिश्ते के प्रति...

रिश्ते जीवन का आधार होते हैं। पारिवारिक दृष्टिकोण से आंका जाए अथवा सामाजिक संरचना के लिहाज से आकलन किया जाए, मानवीय जीवन में रिश्तों का सदैव विशेष महत्व रहा है। संबंधों की प्रगाढ़ता काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि किसी भी रिश्ते के प्रति संवेदनाएं कितनी परिपुष्ट हैं। भारतीय सभ्यता व संस्कृति में रिश्तों की गरिमा और शुचिता को विशेष तौर पर महत्व दिया जाता रहा है। 

इस संदर्भ में वर्तमान परिदृश्य पर नजर डालें तो दरकते रिश्ते बदलते परिवेश की भयावह तस्वीर सहित उजागर हो रहे हैं। पारस्परिक सामंजस्य की कमी हो अथवा अहं का अतिरेक, रिश्तों की इस टूटन का सामाजिक संरचना पर सीधा प्रभाव पडऩा भी स्वाभाविक है। सर्वाधिक चिंताजनक पहलू है, संवेदनाओं का हानिकारक स्तर तक सिमटना और नृशंसता का साधिकार कब्जा जमाना।

आफताब द्वारा बर्बरतापूर्वक अंजाम दिए गए श्रद्धा वाल्कर हत्याकांड की संवेदनात्मक टीस से देशवासी अभी तक उबर नहीं पाए थे कि पश्चिम बंगाल से ऐसा ही एक हृदयविदारक समाचार प्राप्त हुआ, जिसमें एक कलयुगी पुत्र ही कथित रूप से पिता का हत्यारा बन बैठा। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार, पॉलीटैक्निक में बढ़ईगिरी की शिक्षा ग्रहण कर रहे पुत्र द्वारा परीक्षा में बैठने हेतु 3,000 रुपए की मांग करने पर नौसेना के पूर्वकर्मी रहे पिता उगवल चक्रवर्ती ने साफ इंकार कर दिया। तकरार के दौरान हुई हाथापाई के कारण बेहोश हुए पिता की गला घोंटकर हत्या करने के उपरांत, कुपुत्र ने आरी से शव को 6 भागों में विभक्त  करके, टुकड़ों को 500 मीटर दूर खास मल्लिक और देहिमेदान मल्ला इलाकों में फैंक दिया। 

हाल में, राजधानी दिल्ली के पांडव नगर में पति को मारकर, शव के 10 टुकड़े करके फ्रिज में रखने की भत्र्सनायोग्य घटना भी संज्ञान में आई है। कथित रूप से प्रेम में धोखा देने एवं बेटी तथा बहू के प्रति दुर्भावनापूर्ण दृष्टि रखने के प्रतिकार स्वरूप 6 माह पूर्व अंजाम दी गई इस घटना में पत्नी व सौतेले बेटे ने नशीली गोलियों से युक्त  शराब पिलाकर बेहोश करने के पश्चात चाकू मारकर अंजन की हत्या कर दी। लाश के 10 टुकड़े प्लास्टिक बैग में भरकर अवसरानुकूल उन्हें फैंकने का उपक्रम आरम्भ हुआ।  

मानवीय सुहृदयता पर प्रभावी होती यह दानवीय क्रूरता समूचे समाज के लिए चेतावनी की घंटी है। प्रतीत होता है, तथाकथित आधुनिकता की दौड़ में हम न केवल अपने पारिवारिक अथवा सामाजिक दायित्वों के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं, बल्कि भारतीय सभ्यता के पारम्परिक नैतिक मूल्यों के संरक्षण व संवद्र्धन के प्रति भी हमारी रुचि निरंतर घटती जा रही है। शायद यही कारण है कि प्रेम, समर्पण, चरित्र-गरिमा जैसी पवित्र भावनाएं समाज व परिवार से विलुप्त होने लगी हैं। स्पेस व स्वतन्त्रता के स्व:रचित अर्थों के नाम पर विद्रूप स्वच्छंदता, स्वार्थ, उद्दंडता अपनी जड़ें जमाने लगे हैं। 

मूल्य-संस्कार रोपण में परिवार सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई है, जहां व्यक्तित्व निर्माण की वास्तविक शुरूआत होती है। पारिवारिक सदस्यों का आचार-व्यवहार शिक्षा का वह प्रथम अध्याय है, जिसकी छाप शिशु व्यक्तित्व निर्माण प्रक्रिया के दौरान सम्पूर्ण अथवा आंशिक रूप से अवश्य विद्यमान रहती है। व्यक्तित्व निर्माण में शैक्षणिक संस्थानों का महत्व भी किसी प्रकार से कम नहीं आंका जा सकता। सर्वांगीण विकास की इस सतत् प्रक्रिया में स्वस्थ सोच का दायरा अवश्य कई गुणा बढ़ सकता है, बशर्ते सर्वपक्षीय ज्ञान सहित नैतिक मूल्यों का अधिमान भी सुनिश्चित किया गया हो। मात्र आंकिक प्रतिस्पर्धा के माध्यम से रोजगार उपलब्धता की दौड़ में शामिल करने वाली शिक्षा-व्यवस्था को नैतिक, मानवीय व सामाजिक आधार पर उत्तम की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

संस्था के रूप में समाज का अपना एक विशिष्ट स्थान है। किशोर-युवा कैसे वातावरण में विचरते हैं, उनका सम्पर्क कैसे लोगों से रहता है, क्या देखते हैं, क्या सोचते हैं? इन सबका समाज की दशा व दिशा निर्धारण में खास योगदान रहता है। उपरोक्त घटनाओं को ही लें तो स्वभाव में सम्मिलित विद्रोह, आक्रोश, प्रतिशोध, निर्ममता के भाव स्वयंमेव ही बताते हैं कि कथित हत्यारोपियों को जीवन में दिशाज्ञान का कोई मौका ही नहीं मिला। 

नैतिक हनन में प्रशासकीय व्यवस्थाएं भी दोषमुक्त  नहीं। अन्याय, भ्रष्टाचार आदि कुकुरमुत्तों की भांति खुलेआम फल-फूल रहे हैं। न्याय की बाट जोहती न जाने कितनी आंखें काल कवलित हो जाती हैं? रिश्वतखोरी, प्रशासकीय लापरवाही अथवा साक्ष्यों के अभाव में गंभीर अपराधियों का बाइज्जत बरी होना हो या पराश्रय-अनुकम्पा विशेष के चलते गुनहगारों को रिहाई मिलना संभव हो; खामियाजा तो अंतिम रूप में पूरे समाज को ही चुकाना पड़ता है। मनोरंजन के नाम पर फूहड़पन से पाशविक वृत्तियां जगाना, अपराधीकरण के लिए उकसाना, कानूनी शिकंजे से बचने हेतु अमानवीय उपाय सुझाना; ऐसे दृश्य-श्रव्य साधनों पर लगाम लगाए बगैर एक स्वस्थ समाज की परिकल्पना भी कैसे संभव है?-दीपिका अरोड़ा 
 

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