स्वतंत्र निर्वाचन आयोग : क्या वास्तव में ऐसा है?

Edited By Updated: 20 Sep, 2023 05:01 AM

independent electoral commission is it really so

निर्वाचन आयोग और राजनीतिक रसातल को स्वच्छ करने के बारे में ऐसी बात क्या है, जिससे हमारे राजनेता घबराते हैं, विशेषकर तब, जब वे भारत के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों तथा निर्वाचन आयोग को सुदृढ़ करने की बातें और प्रशंसा करते हैं। क्या वास्तव में ऐसा है?

निर्वाचन आयोग और राजनीतिक रसातल को स्वच्छ करने के बारे में ऐसी बात क्या है, जिससे हमारे राजनेता घबराते हैं, विशेषकर तब, जब वे भारत के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों तथा निर्वाचन आयोग को सुदृढ़ करने की बातें और प्रशंसा करते हैं। क्या वास्तव में ऐसा है? 

संसद का विशेष सत्र आरंभ हो चुका है और विपक्ष, बुद्धिजीवी और निर्वाचन आयोग सहित प्रशासन का एक वर्ग मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त (नियुक्ति, सेवा और पद की शर्तें) विधेयक 2023 के दो प्रावधानों को लेकर चिंतित हैं। इस विधेयक को पिछले माह राज्यसभा में पेश किया गया था और इस पर इस सत्र में चर्चा होगी तथा इसे पारित किया जाएगा। इस विधेयक में तीनों निर्वाचन आयुक्तों की सेवा शर्तों को डाऊनग्रेड करने का प्रावधान किया गया है, जिसके चलते उसके प्राधिकार को खतरा हो सकता है। 

पहला प्रावधान मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर है, जिसमें कहा गया है कि प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और एक केन्द्रीय मंत्री से मिलकर बनी समिति निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति करेगी। यह वर्तमान प्रणाली के विरुद्ध है, जिसमें समिति में भारत का मुख्य न्यायाधीश भी एक सदस्य होता है। दूसरा, विधेयक में मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के वेतन, भत्तों और सेवा शर्तों में संशोधन करने का प्रस्ताव किया गया है और उन्हें कैबिनेट सचिव के समकक्ष लाने का प्रस्ताव है। वर्तमान में निर्वाचन आयुक्त उच्चतम न्यायालय के न्यायधीशों के समकक्ष है। वास्तव में इस संशोधन का कोई बड़ा वित्तीय प्रभाव नहीं है क्योंकि उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीश और कैबिनेट सचिव का मूल वेतन लगभग समान है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद जीवनकाल तक ड्राइवर और घरेलू सहायक की सेवाओं का लाभ मिलता है। 

प्रश्न उठता है कि इस कदम से मोदी सरकार क्या राजनीतिक संदेश देना चाहती है क्योंकि इससे न केवल मुख्य निर्वाचन आयुक्त, अपितु निर्वाचन आयुक्तों की भी शक्ति कम होगी और उन्हें पदानुक्रम में मंत्रियों के स्तर से भी नीचे ले आएगी। साथ ही निर्वाचन आयुक्तों को नौकरशाही के साथ जोडऩे से उनके हाथ बंध जाएंगे और उनकी शक्ति कम होगी। निर्वाचन आयोग के एक अधिकारी के अनुसार, कैबिनेट सचिव के बराबर का दर्जा मिलने का तात्पर्य है कि आप पदानुक्रम में राज्य मंत्री से भी निचले स्थान पर हैं। 

आप इस बात की कल्पना कैसे कर सकते हैं कि आयोग चुनाव के दौरान चुनाव आचार संहिता और कानूनों के उल्लंघन के लिए प्रधानमंत्री और केन्द्रीय मंत्रियों को अनुशासित करने का प्रयास करेगा? इस अधिकारी का यह भी कहना है कि वर्तमान में चुनाव आयुक्त केन्द्र में कैबिनेट या विधि सचिव या राज्य में मुख्य सचिव को बैठक के लिए बुलाते हैं और उनके निर्देशों के पालन में खामियों और जानबूझकर उनका सम्मान न करने के बारे में उनसे स्पष्टीकरण मांगते हैं तो उनके आदेश में एक उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की शक्ति होती है क्योंकि वे उनके समकक्ष नहीं होते। नए विधेयक में यदि उन्हें कैबिनेट सचिव के समकक्ष लाया जाएगा तो उनकी शक्ति और नियंत्रण प्रभावित होगा। 

वर्तमान में यह प्रणाली है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त अपने पत्रों को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और विधि मंत्री को संबोधित करते हैं, जबकि आयोग के अधिकारी सरकारी अधिकारियों से संवाद करते हैं। विधेयक में एक अन्य विसंगति मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों को पद से हटाने को लेकर है। संविधान में कहा गया है कि उनको केवल उसी तरह पद से हटाया जा सकता है, जिस तरह से उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जाता है। किंतु इस विधेयक में उनकी सेवा शर्तों को नौकरशाह अर्थात कैबिनेट सचिव से जोड़ दिया गया है। 

