‘नोटबंदी’ और ‘जी.एस.टी.’ ने जो रंग दिखाए वे मोदी सरकार की गणनाओं के विपरीत थे

Edited By Punjab Kesari,Updated: 07 Nov, 2017 12:51 AM

contrary to the calculations of color note and gst by modi

यह काफी हद तक संभव है कि अर्थव्यवस्था के बड़े तत्वों के बारे में समाचार अब के बाद बेहतर से बेहतर होते जाएंगे क्योंकि पहले नोटबंदी और फिर वस्तु एवं सेवा कर (जी.एस.टी.) के कारण लगने वाले झटके अब काफी कमजोर पड़ गए हैं। तिमाही वृद्धि दरों में भी सुधार...

यह काफी हद तक संभव है कि अर्थव्यवस्था के बड़े तत्वों के बारे में समाचार अब के बाद बेहतर से बेहतर होते जाएंगे क्योंकि पहले नोटबंदी और फिर वस्तु एवं सेवा कर (जी.एस.टी.) के कारण लगने वाले झटके अब काफी कमजोर पड़ गए हैं। तिमाही वृद्धि दरों में भी सुधार होगा और कम्पनियां बढिय़ा नतीजों के समाचार देने शुरू कर देंगी (वास्तव में कम्पनी जगत से ऐसे समाचार आने पहले ही शुरू हो गए हैं), कारखाना क्षेत्र भी बढिय़ा कारगुजारी दिखाएगा और निर्यात क्षेत्र शायद हाल ही में आए सुधार को जारी रखेगा। 

यदि ये सब बातें होती हैं तो सरकार को उस तरह की रक्षात्मक मुद्रा अपनाने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी जैसी कि हाल ही के महीनों में इसने अपना रखी है, वास्तव में जैसे कि उम्मीद है, यदि उसी के अनुसार आंकड़ों में सुधार होता है तो आपको यह आशा करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने उन कई आलोचकों पर ताबड़तोड़ हल्ला बोल देंगे जोकि वृद्धि आंकड़ों में आई मंदी के बाद हाल ही के सप्ताहों में बहुत मुखर हो गए थे। लेकिन ये सब कुछ होने के बावजूद छोटे कारोबारों द्वारा शायद कोई जश्न नहीं मनाया जाएगा और यह भी आभास होता है कि साधारण श्रमिक भी शायद ऐसा ही करेंगे क्योंकि गत 12 महीनों दौरान इन दोनों समूहों को बहुत कड़ी परिस्थितियों में से गुजरना पड़ा है और अभी भी निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि इन स्थितियों में जल्दी सुधार हो जाएगा।

कारोबारी केन्द्रों से छन-छन कर आने वाली रिपोर्टों और समाचारी टोटकों की रोशनी में अभी भी छोटे कारोबार अस्त-व्यस्त तस्वीर पेश कर रहे हैं। उन्हें अपने ऋण भुगतान की अवधि में विस्तार करवाना पड़ रहा है। कइयों का तो कारोबार ही समाप्त हो गया। बहुत से रोजगार भी समाप्त हो गए हैं और ऐसी स्थितियों के बावजूद भी वे निश्चय से नहीं कह सकते कि उन पर कितना टैक्स बकाया निकल आएगा। दलीलपूर्वक बात की जाए तो नोटबंदी के प्रभाव चलायमान होने चाहिएं क्योंकि व्यवस्था में एक बार नकदी की वापसी होते ही पहले जैसी स्थितियों की ओर लौटने की प्रक्रिया शुरू हो गई है लेकिन फिर भी कभी-कभार परिस्थितियां औसत स्थितियों की ओर वापस नहीं लौटतीं। उदाहरण के तौर पर जो कुशल कामगार अपने गांवों को चले गए हैं वे शायद लौटकर नहीं आएंगे या सीमित संसाधनों वाले जिन कारोबारियों के कारोबार ठप्प हो गए हैं वे दोबारा काम शुरू करने की क्षमता नहीं रखते। 

जहां तक जी.एस.टी. का सवाल है, अंतिम रूप में यह व्यवस्था के लिए हितकर ही होगा लेकिन इससे कुछ ढांचागत दुविधा अवश्य ही दरपेश आती है क्योंकि इसे विशेष रूप में अधिक उत्पादन को संगठित क्षेत्र में लाने के इरादे से डिजाइन किया गया था ताकि इस बढ़े हुए उत्पादन पर टैक्स लगाया जा सके। सरकार का इरादा चाहे ऐसा न रहा हो तो भी छोटे कारोबारियों को अपेक्षाकृत अधिक आघात बर्दाश्त करना पड़ा है और अब वे पूर्व-जी.एस.टी. दौर की तुलना में अधिक असुखद स्थिति में हैं। देश के विभिन्न क्षेत्रों से अर्थव्यवस्था के विभिन्न सैक्टरों के बारे में मिल रहे समाचारों से यह संकेत मिलता है कि अधिकतर इकाइयों ने या तो अपने उत्पादन में कमी कर दी है या सीधे-सीधे कारोबार ही बंद कर दिया। 

