कांग्रेस-कम्युनिस्टों का ‘आइकॉन’ कन्हैया

Edited By ,Updated: 18 Mar, 2016 02:02 AM

congress of communists icon kanhaiya

कांग्रेस के युवा तुर्क, राहुल गांधी के हर मोर्चे पर विफल साबित होने के बाद पार्टी को एक नया सहारा मिल गया है। इस नए आइकॉन के भरोसे कांग्रेस जहां असम फतह करने का स्वप्न देख रही है,

(बलबीर पुंज): कांग्रेस के युवा तुर्क, राहुल गांधी के हर मोर्चे पर विफल साबित होने के बाद पार्टी को एक नया सहारा मिल गया है। इस नए आइकॉन के भरोसे कांग्रेस जहां असम फतह करने का स्वप्न देख रही है, वहीं कम्युनिस्टों को इस आइकॉन से पश्चिम बंगाल में फिर से ‘लाल सलाम’ के जिन्दा होने की उम्मीद जगी है। इस आइकॉन की रगों में जहां आतंकवादियों के लिए सहानुभूति दौड़ती है, वहीं उसके मानस में समाज में कटुता पैदा करने का विष भरा है। यह आइकॉन इस देश की सर्वोच्च न्यायपालिका पर प्रश्न खड़ा करता है। 

 
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक आतंकी को दी गई फांसी की सजा को ‘ज्यूडीशियल किङ्क्षलग’ की संज्ञा देता है। कश्मीर को भारत का अंग मानने से इन्कार कर वह घाटी में सक्रिय अलगाववादियों की पैरवी करता है और कश्मीर की आजादी तक जंग करने की हुंकार भरता है। उस जंग को भारत की बर्बादी तक पहुंचाने का ऐलान करता है। देश पर कुर्बान होने वाले सैनिकों की शहादत को कलंकित करते हुए उन्हें बलात्कारी बताता है। देश के मानबिन्दुओं और प्रतीकों का सरेआम उपहास करता है। बात गरीबों की करता है, किन्तु जिन्होंने 60 सालों से अधिक समय तक देश पर राज किया, उनकी नीतियों पर सवाल खड़े नहीं करता। उलटा देश की तमाम विसंगतियों का ठीकरा दो साल पुरानी भाजपा सरकार पर फोड़ता है। और देखते ही देखते कांग्रेस, कम्युनिस्ट और सैकुलरिस्टों का नायक बन बैठता है। क्या देश का प्रतिनिधित्व ऐसे नायक करेंगे?
 
इस आइकॉन का नाम है कन्हैया। पेशे से केन्द्र सरकार की भारी-भरकम सबसिडी पर पढऩे-पलने वाला एक छात्र। दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के इस छात्र नेता और उसके 5 साथियों पर देशद्रोह का आरोप है। फिलहाल कन्हैया सशर्त जमानत पर बाहर है, जबकि उसके दो साथी अभी भी जेल में बंद हैं। उन्हें रिहा कराने के लिए कन्हैया के नेतृत्व में विगत मंगलवार को दिल्ली में पैदल मार्च निकाला गया, जिसे ‘लोकतंत्र बचाओ मार्च’ बताया गया। यहां छात्रों को संबोधित करते हुए उसने एक बार फिर अपनी विशाक्त मानसिकता का परिचय दिया, जिसके कारण वह सैकुलरिस्टों का दुलारा बना है। 
 
पिछले दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ की तुलना बर्बर आतंकी संगठन ‘आई.एस.’ से की थी। सीरिया-ईराक में रक्तपात मचा रहा आई.एस. पूरी दुनिया को खिलाफत के नीचे लाने के लिए खूनी जंग लड़ रहा है। पूरी दुनिया में शरीआ थोपने के ख्वाहिशमंद आई.एस. की व्यवस्था में लोकतंत्र और उदारवाद  के लिए कोई स्थान नहीं है, किन्तु सैकुलरिस्टों का यह नायक ‘आई.एस.’ का भी समर्थक है। इसका कहना है कि आई.एस. की कृपा के कारण ही तेल के दाम घटे हैं। माकपा नेता सीताराम येचुरी और भाकपा नेता डी. राजा की उपस्थिति में इस नायक ने  उद्घोष किया कि वह देश विरोधी नहीं, संघ विरोधी है। संघ की राष्ट्रनिष्ठा असंदिग्ध है, उसे किसी प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है।
 
कन्हैया कुमार जिस राजनीतिक विचारधारा का ध्वजवाहक है, जिस दर्शन से प्रतिबद्ध है; उसने तिरंगे के स्वाभिमान की कभी रक्षा नहीं की। कम्युनिस्टों की पूरे विश्व में जो कार्यपद्धति है, वह तथाकथित जनक्रांति के नाम पर लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या का साक्षी है। विडंबना यह है कि यह जनक्रांति लोकतांत्रिक आवरण में तो छेड़ी जाती है, किन्तु शीघ्र ही उसका स्थान अधिनायकवाद ले लेता है। माओ ने ‘सांस्कृतिक क्रांति’ के नाम पर स्वतंत्र विचारधारा और जनतंत्र का इसी तरह दमन किया। अपने राजनीतिक विरोधियों को खत्म करने के मामले में  जहां स्टालिन ने हिटलर को पीछे छोड़ दिया, वहीं माओ राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की हत्या में इन दोनों से काफी आगे था।
 
