बिलखता बचपन, टूटते परिवार व सिसकता बुढ़ापा

Edited By Pardeep,Updated: 12 Sep, 2018 04:13 AM

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मां संसार का सबसे सुंदर व प्यारा शब्द है। प्राचीन समय में जहां पिता को प्रजापति की मूॢत माना जाता था, वहीं माता को पृथ्वी की मूॢत माना जाता था। इसका वर्णन हमें मनुस्मृति में भी मिलता है। उस समय जो अपने माता-पिता की सेवा करता था, वह ब्रह्मलोक को...

मां संसार का सबसे सुंदर व प्यारा शब्द है। प्राचीन समय में जहां पिता को प्रजापति की मूर्ति माना जाता था, वहीं माता को पृथ्वी की मूर्ति माना जाता था। इसका वर्णन हमें मनुस्मृति में भी मिलता है। उस समय जो अपने माता-पिता की सेवा करता था, वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होता था। माता-पिता की सेवा को ही श्रेष्ठ धर्म माना जाता था। 

‘‘माता-पिता को ईश्वर से भी बढ़कर इसलिए माना गया है क्योंकि ईश्वर हमारे भाग्य में सुख और दुख दोनों ही लिखते हैं जबकि माता-पिता केवल सुख ही सुख लिखते हैं।’’ कितना सार्थक लिखा है इन शब्दों में, कितनी मौलिकता है इन शब्दों में लेकिन विडम्बना यह है कि हम सब कुछ जानते हैं, समझते हैं पर फिर भी सच्चाई से मुंह मोड़ रहे हैं। क्या हमने इसके पीछे के कारणों को जानने की चेष्टा की है? नहीं, किसी ने नहीं की। 

इसका कारण आज का आधुनिक युग है। इस आधुनिक युग को हमने विज्ञान के युग की संज्ञा दी है। इस वैज्ञानिक युग में मानव मशीन बन गया है। मशीन बनने से उसके अंदर की करुणा की भावना समाप्त हो गई है। इसी भावना के समाप्त होने पर एकल परिवार अस्तित्व में आए। हम केवल इस बात को महसूस करते हैं कि ये सब करना उनका कत्र्तव्य था लेकिन मां-बाप के प्रति हमारी यह धारणा क्या सही है, शायद नहीं। मां-बाप हमारे लिए एक माली के समान हैं तथा हम उनकी बगिया हैं। माली अपने हाथों से एक पौधा लगाता है तथा उस पौधे का पूरा ध्यान रख कर इसे एक फलदायी व उपयोगी वृक्ष बनाने में जुटा रहता है, यह सोच कर कि एक दिन यह वृक्ष बड़ा होगा जिसकी छांव में वह (माली) सुकून से अपने बुढ़ापे को व्यतीत करेगा। क्या आप जानते हैं कि वह माली और वृक्ष कौन हैं? हमारे मां-बाप। परिवार  में बड़े बुजुर्गों की उपस्थिति सभी सदस्यों को मर्यादित व संस्कारी बनाती है। इस विषय में यदि यह कथन कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी : ‘‘पेड़ बूढ़ा ही सही, आंगन में रहने दो,
फल न सही, छांव तो अवश्य देगा।’’ 

उसी प्रकार माता-पिता बूढ़े ही सही लेकिन उन्हें घर में ही रहने दो। वे दौलत तो नहीं दे सकते लेकिन आपके बच्चों को अच्छे संस्कार अवश्य दे सकते हैं। भगवान गणेश जी भी माता-पिता की परिक्रमा करके ही प्रथम पूज्य हो गए। श्रवण कुमार ने भी माता-पिता की सेवा में ही अपने कष्टों की जरा भी परवाह नहीं की और अंत में सेवा करते हुए प्राण त्याग दिए। देवव्रत भीष्म ने भी पिता की $खुशी के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया और विश्व प्रसिद्ध हो गए। आज हम आधुनिकता का सही अर्थ ग्रहण नहीं कर सके। हम केवल आधुनिकता में ‘‘यूज एंड थ्रो’’ के सिद्धांत को अपना रहे हैं। ऐसे व्यक्तियों को रिश्ते घर में प्रयोग होने वाली वस्तु लगने लगे हैं। आज वृद्धाश्रम बुजुर्गों से भरे पड़े हैं, उनकी तरसती निगाहें किसी का इंतजार कर रही हैं कि शायद उनसे मिलने कोई अपना आ जाए। उन्हें पैसा नहीं चाहिए, केवल सहानुभूति चाहिए, अपनापन चाहिए लेकिन हजारों में शायद ही कोई विरला होता है जो अंजान व बेनाम मौत की गोद में न जाए।

एक सर्वेक्षण के अनुसार हमारे सामने आया है कि करीब 25 प्रतिशत बुजुर्ग इस समस्या से ग्रस्त हैं कि उनके बच्चों को किसी प्रकार की समस्या न हो, इसी कारण वे इस बात की शिकायत भी नहीं करते। इस विषय में यह बात भी स्पष्ट रूप से मानी जा सकती है कि वृद्ध भी अपने-आप को असहाय, बेचारा न मानें, उन्हें अपनी सोच को बदलना होगा। उन्हें सकारात्मक विचारधारा अपनानी होगी तथा इस संबंध में सुधार लाने के लिए आगे आना होगा। 

वृद्धों को समाज में सही स्थान दिलाने, उन पर हो रहे शोषण को रोकने व जागरूकता फैलाने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने 14 दिसम्बर, 1990 को यह निर्णय लिया कि हर साल 1 अक्तूबर को अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस के रूप में मनाया जाए जो 1991 में पहली बार मनाया गया। भले ही वृद्धों की रक्षा एवं स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए कानून एवं प्रावधान बनाए गए, फिर भी वृद्ध उपेक्षित हैं, इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता। युवा पीढ़ी को जागरूक होना होगा ताकि वृद्ध नागरिकों को अपना अधिकार प्राप्त हो सके। आचार्य चाणक्य भी कहते हैं कि जो वृद्धों की सेवा करते हैं उनके सभी दुख समाप्त हो जाते हैं। मां-बाप का आदर करें क्योंकि अगर मां के पैरों तले जन्नत है तो बाप उस जन्नत का दरवाजा है।-डा. मोहन लाल शर्मा

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