‘डर’: आजादी का सबसे बड़ा दुश्मन

Edited By Updated: 23 Nov, 2025 05:33 AM

fear the greatest enemy of freedom

अगर आपने किसी व्यक्ति को स्पीच पढ़ते सुना होता तो आपको लगता कि ये शब्द बाल गंगाधर तिलक या जवाहरलाल नेहरू या जयप्रकाश नारायण या नेल्सन मंडेला के हैं और आप गलत हो। स्पीकर माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे।

अगर आपने किसी व्यक्ति को स्पीच पढ़ते सुना होता तो आपको लगता कि ये शब्द बाल गंगाधर तिलक या जवाहरलाल नेहरू या जयप्रकाश नारायण या नेल्सन मंडेला के हैं और आप गलत हो। स्पीकर माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे। ये शब्द उन रिपोर्टरों के लिए संगीत की तरह होंगे जिन्होंने 11 साल तक प्रधानमंत्री से प्रैस कांफ्रैंस करवाने की बेकार कोशिश की है।

वे उम्मीद कर सकते हैं कि आखिरकार मोदी लाइव टैलीविजन प्रैस कांफ्रैंस में पत्रकारों के सवालों का जवाब न देने का अपना इरादा तोड़ देंगे। ये शब्द संपादकीय लिखने वालों को भरोसा दिलाएंगे कि उन्हें हमेशा चौकन्ना रहने और ‘एक तरफ ’ और ‘दूसरी तरफ ’ जैसे शब्दों से भरे ‘बैलेंस्ड’  संपादकीय लिखने की जरूरत नहीं है। ये शब्द शरारती कलाकार को अपनी पैंसिल निकालने और ऐसे कार्टून बनाने के लिए मोटिवेट करेंगे। ‘किसी को नहीं बख्शेंगे, प्रधानमंत्री को भी नहीं’। ये शब्द उन संपादकों के लिए हिम्मत बढ़ाने वाले होंगे जिन्होंने कई कहानियों को ‘दफना’ दिया है और यह दुआ की है, ‘रीडर मुझे माफ  करना, मुझे पता है मैं क्या करता हूं’।

हिम्मत को सलाम: मिस्टर मोदी के शब्द सच में इंस्पायरिंग थे। रामनाथ गोयनका का मोटो था हिम्मत वाली पत्रकारिता। यह उस अखबार का मोटो बन गया जिसे उन्होंने शुरू किया था और हर दिन वही शब्द उसके हैडलाइन पर छपते थे। रामनाथ गोयनका की तारीफ करते हुए, प्रधानमंत्री ने कहा, ‘‘रामनाथजी ब्रिटिश जुल्म के खिलाफ  मजबूती से खड़े रहे। अपने एक एडिटोरियल में उन्होंने कहा था कि वह ब्रिटिश ऑर्डर मानने की बजाय अपना अखबार बंद करना पसंद करेंगे। इसी तरह, जब इमरजैंसी के रूप में देश को फिर से गुलाम बनाने की कोशिश की गई तो रामनाथजी मजबूती से खड़े रहे। और इस साल इमरजैंसी लागू हुए 50 साल हो गए हैं।

ठीक कहा लेकिन आज मीडिया की असलियत क्या है? भारत के बड़े अखबार आजादी की लड़ाई की भट्टी में तपकर बने हैं। बहुत कम लोगों ने सोचा होगा कि आजादी के 78 साल बाद उन्हें ‘गोदी मीडिया’ शब्द बनाना पड़ेगा। हजारों की संख्या में पढऩे वाले और देखने वाले उन्हें छोड़कर चले गए, फिर भी कई अखबार और चैनल सरकारी मदद की वजह से फल-फूल रहे हैं।
मिस्टर मोदी ने आगे कहा, ‘‘50 साल पहले, इंडियन एक्सप्रैस ने दिखाया था कि खाली एडिटोरियल भी गुलाम बनाने वाली सोच को चुनौती दे सकते हैं।  ये कहानियां हमें बताती हैं कि रामनाथजी हमेशा सच के साथ खड़े रहे, हमेशा ड्यूटी को सबसे ऊपर रखा चाहे उनके खिलाफ  खड़ी ताकतें कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हों।’’

