भारत एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ देश था, है और रहेगा

Edited By ,Updated: 04 Jan, 2020 04:13 AM

india was and will remain a  secular  country

मुझको मेरी आवाज सुनाई नहीं देती,कैसा मेरे जिस्म में एक शोर मचा है? बहुत शोर है मेरे भारत में। धर्मनिरपेक्षता  खतरे में...

मुझको मेरी आवाज सुनाई नहीं देती,
कैसा मेरे जिस्म में एक शोर मचा है? 

बहुत शोर है मेरे भारत में। धर्मनिरपेक्षता  खतरे में है,  संविधान बचाओ, देश बचाओ, अल्पसंख्यकों की नागरिकता खतरे में जैसी आवाजें देश में आ रही हैं। प्रदेशों में गैर-भाजपा सरकारों के मुख्यमंत्रियों का कहना है कि वे अपने यहां नागरिकता संशोधन कानून (सी.ए.ए.) व एन.आर.सी. और एन.पी.आर. लागू नहीं करेंगे। इन मुद्दों को लेकर देश में धरने, प्रदर्शन लगातार जारी हैं। क्या सचमुच देश खतरे में है? तो क्या केन्द्र में भाजपा सरकार ने सी.ए.ए. पारित करके, सच में ही कोई भयंकर भूल की है? 

इन सभी प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए हमें अतीत के झरोखे में उन घटनाओं का विवेचन करना होगा जब उस वक्त के अंग्रेज शासकों ने मुस्लिम लीग की मांग स्वीकार करते हुए धर्म के आधार पर ब्रिटिश इंडिया का दो हिस्सों में विभाजन कर दिया। एक भारत और दूसरा पाकिस्तान। वास्तविकता यह है कि लोगों को परिकल्पना ही नहीं थी कि विभाजन का क्या अर्थ है और दो देश बनने से क्या कुछ बदल जाएगा। उस वक्त के भारत के कर्णधारों ने भारत को धर्मनिरपेक्ष देश घोषित किया तो पाकिस्तान ने भी अपने आप को धर्मनिरपेक्ष देश घोषित किया। कायद-ए-आजम  मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा दिया गया 11 अगस्त 1947 का भाषण पूर्णत: धर्मनिरपेक्षता  से प्रेरित था जिसमें उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में रह रहे किसी भी समुदाय के लोग बराबर के नागरिक हैं और उनमें जात, रंग व पंथ के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। 

हरेक व्यक्ति पूजा हेतु मंदिर-मस्जिद जाने के लिए पूर्णत: स्वतंत्र है। इसीलिए पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल के पिता दिवंगत अवतार नारायण गुजराल ने पाकिस्तान में ही बसनेे का निर्णय किया और वहां के संविधान पर हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करते हुए  हस्ताक्षर भी किए लेकिन बाद में उन्हें लगने लगा कि यह निर्णय ठीक नहीं है और गुजराल परिवार सहित पलायन कर भारत में आ गए और उन्होंने जालंधर में बसने का निर्णय किया। अगर अवतार नारायण गुजराल पाकिस्तान में ही रहने का निर्णय करते तो क्या इन्द्र कुमार गुजराल को पाकिस्तान प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करता? इस प्रश्न को प्रश्न ही रहने दिया जाए तो अच्छा है। 

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि विभाजन के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों ने ही धर्मनिरपेक्षता के रास्ते पर चलने का निर्णय किया लेकिन भारत आज तक उसी रास्ते पर चल रहा है, परन्तु पाकिस्तान ने अपने आप को बाद में इस्लामिक देश घोषित कर दिया। अवतार नारायण गुजराल की तरह ऐसे अनगिनत लोग विभाजन के बाद पाकिस्तान में रह गए और इन अल्पसंख्यकों  को बाद में प्रताडि़त व जबरन धर्मांतरण का शिकार होना पड़ा और आज तक हो रहे हैं। विभाजन के वक्त पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की आबादी 23 प्रतिशत थी, जो अब 2.8 प्रतिशत रह गई है। 1947  में पूर्वी बंगाल, जोकि विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान कहलाया और अब बंगलादेश है, में अल्पसंख्यकों की आबादी 28 प्रतिशत थी,1971  में बंगलादेश बना और 1981 के आंकड़ों के साथ यह 12 प्रतिशत रह गई थी और अब 8.5 प्रतिशत रह गई है। 1988 में बंगलादेश भी इस्लामिक देश बन गया था। पाकिस्तान में अल्पसंख्यक समुदायों की गिनती कम होने का मुख्य कारण जबरन धर्म परिवर्तन और गैर-मुस्लिम समुदायों की बेटियों का मुसलमान लड़कों के साथ जबरन निकाह करवाना है। 