कम्बोडिया के रक्तपिपासु पोल पॉट के उदाहरण से इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि मानव जीवन के प्रति साम्यवाद में कोई दया का भाव नहीं है। माओ के अनुयायी केवल केन्द्रीय सत्ता पर विश्वास रखते हैं और पार्टी की विचारधारा व नेतृत्व का विरोध करने वालों का ङ्क्षहसात्मक दमन ही उनकी नीति है। सभ्य समाज के प्रति युद्ध को वे ‘जनयुद्ध’ की संज्ञा देते हैं। संसद पर हमले की साजिश रचने वाले आतंकी अफजल गुरु ने सभ्य समाज के खिलाफ  ही तो हथियार उठाया था। कन्हैया जैसे कामरेड यदि उसे अपना नायक मानते हैं तो आश्चर्य कैसा?
 
कम्युनिस्टों ने लोकतांत्रिक आवरण में ही व्यवस्था तंत्र को आघात पहुंचाने के साथ सामाजिक ताने-बाने को भी तोडऩे का कुचक्र रचा है। वे भारत को एक राष्ट्र की जगह कई स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्रों का समूह मानते हैं। खंडित भारत को पुन: खंडित करना उनका एजैंडा है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि नक्सलवादी हों या पूर्वोत्तर के अलगाववादी, कम्युनिस्ट उनके संरक्षण में खड़े नजर आते हैं। 
 
वामपंथियों के विकृत सामाजिक दर्शन के कारण जहां हिन्दू समाज को जातियों में विभाजित करने का कुप्रयास किया गया, वहीं मजहब के नाम पर मुसलमानों के कट्टरपंथी वर्ग को पोषित किया गया, जिसकी तार्किक परिणति भारत के रक्तरंजित विभाजन व अलग पाकिस्तान में हुई। यह कुत्सित नीति आज भी जारी है।
 
देश के विभिन्न हिस्सों में अवैध बंगलादेशी घुसपैठियों को सैकुलरिस्टों का अभयदान प्राप्त है। पश्चिम बंगाल और असम में समस्या गंभीर है। असम के स्थानीय बोडो नागरिक अवैध बंगलादेशी घुसपैठियों के कारण ङ्क्षहसा और पलायन के शिकार हैं। किन्तु वोट बैंक की राजनीति के कारण कोई भी सैकुलर दल उनके साथ खड़ा नहीं होता। गोहाटी उच्च न्यायालय ने सन् 2008 में यह कड़वी टिप्पणी की थी, ‘‘बंगलादेशी इस राज्य में ‘किंगमेकर’ की भूमिका में आ गए हैं।’’यह एक कटु सत्य है और इसके कारण न केवल असमके जनसांख्यिक स्वरूप में तेजी से बदलाव आया है,बल्कि देश के कई अन्य भागों में भी बंगलादेशी अवैध घुसपैठिए कानून व व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा बने हुए हैं। 
 
हूजी जैसे आतंकी संगठनों की गतिविधियां इन्हीं बंगलादेशी घुसपैठियों की मदद से चलने की खुफिया जानकारी होने के बावजूद कुछ सैकुलर दल बंगलादेशीयों को भारतीय नागरिकता देने की मांग कर रहे हैं। कल को कांग्रेस-कम्युनिस्टों के नायक, कन्हैया कुमार बंगलादेशीयों के समर्थन में आंदोलन करने लगें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 
 
कम्युनिस्ट गरीब और वंचितों का हितैषी होने का दावा करते हैं। अपने चिन्तन से उन्होंने पश्चिम बंगाल और केरल का जो हाल किया है, वह जगजाहिर है। पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों के 35 साल से अधिक के राजकाल में जहां उद्योग-धंधों का पलायन हुआ, वहीं नवसामंत बन बैठे कामरेडों ने गरीब जनता का ङ्क्षहसा के बल पर दोहन किया। 
 
आज कामरेड कन्हैया के तेवरों को देख माक्र्सवादी उसे पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचारक बनाना चाहते हैं। किन्तु कटु सत्य तो यह है कि कम्युनिस्टों को गरीब से नहीं, गरीबी से लगाव है ताकि वे अपने वैचारिक छलावों से उन्हें मोहित कर अपनी दुकानदारी चलाते रहें। कार्ल माक्र्स के शिष्य व अक्तूबर क्रांति के दूत व्लादिमीर इल्यानोविच लेनिन  को उनके ही देश में गहरे दफन कर दिया गया है, लेकिन हमारे कामरेड अभी भी उस सड़-गल गई विचारधारा पर प्रयोग कर देश को खुशहाली व उन्नति के मार्ग पर ले जाने का दावा करते हैं। लंबे समय से कम्युनिस्टों की प्रयोगशाला रहे जे.एन.यू. से यदि कन्हैया जैसा आइकॉन उभरता है तो वह कम्युनिस्टों और कांग्रेस को ही मुबारक हो।   
 

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