चुनावी लोकतंत्र में सिर गिने जाते हैं, तौले नहीं जाते

Edited By ,Updated: 28 Feb, 2023 06:00 AM

in an electoral democracy heads are counted not weighed

मंडल कमिशन लागू होने के 3 दशक बाद, यह सवाल भी उठना लाजिमी है कि क्या अब सत्ता का संघर्ष उन्हीं के बीच होना शुरू हो गया है, जो कभी कंधे से कंधा मिला कर बिहार की सत्ता से अगड़ी जातियों को हटाने के लिए मोर्चा निकालते थे।

मंडल कमिशन लागू होने के 3 दशक बाद, यह सवाल भी उठना लाजिमी है कि क्या अब सत्ता का संघर्ष उन्हीं के बीच होना शुरू हो गया है, जो कभी कंधे से कंधा मिला कर बिहार की सत्ता से अगड़ी जातियों को हटाने के लिए मोर्चा निकालते थे। खुद को कर्पूरी ठाकुर का शिष्य बताने वाले लालू यादव हों या नीतीश कुमार या  स्वर्गीय रामविलास पासवान, इन सभी  लोगों की मंडलवादी राजनीति इसी बात के लिए थी कि कैसे बिहार में बहुसंख्यक जाति का राज पूरी हनक के साथ कायम हो।

लेकिन 15 साल के लालू शासन के दौरान ही नीतीश कुमार या स्वर्गीय रामविलास पासवान के रास्ते अलग होते चले गए। हालांकि, तब इस अलगाव का कारण विशुद्ध निजी पॉलिटिकल महत्वाकांक्षा थी न कि किसी प्रकार के सोशल चेंज का असर। आज के बिहार में करीब-करीब जाति आधारित कोर वोट के दम पर कई पाॢटयां बन चुकी हैं। चाहे मुकेश साहनी की वी.आई.पी. पार्टी हो, पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी हो, मांझी की हम हो या फिर अब उपेन्द्र कुशवाहा की नई पार्टी।

इन सबकी भी निजी महत्वाकांक्षा है लेकिन 3 दशक के सोशल चेंज का असर भी अब साफ दिखने लगा है। इस सब के बीच एक तथ्य यह भी है कि उपेन्द्र कुशवाहा पहले भी रालोसपा बना कर भाजपा के साथ मिल कर चुनाव लड़ चुके हैं। उसके बाद उन्होंने अपनी पार्टी का विलय जद (यू) में कर लिया था लेकिन, मामला वहां से बिगडऩा शुरू हुआ जबसे नीतीश कुमार ने यह कहना शुरू किया कि 2025 चुनाव का कमान तेजस्वी संभालेंगे।

जाहिर है, उपेन्द्र कुशवाहा ने जिस उम्मीद में अपनी पार्टी का विलय जद (यू) में किया था, वह इस अकेले बयान ने ध्वस्त कर दी। जाहिर है, उपेन्द्र कुशवाहा टिकट बांटने वाले हैसियत के नेता हैं, जो एक टिकट के लिए नीतीश कुमार या तेजस्वी यादव के भरोसे नहीं रह सकते थे। फिर, नीतीश कुमार की मुखालफत कर पार्टी से एक टिकट तक लेना कितना कठिन है, यह जॉर्ज फर्नांडीज से ले कर शरद यादव तक के केस में लोगों ने देखा है। ऐसे में, उपेन्द्र कुशवाहा के पास और क्या विकल्प हो सकता था?

बिहार के एक क्षेत्रीय दल के नेता इन पंक्तियों के लेखक के साथ अनौपचारिक बातचीत में कहते हैं कि बन्दोपाध्याय कमेटी की रिपोर्ट को देखना चाहिए। वह दावा करते हैं कि इस कमेटी के अनुसार बिहार में पिछले 30 सालों में जमीन का सबसे ज्यादा हस्तांतरण यादवों और कुर्मियों के हाथों हुआ है। राजनीति और आर्थिक (जमीन के मामले में भी) यही दो जातियां लगातार मजबूत होती गई हैं इसलिए अन्य ओ.बी.सी. जातियों के बीच इसे लेकर बेचैनी होगी और शायद यह भी एक बड़ी वजह है कि सत्ता में अब अधिक से अधिक हिस्सेदारी के लिए जातीय अस्मिता के नाम पर राजनीतिक दलों का गठन होने लगा है लेकिन कुछ दलित ङ्क्षचतक यह भी मानते हैं कि असली लड़ाई अभी भी बैकवर्ड बनाम फॉरवर्ड ही है।