राजनेताओं को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उनकी वैधता एक संवैधानिक निकाय द्वारा कराए गए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों से ही प्राप्त होती है और उनकी वैधता चुनावों की विश्वसनीयता का अंतिम गारंटीदाता है। पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त कुरैशी का कहना है कि ऐसे कदम से भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि भी प्रभावित होगी क्योंकि विकासशील देश हमारे चुनावी लोकतंत्र की ओर प्रेरणा की दृृष्टि से देखते हैं और विदेशों में अधिकतर चुनाव आयुक्त उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृृत्त न्यायाधीश हैं। हम चुनावों में विश्वगुरु हैं। पिछले 10 वर्षों में 108 देशों ने अपने निर्वाचन आयुक्तों को प्रशिक्षण के लिए भारत भेजा, मगर निर्वाचन आयोग का दर्जा कम कर हम क्या प्राप्त कर रहे हैं? 

पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने इसी तरह मुख्य सूचना आयुक्त और मुख्य सतर्कता आयुक्त के वेतन को भी उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की बजाय कैबिनेट सचिव के बराबर रखा। इसमें अंतर यह है कि मुख्य सतर्कता आयुक्त या मुख्य सूचना आयुक्त निर्वाचन आयुक्त की तरह संवैधानिक भूमिका में नहीं हैं। संविधान में ही निर्वाचन आयुक्त को न्यायाधीश का दर्जा दिया गया है और कहा गया है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त को केवल महाभियोग के माध्यम से हटाया जा सकता है। 
रोचक तथ्य यह है कि भाजपा से पूर्व जनसंघ ने मांग की थी कि निर्वाचन आयोग को बहुसदस्यीय निकाय बनाया जाए और सरकार को धीरे-धीरे चुनावों का वित्त पोषण करना चाहिए तथा राजनीतिक दलों तथा उम्मीदवारों को चुनाव से संबंधित व्यय नहीं करना चाहिए। साथ ही एक न्यायिक आयोग को सभी चुनावी विवादों का निर्णय करना चाहिए और सरकार को मतदान प्रणाली पर पुनर्विचार करना चाहिए, जो कि जनता की आकांक्षाओं को प्रदर्शित करे। उसके बाद के वर्षों में उसने सरकार से मांग की कि वह चुनाव प्रणाली पर पुनॢवचार करे और सुझाव दिया कि पूरे देश में एक ही दिन लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव हों। 

उल्लेखनीय है कि 1967 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव होते थे। वर्ष 1975 में भाजपा ने मांग की कि एकल सदस्यीय निर्वाचन आयोग के स्थान पर बहुसदस्यीय निकाय बनाया जाए और यह भी मांग की कि इसके सदस्य न्यायाधीश हों, न कि सचिव स्तर के पूर्व नौकरशाह। भाजपा सरकार मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के संबंध में संशोधन करने की दिशा में बढ़ रही है, किंतु जनसंघ के पुराने दस्तावेज बताते हैं कि चुनाव और चुनाव सुधारों के बारे में पार्टी के विचार किस तरह विकसित हुए। 

नि:संदेह टी.एन. शेषन, एन. गोपालस्वामी, जेम्स लिंगदोह और एम.एस. गिल जैसे मुख्य निर्वाचन आयुक्तों ने यह सिद्ध किया कि निर्वाचन आयोग क्या कर सकता है। टी.एन. शेषन द्वारा आदर्श आचार संहिता का कठोरता से पालन कराने से सरकार और नेता आयोग से डरने लगे। इससे निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित हुए। गोपालस्वामी ने इस प्रणाली को सुचारू बनाया और ङ्क्षलगदोह ने सुनिश्चित किया कि जम्मू-कश्मीर में भी चुनाव ईमानदारी और निष्पक्षता से हों, जहां पर चुनावों में हेराफेरी का इतिहास था। निर्वाचन आयोग को अधिक सजग रहना होगा तथा जमीनी स्तर पर निर्णयों पर नजदीकी से निगरानी रखनी होगी और शिकायतों के बारे में तत्काल निर्णय लेना होगा। उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी राजनीतिक दल और उम्मीदवार को आयोग पर आरोप लगाने का अवसर न मिले कि वह किसी का पक्ष ले रहा है। 

कुल मिलाकर यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन चुनाव जीतता है क्योंकि अंतत: भारत की जनता को नुक्सान होता है। सरकार, राजनेता और राजनीति सभी आम जनता को बेहतर जीवन से वंचित रखने का प्रयास कर रहे हैं। हमारे राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि यदि निर्वाचन आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएं कत्र्तव्यनिष्ठता के साथ कार्य नहीं करतीं तो देश में अराजकता और अव्यवस्था पैदा हो सकती है। समय आ गया है कि हम इस संबंध में सही और साहसिक निर्णय लें क्योंकि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र का मूल सार है।-पूनम आई.कौशिश
 

Trending Topics

IPL
Royal Challengers Bengaluru

190/9

20.0

Punjab Kings

184/7

20.0

Royal Challengers Bengaluru win by 6 runs

RR 9.50
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!