न्यायपालिका अपनी कुछ प्राथमिकताएं सही करे

Edited By Pardeep,Updated: 15 Nov, 2018 04:17 AM

judiciary correct some of its priorities

अपनी शिकायतों का समाधान चाहने वाले नागरिकों के लिए न्यायपालिका अंतिम आशा और हमारे संविधान की रक्षक है। इसे अत्यंत सम्मान दिया जाता है लेकिन कुछ हालिया निर्देशों ने इसके अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने तथा लोकतंत्र के दो अन्य स्तम्भों, विधायिका व...

अपनी शिकायतों का समाधान चाहने वाले नागरिकों के लिए न्यायपालिका अंतिम आशा और हमारे संविधान की रक्षक है। इसे अत्यंत सम्मान दिया जाता है लेकिन कुछ हालिया निर्देशों ने इसके अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने तथा लोकतंत्र के दो अन्य स्तम्भों, विधायिका व कार्यपालिका के क्षेत्र में दखलंदाजी को लेकर प्रश्र खड़े कर दिए हैं। 

न्यायपालिका द्वारा प्रशासन के मुद्दों को अपने हाथ में लेने तथा ऐसे निर्देश जारी करने, जो लागू करने कठिन होते हैं, की आवृत्ति में तेजी आ रही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि दीवाली की रात को केवल 8 से 10 बजे के बीच ही पटाखे चलाने के इसके निर्देश के पीछे अच्छा इरादा था। यद्यपि इन आदेशों को देश भर में लागू करना वास्तव में असम्भव था। पुलिस ने पटाखे चलाते कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया लेकिन स्वाभाविक है कि जब निर्धारित समय के बाद पटाखे चलाने में करोड़ों लोग शामिल हों तो पुलिस भी कुछ नहीं कर सकती थी। सर्वोच्च अदालत के आदेशों के खुले उल्लंघन ने न्यायपालिका की विश्वसनीयता तथा अधिकार में कोई वृद्धि नहीं की। 

अदालतों द्वारा स्वसंज्ञान से लिए गए एक अन्य मामले में पंजाब तथा हरियाणा हाईकोर्ट चंडीगढ़ अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की कार्यप्रणाली की जांच करने के लिए अपना काफी समय लगा रही है। अदालत उड़ानें न शुरू करने के लिए एयरलाइन्स को फटकार लगा रही है, कुछ एयरलाइन्स को कहा है कि बेहतर होगा वे अपना संचालन बंद कर दें और यहां तक कि हवाई अड्डे को बंद करने तक के आदेश जारी करने की धमकी दे रही है। ऐसे मामलों में यदि कानूनों के उल्लंघन के प्रश्र हैं भी तो उन्हें कुछ ज्यादा ही खींचा जा रहा है। 

जल्दबाजी में निर्देश जारी कर फिर वापस लिए जाते हैं
फिर एक ऐसा रुझान है कि पहले जल्दबाजी में निर्देश जारी कर दो और फिर बाद में उन्हें वापस ले लो। ऐसा ही एक हालिया निर्णय हाइवेज़ से 500 मीटर के दायरे में शराब की दुकानों, विज्ञापनों तथा बारों को बंद करने के संबंध में था। इस कारण सैंकड़ों की संख्या में दुकानें तथा बार बंद हो गए तथा हजारों लोगों के जीवन में व्यवधान पड़ा। इस तरह की रिपोर्टें थीं कि लोग 500 मीटर भीतर जाते थे और अपने वाहनों में पीने के लिए शराब लाते थे जो निश्चित तौर पर अदालती आदेशों के पहले से खराब स्थिति थी। 

विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि जिन लोगों को पीना पसंद है, वे दुकान देख कर अपना मन नहीं बनाते अथवा किसी विज्ञापन से आकॢषत नहीं होते। निश्चित तौर पर उच्च मार्गों से दुकानें तथा बोर्ड हटाने के तानाशाहीपूर्ण आदेश के अतिरिक्त इस बुराई को दबाने के और भी रास्ते थे। परिणामस्वरूप इस आदेश को वापस ले लिया गया और सब कुछ फिर पहले जैसा चलने लगा। इसी तरह से किसी फिल्म से पहले राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य करना एक विचित्र कदम था। किसी अन्य देश में इस तरह की रिवायत ढूंढने के सभी प्रयास असफल रहे। फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाने के पीछे विचार लोगों में देशभक्ति तथा राष्ट्रवाद की भावना पैदा करना था तो यह एक गलत विचार था। कुछ ऐसी भी घटनाएं हुईं जिसमें जो लोग खड़े नहीं हुए उन पर तथाकथित देशभक्त लोगों ने हमला कर दिया। 

शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट में इस आदेश को सबसे पहले लागू करके अच्छा कर सकती थी और अपना कार्य शुरू करने से पहले हाईकोट्स तथा अधीनस्थ अदालतों में राष्ट्रगान बजाने का आदेश दिया जाना चाहिए था। अच्छा होता यदि यह आदेश कालेजों तथा विश्वविद्यालयों सहित सभी शिक्षण संस्थानों के लिए होता कि वे अपने कार्य की शुरूआत राष्ट्रगान के साथ करें। और क्यों सरकारी विभागों पर नहीं, जहां मंत्रियों तथा नौकरशाहों को कार्यालय के खुलने के समय सावधान की मुद्रा में खड़े होने के निर्देश दिए जाने चाहिएं। सम्भावनाएं अनगिनत थीं लेकिन कोर्ट के निर्देशों ने केवल उन स्थानों को चुना जहां लोग मनोरंजन के लिए जाते हैं। बाद में एक अन्य पीठ ने यह कह कर आदेश को धुंधला दिया कि सिनेमा मालिकों के लिए राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य नहीं है। 

इस तरह के मामलों के उदाहरण समाप्त नहीं होते, यहां तक कि तब जब जनता तथा व्यक्तिगत हितों से संबंधित महत्वपूर्ण मामले लंबित हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार देश की विभिन्न अदालतों में 3 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से लगभग 1 करोड़ कई वर्षों, यहां तक कि दशकों से उच्च न्यायपालिका में लंबित हैं। इतनी ही महत्वपूर्ण बात यह कि देश भर में हाईकोर्ट में जजों के लगभग 40 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं। लंबित मामलों की संख्या प्रति वर्ष बढ़ती जा रही है और विडम्बना यह है कि सरकार खुद सबसे बड़ी वादी है। न्यायपालिका, जिसने हाल ही में चीफ जस्टिस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठतम जजों को सार्वजनिक रूप से आवाज उठाते देखा, को अवश्य अपने भीतर झांकना होगा और अपनी कुछ प्राथमिकताओं को सही करना होगा। देश के नागरिक न्यायपालिका की संस्था में विश्वास खोना सहन नहीं कर सकते।-विपिन पब्बी

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