‘बारिश’ की गड़बड़ी से निपटना सीखना होगा

Edited By ,Updated: 30 Sep, 2019 03:04 AM

have to learn to deal with rain disturbances

चार महीनों का वर्षाकाल खत्म हो गया है। पूरे देश में वर्षा का औसत देखें तो कहने को इस साल अच्छी बारिश हुई है। लेकिन कहीं बाढ़ और कहीं सूखे जैसे हालात बता रहे हैं कि यह मानसून देश पर भारी पड़ा है। मध्य भारत अतिवर्षा की चपेट में आ गया। क्षेत्र में औसत...

चार महीनों का वर्षाकाल खत्म हो गया है। पूरे देश में वर्षा का औसत देखें तो कहने को इस साल अच्छी बारिश हुई है। लेकिन कहीं बाढ़ और कहीं सूखे जैसे हालात बता रहे हैं कि यह मानसून देश पर भारी पड़ा है। 

मध्य भारत अतिवर्षा की चपेट में आ गया। क्षेत्र में औसत से 26 फीसदी ज्यादा पानी गिरा है। उधर पूर्व व उत्तर पूर्व भारत में औसत से 16 फीसदी कम वर्षा हुई। ज्यादा बारिश के कारण दक्षिण प्रायद्वीप की भी गंभीर स्थिति है। वहां 17 फीसदी ज्यादा वर्षा दर्ज हुई है। सिर्फ  उत्तर-पश्चिम भारत में हुई बारिश को ही सामान्य कहा जा सकता है। हालांकि वहां भी 7 फीसदी कम पानी गिरा है। कुल मिलाकर इस साल दो-तिहाई देश असामान्य बारिश का शिकार है। आधा देश हद से ज्यादा असामान्य वर्षा से ग्रस्त हुआ है। मध्य भारत बाढ़ का शिकार है तो पूर्व व पूर्वोत्तर के कई उपसंभागों में सूखे जैसे हालात हैं। उत्तर-पश्चिम भारत जिसे सामान्य वर्षा की श्रेणी में दर्शाया जा रहा है उसके 9 में से 4 उपसंभाग सूखे की चपेट में हैं। 

पिछले हफ्ते मध्य  प्रदेश में अतिवर्षा से किसानों की तबाही की थोड़ी-बहुत खबरें जरूर दिखाई दीं। वर्ना अभी तक इस तरफ मीडिया का ज्यादा ध्यान नहीं है कि देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला मानसून आखिर रहा कैसा। बाढ़ से जो नुक्सान हुआ उसका आकलन हो रहा है लेकिन यह बात तो बिल्कुल ही गायब है कि इस मानसून की मार का आगे क्या असर पड़ेगा। खासतौर पर उन उपसंभागों का, जो सूखे की चपेट में हैं। 

अरबों रुपए का नुक्सान
एक अकेले मध्य प्रदेश में ही बाढ़ और बेवक्त बारिश से ग्यारह हजार करोड़ रुपए के नुक्सान का आकलन है। मानसून ने जाते-जाते उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में भी भारी तबाही मचा दी है। यानी तीन चौथाई देश में मानसून की मार का मोटा हिसाब लगाएं तो यह नुक्सान पचास हजार करोड़ से कम नहीं बैठेगा। इस नुक्सान की भरपाई कर पाना केन्द्र और राज्य सरकारों के लिए एक चुनौती बनकर सामने है। खैर यह तो प्रकृति की ऊंच-नीच का मामला है। इस पर किसी का कोई जोर नहीं है। लेकिन क्या इस नुक्सान को कम किया जा सकता था। इसका जवाब हां में दिया जाना चाहिए। और यह इस आधार पर कि हम और दुनिया के तमाम देश मौसम की भविष्यवाणियों को लेकर बड़े-बड़े दावे करने लगे हैं। इसी साल हमने अपने यहां औसत से थोड़ी सी ही कम बारिश का वैज्ञानिक अनुमान लगाया था।

गैर-सरकारी एजैंसियों का अनुमान थोड़ी और कम बारिश का था। लेकिन इस साल औसत बारिश का आंकड़ा ही कोई 10 फीसदी गलत बैठ गया। वैसे देश में सामान्य बारिश का जो पैमाना बना कर रखा गया है उसकी रेंज इतनी लंबी है कि मानसून में कितनी भी गड़बड़ी हो जाए, मौसम विभाग यह साबित कर देता है कि सामान्य बारिश हुई है। वैसे इस साल मध्य भारत और दक्षिणी प्रायद्वीप में बारिश को मौसम विभाग भी सामान्य बता नहीं पाएगा। क्योंकि दोनों ही जोन में ऊंच-नीच का आंकड़ा 20 फीसदी से कहीं ज्यादा बड़ा है। 

बहरहाल, मामला भविष्यवाणी का है। और ये पूर्वानुमान इसलिए किए जाते हैं ताकि देश के किसानों को अपनी फसल की बुआई का समय तय करने में सुविधा हो और इन्हीं पूर्वानुमानों से फसलों के प्रकार भी तय होते हैं। बैंक और फसल बीमा कंपनियां इन्हीं पूर्वानुमानों के आधार पर अपना कारोबार तय करती हैं। क्या इस बार के पूर्वानुमानों ने किसान, बैंक और बीमा कम्पनियों यानी सभी को ही मुश्किल में नहीं डाल दिया है। 

जल भंडारण का अभाव
बात यहीं पर खत्म नहीं होती। ज्यादा बारिश के पक्ष में माहौल बनाने वालों की कमी नहीं है। उन्हें लगता है सूखा पडऩा ज्यादा भयावह है और बाढ़ वगैरह कम बड़ी समस्या है। उन्हें लगता है कि ज्यादा बारिश का मतलब है कि बाकी आठ महीने के लिए देश में पानी का इंतजाम हो गया। यहां इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि वर्षा के पानी को रोक कर रखने के लिए देश के पास बहुत ही थोड़े से बांध हैं। इन बांधों की क्षमता सिर्फ 257 अरब घनमीटर पानी रोकने की है जबकि देश में सामान्य बारिश की स्थिति में कोई 700 अरब घनमीटर सतही जल मिलता है। यानी जब हमारे पास पर्याप्त जल भंडारण क्षमता है ही नहीं तो ज्यादा पानी बरसने का फायदा उठाया ही नहीं जा सकता बल्कि यह पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में चला जाता है। ऐसे में हमें वर्षा जल संचयन के लिए बांध, जलाशय और तालाबों पर ध्यान  देना चाहिए।-विनीत नारायण
                   

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