20 से 25  हिन्दू लड़कियों को हर माह अगवा किया जाता है 
मानव अधिकार आयोग (पाकिस्तान) के सदस्य अमर नाथ मोटूमल का कहना है  कि 20 से 25  हिन्दू  लड़कियों को हर माह अगवा किया जाता है और जबरन धर्मांतरण करवा कर उनका निकाह कर दिया जाता है। पीड़ित परिवार पुलिस केस दर्ज करवाने से डरते हैं क्योंकि उनको जान से मारने की धमकी दी जाती है और वे अपनी जान जाने के डर से चुप्पी साध लेते हैं। प्रोविंशियल असैम्बली (पाकिस्तान)  के पूर्व सदस्य भेरूलाल बलानी का  कहना है कि हिन्दू  लड़कियों, विशेष तौर पर जिनका सम्बन्ध अनुसूचित जाति वर्ग के साथ होता है, को अगवा कर लेने के बाद धर्म परिवर्तन किया जाता है और उसके बाद उन्हें दूसरे लोगों को बेच दिया जाता है या जबरन गैरकानूनी और अनैतिक कार्यों में धकेला जाता है। ऐसा करने वाले लोग बहुत प्रभावशाली होते हैं और उनके खिलाफ  कोई पुलिस केस दर्ज नहीं हो सकता। प्रत्येक वर्ष अल्पसंख्यक समुदायों की  लगभग 1000 लड़कियों का पाकिस्तान में  जबरन धर्मांतरण किया जाता है। ऐसे प्रताडि़त अल्पसंख्यकों के लिए सी.ए.ए.मोदी सरकार ने संसद से पारित करवाया। 

उल्लेखनीय है कि इसी कानून को पास करवाने के लिए कभी पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने 18  दिसम्बर 2003  को राज्यसभा में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से मांग की थी कि पाकिस्तान और बंगलादेश में प्रताडि़त अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने के लिए कानून बनाना चाहिए और इसी मांग को लेकर ममता बनर्जी ने  संसद से वाकआऊट भी किया था, जबकि अब  यह मांग भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने  सी.ए.ए. पारित करवा कर पूरी कर दी है, तो कांग्रेस तथा टी.एम.सी.का विरोध करना समझ  से परे है। 

सी.ए.ए. से भारत की धर्मनिरपेक्षता को कोई खतरा नहीं है
जहां तक भारत की धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न है, यह एक धर्मनिरपेक्ष देश था, है और रहेगा। सी.ए.ए. से भारत की धर्मनिरपेक्षता को कोई खतरा नहीं है। इसका मनोरथ पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान में रह रहे और भारत में आए हुए प्रताडि़त  अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता प्रदान करना है। इसका धर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। सी.ए.ए. में अल्पसंख्यकों को हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन और ईसाई के रूप में परिभाषित किया गया है तथा अल्पसंख्यकों की परिभाषा को धर्म के साथ जोडऩा सरासर गलत है। नागरिकता का सम्बन्ध भारत के संविधान से है और इसका धर्म के साथ कोई लेना-देना नहीं है। अगर इसको दूसरी तरह से कहा जाए कि भारत में रह रहे बहुसंख्यक कौन हैं? तो इसका उत्तर यह होगा कि भारत में  बहुसंख्यक हिन्दू हैं तथा इस उत्तर को हिन्दू धर्म के साथ जोडऩा सरासर गलत होगा। सी.ए.ए. का विरोध करने वाले लोग अल्पसंख्यकों की  परिभाषा को धर्म के साथ जोड़ कर भ्रम फैला रहे हैं और अपनी राजनीतिक रोटियां  सेंकने का कुप्रयास कर रहे हैं। 

नागरिकता देना केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है और प्रांतीय सरकारों का इससे कुछ  भी लेना-देना नहीं है। लेकिन गैर-भाजपा सरकारों के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि हम न तो सी.ए.ए. लागू करेंगे और न ही एन.पी.आर., इसका मतलब क्या है? अगर पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान से प्रताडि़त कोई अल्पसंख्यक किसी प्रदेश में नागरिकता की मांग करता है, तो प्रदेश सरकार  न ही नागरिकता दे सकती है और न ही यह उसके अधिकार क्षेत्र में है । गैर भाजपा प्रदेश सरकारों का यह कथन कि सी.ए.ए. और एन.पी.आर को लागू नहीं करेंगे, बे-मायने है। अगर  गैर-भाजपा प्रदेश सरकारें इसमें व्यवधान डालेंगी तो नुक्सान भारत और भारत के नागरिकों का होगा और जिसके लिए वे पूर्णत: उत्तरदायी होंगे। इसी तरह एन.पी.आर. तथा सी.ए.ए.1955 के तहत आता है और भारत में रह रहे प्रत्येक उन व्यक्तियों का विवरण पंजीकृत करना होता है जो 6 महीने से ज्यादा स्थानीय स्तर पर रह रहे होते हैं। 

एन.पी.आर. का नागरिकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। एन.पी.आर. में भारत में रह रही जनता की सूचना कांग्रेस के कार्यकाल में 2011 की जनगणना के साथ इकट्ठी की गई थी और इसके बाद इसके डाटा को 2015 में घर-घर जाकर सर्वेक्षण करके अपडेट किया गया था जिसे कि अप्रैल से सितम्बर 2020 तक फिर से अपडेट करने का निर्णय किया गया है जिसका नागरिकता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, लेकिन विपक्ष लोगों को भ्रमित करने के लिए कि उनकी नागरिकता खतरे में है, की आड़ में धरने-प्रदर्शन कर हो- हल्ला  मचा रहा है। इस हो-हल्ले के वातावरण में भारत के हर नागरिक का यह कत्र्तव्य बनता है कि वह किसी के बहकावे में आने से पहले सोच-विचार करे  कि  क्या गलत है और क्या सही है? यह देश भारत की जनता का है और उनकी नागरिकता कोई नहीं छीन सकता।-मनोरंजन कालिया

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