अभी भी संसाधनों के बंटवारे का आंकलन किए जाने की जरूरत है और इस बात  का असैसमैंट होते रहना चाहिए कि जातीय अस्मिता के आधार पर बनने वाली पार्टियों के एजैंडे में सोशल जस्टिस शामिल है या नहीं। बहरहाल, उपेन्द्र कुशवाहा और नीतीश कुमार की जोड़ी कभी बिहार की राजनीति में लव-कुश (कोईरी-कुर्मी) की जोड़ी मानी जाती थी। लालू यादव के खिलाफ नीतीश कुमार की मुनादी में इस समीकरण का एक बड़ा योगदान रहा है लेकिन, नीतीश कुमार कुर्मी जाति से आते हैं, जिसकी बिहार की जनसंख्या में तकरीबन 4 से 5 फीसदी की हिस्सेदारी है जबकि उपेन्द्र कुशवाहा जिस जाति से आते हैं उसकी हिस्सेदारी 8 से 9 प्रतिशत है। और निश्चित ही उपेन्द्र कुशवाहा यह जानते होंगे कि चुनावी लोकतंत्र में सिर गिने जाते हैं, तौले नहीं जाते।

फिर भी एक समय तक नीतीश कुमार इस समीकरण के निर्विवाद नेता रहे लेकिन सत्ता के शीर्ष में हिस्सेदारी का विवाद ही था कि एक सीमा के बाद यह समीकरण टूटता चला गया। 
हालांकि, जातीय अस्मिता या जातीय हिस्सेदारी के आधार पर दल बना कर उपेन्द्र कुशवाहा कितना राजनीतिक लाभ ले पाएंगे या 2024 के लोकसभा चुनाव में वह एक बार फिर भाजपा के एजैंडे को मजबूत बनाने का काम करेंगे, इसका जवाब आने वाले समय में पता चलेगा लेकिन 1990 की तुलना में 2023 के बिहार की राजनीतिक तस्वीर इस बात का संकेत है कि अब लड़ाई ‘अपनों’ के बीच ही है।

उपेन्द्र कुशवाहा प्रकरण इस बहाने सत्ता के लिए ओ.बी.सी. बनाम ओ.बी.सी. संघर्ष का मुद्दा और कई ङ्क्षचताएं भी अपने साथ ले कर आता है। मसलन, सांप्रदायिकता और धार्मिक ध्रुवीकरण का जवाब कभी भी जातीय ध्रुवीकरण से नहीं दिया जा सकता है। सांप्रदायिकता को रोकने के लिए जाति को हथियार बनाने की कोशिश करना भी मूर्खता ही मानी जाएगी। यह वैसा ही होगा जैसे आग से आग को बुझाने की कोशिश की जाए। सांप्रदायिकता की आग से जल रहे देश को जातिवाद की आग से बचाया नहीं जा सकता बल्कि यह और जलेगा ही।

बिहार में कुछ क्षेत्रीय दल इसी तरह की आग फैलाना चाहते हैं और 90 के दशक का बिहार (जातीय संघर्ष) बनाना चाहते हैं। इस वक्त बिहार में जो हो रहा है उससे ओ.बी.सी. बनाम ओ.बी.सी. का टकराव भी बढ़ेगा, लेकिन ऐसा होना बिहार के हित में कभी भी अच्छा नहीं होगा। क्या यह अच्छा होगा कि कुशवाहा-कुर्मी को लड़ा दिया जाए या दलित-महादलित को लड़ा दिया जाए?

बहरहाल, बिहार में 90 का दशक जहां इस बात का गवाह रहा कि कैसे सत्ता के संघर्ष में पिछड़ों ने एकजुट हो कर अगड़ों को शिकस्त दी। 90 के बाद से तकरीबन यह साफ हो गया कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। इस लिहाज से सत्ता का शीर्ष एक तरह से ओ.बी.सी. के लिए पिछले 33 सालों से रिजर्व होता दिखा। लेकिन, अब यह संघर्ष ओ.बी.सी. के बीच तक जा पहुंचा है। -शशि शेखर

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