लद्दाख हिंसा : जेन-जैड तो महज संभावित लाभार्थी हैं

Edited By Updated: 27 Sep, 2025 05:05 AM

ladakh violence gen z are just potential beneficiaries

लेह लद्दाख में जो कुछ हुआ उसे जेन-जी या जेन-जैड कहने वाले बहुत मिल रहे हैं। उत्तराखंड में परीक्षा पेपर लीक का विरोध करने को भी जेन-जी बताया जा रहा है लेकिन लद्दाख अशांति की वजह के बीज तो 5 साल पहले ही पड़ चुके थे। पेपर लीक पूरे उत्तर भारत के...

लेह लद्दाख में जो कुछ हुआ उसे जेन-जी या जेन-जैड कहने वाले बहुत मिल रहे हैं। उत्तराखंड में परीक्षा पेपर लीक का विरोध करने को भी जेन-जी बताया जा रहा है लेकिन लद्दाख अशांति की वजह के बीज तो 5 साल पहले ही पड़ चुके थे। पेपर लीक पूरे उत्तर भारत के बेरोजगारों का पुराना दर्द है। कब तक लोग वायदों के झुनझुने से दिल को तसल्ली देते रहेंगे, कब तक छात्र पेपर लीक के शिकार होते रहेंगे, कब तक राजनीतिक दल झूठे आश्वासन देकर वोट हासिल करते रहेंगे, कब तक नौकरी लगने की उम्मीद में छात्र ओवर एज होते रहेंगे, एक दिन तो गुस्सा भड़केगा ही, फिर यह किसी अकेले का गुस्सा नहीं है।

जम्मू-कश्मीर की बात करें तो 2019 में धारा 370 हटाई जाती है। जम्मू-कश्मीर से लद्दाख को अलग कर केंद्र शासित प्रदेश बना दिया जाता है जिसकी अपनी कोई विधानसभा भी नहीं होती। जम्मू-कश्मीर को अलग से केंद्र शासित प्रदेश बना दिया जाता है लेकिन विधानसभा की व्यवस्था की जाती है। दोनों को भरोसा दिया जाता है कि उचित समय आने पर राज्य का दर्जा दे दिया जाएगा। लद्दाख को छठी अनुसूची में डालने का वायदा किया जाता है, इसका मतलब है कि करीब 98 फीसदी अनुसूचित जन जाति को उत्तर पूर्व के आदिवासी बहुल राज्यों की तरह अधिकारों और केंद्र से वित्तीय सहयोग यानी एक तरह से संवैधानिक सुरक्षा मिलना है। इसके अलावा स्थानीय जनता कारगिल और लेह को अलग-अलग लोकसभा सीट बनाने और सरकारी नौकरियों में स्थानीय भर्ती की मांग कर रही है   लेकिन 2025 पूरा होने को है और वादे पूरे नहीं हुए हैं। खासतौर से अभी तक पूर्ण राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची में शामिल किया जाना बाकी है।

वैसे जम्मू-कश्मीर की जनता भी केन्द्र सरकार को बार-बार फिर से राज्य का दर्जा देने के वादे को याद दिलाती रहती है। अब कई मैदानी इलाकों में भाजपा शासित राज्यों में स्थानीय नौकरी के कानून बनाए (सुप्रीम कोर्ट में रोक दिए गए) जा सकते हैं तो लद्दाख में क्यों नहीं? ऐसा भी नहीं है कि एल.जी. के माध्यम से केंद्र सरकार बात नहीं कर रही। जनवरी, 2003 में केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने उच्च स्तरीय कमेटी का गठन किया था, उसके बाद बातचीत के कुछ दौर भी चले हैं। इसमें सोनम वांगचुक का संगठन भी शामिल है लेकिन बातचीत की गति धीमी है, इसमें तेजी लाने के लिए लेह से दिल्ली तक पैदल मार्च भी वांगचुक को करना पड़ता है। अब 6 अक्तूबर को बातचीत का अगला दौर होना था। 