जी.एस.टी. परिषद शायद अगले सप्ताह अर्थव्यवस्था के उन क्षेत्रों के बारे में कुछ राहतें प्रदान करेगी, जहां से उसे इस आश्य की रिपोर्टें मिलीं हैं। फिर भी जैसा इंदिरा राजरमण ने बहुत स्पष्टतापूर्ण दलील देते हुए 3 नवम्बर को समाचार पत्र ‘मिंट’ में अपने आलेख (‘‘जी.एस.टी. की सफलता के लिए और सुधारों की जरूरत’’) में लिखा है कि स्थिति तब तक नहीं सुधर सकती जब तक सरकार टैक्स राहतें देने से पहले चालानों का मिलान करने की मूल शर्त को हटा नहीं देती।

इस संबंध में बिजनैस स्टैंडर्ड सहित अन्य लोगों ने भी दलीलें दी हैं। चालानों का इस तरह का मिलान करने के पीछे मंशा यह थी कि टैक्स चोरों द्वारा प्रयुक्त कानूनी छिद्रों को बंद किया जाए। लेकिन सरकार की इच्छा के विपरीत इससे टैक्स भुगतान में विलम्ब होने लगा क्योंकि अलग-अलग सूचनाओं का आपस में मिलान नहीं हो पाता। इस स्थिति से सबसे बड़ा नुक्सान छोटे व्यवसायियों को भुगतना पड़ा। अब देखना यह है कि जी.एस.टी. परिषद क्या इस कड़वी गोली को निगलेगी, क्योंकि जो लोग टैक्स चोरी के संबंध में चिंतित हैं वे शायद इस बदलाव का विरोध करेंगे। 

आर. जगन्नाथन ने ‘स्वराज्य’ पत्रिका में प्रकाशित अपने आलेख (‘‘मोदी की आर्थिक नीतियां कमजोर और अलाभकारी कारोबारों को समाप्त करेंगी और फलस्वरूप भारत सशक्त होकर उभरेगा’’) में कुंजीवत मुद्दे की पहचान की है और इसे ‘डार्विन का अर्थशास्त्र’ करार दिया है। बेशक उन्होंने यह माना है कि ‘‘इंसानों को सरकारों की बेवकूफियों से बचाए जाने की जरूरत है लेकिन फिर भी जगन्नाथन ने कमजोर और अलाभकारी कारोबारों को अर्थव्यवस्था में से उखाड़ फैंकने की अवधारणा पर मोहर लगाई है क्योंकि ऐसा करने से सम्पूर्ण व्यवस्था सशक्त होगी।’’ लेकिन कमजोर लोग भी तो इंसान ही होते हैं और आॢथक दृष्टि से यदि नुक्सान झेलने वालों की संख्या बहुत अधिक रहती है तो समूची अर्थव्यवस्था में मांग पर बुरा असर पड़ेगा। मांग घटने के फलस्वरूप वृद्धि प्रभावित होगी।

अधिक विकसित समाजों में इस समस्या का समाधान सुरक्षा छतरी के माध्यम से किया जाता है लेकिन भारत में ऐसा तंत्र मौजूद नहीं है। किसी लोकतंत्र में ऐसे कदम की प्रतिक्रिया बहुत शक्तिशाली हो सकती है। अगले माह होने वाले गुजरात चुनाव जनता की मानसिकता का बढिय़ा पैमाना सिद्ध हो सकते हैं। इसी बीच नोटबंदी और जी.एस.टी. ने जो रंग दिखाए हैं वे रोजगार के मामले में मोदी सरकार की गणनाओं के पूरी तरह विपरीत हैं- यानी कि इस प्रयास से अपेक्षा के अनुसार रोजगार सृजन नहीं हुआ है। इस स्थिति का हल यही है कि एक नए उद्यमी समाज का और नए कारोबारों का सृजन किया जाए। यह परिकल्पना हमेशा से सवालों के घेरे में थी। अब इस मामले में आशाएं अवश्य ही धूमिल पड़ गई हैं।-टी.एन. नाइनन

Trending Topics

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!