कड़वी सच्चाई: चौथे स्तंभ की प्रेरणा देने वाली कहानियों ने कहानियों की एक अलग शैली को जगह दी है। उदाहरण के लिए, एक एडिटर की कहानी है जिसे उसके कॉन्ट्रैक्ट के बचे हुए सालों की सैलरी का चैक दिया गया और दिन के आखिर तक अपनी डैस्क खाली करने को कहा गया। एक एंकर की कहानी है जिसके टैलीविजन पर सबसे ज्यादा व्यूअरशिप थी, जिसे चैनल का मालिक बदलने पर अपना बैग पैक करने को कहा गया, जिसे इंडस्ट्री में आधी रात का तख्तापलट माना जाता है। पिछले 10 सालों में कई मशहूर पत्रकारों की चौंकाने वाली कहानियां हैं, जिन्होंने अपनी नौकरी खो दी और आज भी उन्हें नौकरी नहीं मिल पा रही है। कुछ दिन पहले, मिस्टर यशवंत सिन्हा ने प्रैस क्लब ऑफ  इंडिया में एक मीटिंग की कहानी सुनाई, जिसमें उन्हें एक स्पीच देने के लिए बुलाया गया था। स्पीच के बाद, पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने हल्के से उन्हें डांटा कि वे कभी-कभी उनकी कही बातों को प्रकाशित न करें। सब चुप थे लेकिन एक युवा पत्रकार बोला। उसने कहा, ‘‘सर, मैं आपकी बातों को रिपोर्ट करूंगा। अगर मेरी नौकरी चली गई तो क्या आप मेरे लिए एक नौकरी ढूंढ देंगे?’’ मिस्टर सिन्हा ने कहा कि वह हैरान रह गए और बस इतना कहा, ‘‘युवक, प्लीज अपनी नौकरी बचा लो।’’

मेरे पास भी एक कहानी है। सर्दियों की एक ठंडी शाम को मैं एक पत्रकार के साथ एक छोटे सेे रैस्टोरैंट में डिनर कर रहा था। रात करीब 10 बजे, उन्हें उनके ऑफिस से फोन आया। उन्हें तुरंत अपने घर वापस जाने के लिए कहा गया, जहां एक ओ.बी. वैन इंतजार कर रही थी। उनका काम पहले से तैयार बयान पढऩा था। उन्होंने तुरंत माफी मांगी और जाने के लिए तैयार हो गए। मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने मना क्यों नहीं किया और अपने बॉस से कहा कि वह यह काम किसी दूसरे रिपोर्टर को दे दें जो पहले से ही घर पर था। उन्होंने गंभीरता से कहा, ‘‘मेरे माता-पिता हैं, दोनों बूढ़े हैं और मुझ पर निर्भर हैं और मेरे घर की ई.एम.आई. बाकी है।’’ वह बहुत माफी मांगते हुए चले गए।

कुछ पत्रकार लालच में जीते हैं और कामयाब होते दिखते हैं। दूसरे डर में जीते हैं। लालच में जीते लोग इस बिजनैस में सबसे ज्यादा चिल्लाते हैं, चीखते हैं, गाली देते हैं और अजीब कहानियां बनाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘ऑप्रेशन सिंदूर’ के दौरान, कुछ पत्रकारों ने यह कहानी चलाई कि भारतीय नौसेना के जहाजों ने कराची पोर्ट को घेर लिया है और भारतीय सैनिक कराची शहर में घुसने वाले हैं!

डर या आजादी: मिस्टर सिन्हा, मैंने और दूसरों ने जो कहानियां सुनाई हैं वे उस डर को दिखाती हैं जो पूरे ‘फोर्थ एस्टेट’ में फैला हुआ है। मेरा यकीन मानिए, जानकार लोगों ने जो मुझे बताया है और जो मैंने इकट्ठा किया है, उसके हिसाब से एक अनदेखा सैंसर है, सभी बड़े अखबारों और टैलीविजन चैनलों पर 24 गुणा 7 मॉनिटरिंग होती है। एडिटर्स को चुपके से फोन कॉल किए जाते हैं, एडवाइजरी होती है और अगर उन्हें नजर अंदाज किया जाए तो परेशानी होती है। कई कहानियां पैदा ही नहीं होतीं, कई खत्म हो जाती हैं। ऐसा लगता है कि सिर्फ भारतीय भाषाओं के छोटे मीडिया आऊटलैट ही बचे हैं, हिंदी मीडिया को छोड़कर। डर आजादी का सबसे बड़ा दुश्मन है। भारत में या तो डरपोक प्रैस हो सकता है या फिर आजाद प्रैस।-पी. चिदम्बरम

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