वांगचुक भूख हड़ताल पर थे। उनके 2 साथियों को तबीयत खराब होने के बाद अस्पताल में भर्ती करवाया गया था। उसने ट्रिगर प्वाइंट का काम किया। ङ्क्षहसा हुई, ङ्क्षहसा होने के विरोध में सोनम वांगचुक ने अपनी भूख हड़ताल तोड़ दी  लेकिन निशाना उन पर लगाया जा रहा है, उन्हें देशद्रोही बताया जा रहा है, यह मूल समस्या से लोगों का ध्यान भटकाने की कोशिश ही है। अब कहा जा रहा है कि सोनम वांगचुक ने युवा वर्ग को भड़का दिया। राहुल गांधी की कांग्रेस उकसाने का काम कर रही है। नेपाल, बंगलादेश, श्रीलंका को भारत में दोहराना चाहते हैं राहुल गांधी जबकि वास्तविकता यह है कि लद्दाख की समस्या एक राजनीतिक समस्या है (जिसका जुड़ाव चुनावी मुनाफे से है) और इसका राजनीतिक समाधान ही अंतिम समाधान है जो केन्द्र और लद्दाख के सियासी, सामाजिक संगठनों को मिलकर निकालना है, जेन-जैड तो महज संभावित लाभार्थी हैं। फैशन हो गया है जेन-जैड की बात करना। हो सकता है कि कुछ लोगों को ऐतराज हो लेकिन सच्चाई यह भी है कि 14 से 28 साल की जैनरेशन का एक बड़ा हिस्सा दो जी.बी. डाटा दिन में खर्चने पर ज्यादा ध्यान देता है। इस पीढ़ी में अजीब तरह का लापरवाही भरा अंदाज भी नजर आता है। इस पीढ़ी की कितनी राजनीतिक समझ है, कितना सामाजिक, राजनीतिक आंदोलनों के बारे में जानती है, मुझे तो कम से कम गलतफहमी नहीं है।

कुल मिलाकर यह पीढ़ी अपना बुरा-भला सोचती भी है और समझती भी है लेकिन इससे आगे  इस पीढ़ी को जिम्मेदार और जवाबदेह बनाने का काम सोनम वांगचुक जैसे लोग ही कर सकते हैं । युवा स्वभाव से ही विद्रोही होता है, बेसब्र होता है , बहकने की गुंजाइश ज्यादा रहती है और बदलाव चाहता है लेकिन हर सत्ता परिवर्तन का मतलब बदलाव नहीं होता। व्यवस्था परिवर्तन जरूर बदलाव की दिशा में आता है लेकिन यह काम व्यवस्था के अंदर जाकर ही किया जा सकता है, नारेबाजी, आगजनी, सोशल मीडिया पोस्ट से नहीं। यहां अब उत्तराखंड की बात करना जरूरी हो जाता है। पूरी कहानी चार वाक्यों में समेटी जा सकती है। फिर एक पेपर लीक होता है, फिर पुलिस एक-आध को गिरफ्तार करती है, फिर लड़के सड़कों पर आते हैं, फिर मुख्यमंत्री नकल जेहाद के खात्मे की कसम खाते हैं, जेहाद का यह सरलीकरण है या नकल यानी पेपर लीक को भी हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देखने की कोशिश होती है। चूंकि इस बार पेपर लीक के मामले में पुलिस ने मुस्लिम भाई-बहन को पकड़ा तो यह नकल जेहाद हो गया।

कुछ लोग देहरादून की सड़कों पर उतरे पेपर लीक से दुखी युवा वर्ग को भी जेन-जैड बताने पर तुल गए हैं। यह पेपर लीक समस्या का अति सरलीकरण विश्लेषण है जो पेपर लीक माफिया के खिलाफ  लड़ाई को हल्का कर देता है। सरकार, कोचिंग सैंटर, नकल माफिया और पुलिस की भूमिका, इन चारों का याराना पेपर लीक  के लिए जिम्मेदार है। हैरत की बात है कि पेपर लीक से पैसा खराब होता है, बच्चों का भविष्य खराब होता है, सरकार की छवि खराब होती है लेकिन इस पर रोक लगाने की कोशिश नहीं होती। अगर प्रश्न पत्र बनाने में मनुष्य की भूमिका ही न रहे और सारी परीक्षा केवल और केवल ऑनलाइन हो तो कुछ लीक भी नहीं होगा और हां जेन-जैड के संयम की परीक्षा ली जा रही है।-विजय विद्रोही
 

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