‘म्यांमार संकट को लेकर भारत सचेत है’

Edited By ,Updated: 10 Feb, 2021 04:21 AM

india is conscious of myanmar crisis

म्यांमार के लोग हजारों की संख्या में सेना के उस तख्ता पलट के खिलाफ सड़कों पर उतरे हैं जिसने सैन्य जनरलों को हिला कर रख दिया है। अंतर्राष्ट्रीय दबाव को देखते हुए सेना के लिए निकट भविष्य में देश को नियंत्रित करना बेहद कठिन हो सकता है। सैन्य जनरलों पर...

म्यांमार के लोग हजारों की संख्या में सेना के उस तख्ता पलट के खिलाफ सड़कों पर उतरे हैं जिसने सैन्य जनरलों को हिला कर रख दिया है। अंतर्राष्ट्रीय दबाव को देखते हुए सेना के लिए निकट भविष्य में देश को नियंत्रित करना बेहद कठिन हो सकता है। सैन्य जनरलों पर पाबंदियां लगाने के लिए भारत ने अभी तक संयुक्त राष्ट्र से अपने आपको नहीं जोड़ा है और उसने एक सतर्क रुख अपनाया है। इससे भारत इस परेशान देश के साथ अपने लम्बे समय के संबंधों को बरकरार रख सकता है और साथ ही उस देश में एक बंदरगाह को विकसित करने के अलावा म्यांमार के साथ कालादान परियोजना समझौते पर हुए हस्ताक्षर की रक्षा कर सकता है। 

विश्लेषकों का मानना है कि भारत ने वर्षों से म्यांमार के सैन्य जनरलों के साथ अपने संबंध बनाए हैं इसलिए वह नए सैन्य शासन के खिलाफ किसी भी कठोर कार्रवाई से खुद को दूर रखेगा। भारत के विदेश सचिव हर्ष शृंगला ने सेना प्रमुख एम.एम. नरवने के साथ म्यांमार की पिछले वर्ष यात्रा की थी जिसका मकसद सैन्य जनरलों के साथ मजबूत रिश्ते कायम करना था। इसके अलावा दोनों ने अन्य नेताओं के साथ भी मुलाकात की थी। भारत यह भी जानता है कि कुछ पड़ोसी देश जैसे यू.ए.ई., सऊदी अरब आदि को गैर-लोकतांत्रिक शासन मिला हुआ है। इसलिए भारत संयुक्त राष्ट्र के साथ जुडऩे से दूरी बनाए हुए है जो भविष्य में सैन्य शासन के खिलाफ प्रतिबंधों को पुनर्जीवित कर सकता है। 

दूसरी ओर चीन लोकतांत्रिक शक्तियों का समर्थन नहीं करता, इसी कारण उसने  सेना की तख्ता पलट कार्रवाई पर हमला नहीं बोला और उसने सैन्य कमांडर मिन आंग हिलेंग की निंदा करने से परहेज किया है। चीन का मानना है कि म्यांमार के सभी पक्ष संवैधानिक और कानून के तहत अपने मतभेदों को ठीक से संभाल लेंगे और देश में राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता कायम होगी। 

पेइचिंग इस घटना को झटका महसूस नहीं करता। हालांकि पिछला रिकार्ड दर्शाता है कि सैन्य जनरल कभी भी चीन समर्थित नहीं थे और न ही उन्होंने चीन से सहानुभूति रखी। विश्लेषकों का कहना है कि चीन अपने 9 बिलियन अमरीकी डालर वाले चाइना-म्यांमार आर्थिक कोरीडोर (सी.एम.ई.सी.) को संरक्षित करना चाहता है। यह कोरीडोर चीन को हिंद महासागर तक पहुंच उपलब्ध करवाता है। 

यह याद किया जा सकता है कि घातक कोरोना महामारी से पहले जनवरी 2020 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने म्यांमार की यात्रा की थी।  शी का यह दौरा 18 साल के अंतराल के बाद हुआ था। राजनीति, व्यापार, निवेश तथा लोगों के बीच संचार जैसे क्षेत्रों को लेकर 33 समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए थे। पेइचिंग सी.एम.ई.सी. के निष्पादन पर ध्यान केन्द्रित कर रहा है जोकि 60 बिलियन अमरीकी डालर के चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कोरीडोर के समझौते की तर्ज पर है जिसका मुख्य लक्ष्य अरब सागर में पाकिस्तान की गवादर बंदरगाह  तक पहुंच बनाई जा सके। सी.एम.ई.सी. दक्षिण पश्चिमी चीन को ङ्क्षहद महासागर से जोडऩे वाली एक परियोजना है। 

भारत ने जनरल मिन की उस समय सराहना की थी जब उन्होंने 2017 में नई दिल्ली की यात्रा की थी। उस समय भारत तथा चीन डोकलाम पठार को लेकर एक-दूसरे के साथ सीधे टकराव में खड़े थे। मिन का तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने बौद्ध गया में स्वागत किया था। उसके बाद जनरल मिन ने देश भर के अनेकों सैन्य तथा गैर-सैन्य स्थलों की यात्रा की थी तब जनरल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा तत्कालीन रक्षा मंत्री अरुण जेतली और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ मुलाकात की थी। यह सब बातें भारत के साथ म्यांमार की निकटता को दर्शाती हैं। 

तानाशाही के बारे में अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की कड़ी राय को देखते हुए ऐसा लगता है कि वह म्यांमार पर फिर से पाबंदियां थोप देंगे जो 2016 में उठाई गई थीं। हालांकि इस देश में अभी भी कई चीजें पाबंदियों के अंतर्गत हैं जिसमें मानवाधिकार का उल्लंघन तथा रोङ्क्षहग्या लोगों का नरसंहार शामिल है। बाइडेन सैन्य शासकों को निर्वाचित सरकारों को उखाड़ फैंकने के लिए  दंडित करने हेतु कृत संकल्प हैं। इसलिए उनका प्रशासन भारत और जापान जैसे  राष्ट्रों के साथ सम्पर्क में है। 

नवम्बर 2020 के संसदीय चुनावों में नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की की नैशनल लीग फॉर डैमोक्रेसी पार्टी को मिली जीत से सेना ने अपने आपको खतरे में पाया था। सू की ने सैन्य समर्थित यूनियन सॉलिडैरिटी एंड डिवैल्पमैंट पार्टी (यू.एस.डी.पी.) को हराया था। यह पूर्ण लोकतंत्र की तरफ बढ़ता कदम था। वहीं सेना ने अब सत्ताधारी पार्टी के नेताओं को हिरासत में ले रखा है जिन्होंने प्रस्तावित संसदीय सत्र में पहली बार बैठना था। म्यांमार संकट को लेकर भारत सचेत है और यह मानता है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के संरक्षण को सेना से खतरा है। सू की के भारत के साथ निकट संबंध हैं क्योंकि उन्होंने अपनी शिक्षा दिल्ली में ग्रहण की थी। विशेषकर उस समय जब सेना ने म्यांमार में सत्ता हासिल की थी। उसके बाद उनको गिरफ्तार किया गया था। इस समय के दौरान सू की को असीधे तौर पर भारतीय सरकार से मदद मिलती रही। उनका झुकाव भारत की तरफ है जिसके चलते कालादान परियोजना पर हस्ताक्षर हुए थे।-के.एस. तोमर
 

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