लोक हितों का पहरेदार है मीडिया

Edited By ,Updated: 10 Aug, 2022 05:56 AM

media is the watchdog of public interest

मीडिया स्वस्थ लोकतंत्र प्रणाली का चौथा स्तंभ माना जाता है। यदि मीडिया में सेवाएं दे रहे लोग निष्पक्ष तथा निडर होकर अपने विवेक के आधार पर अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए सरकारों

मीडिया स्वस्थ लोकतंत्र प्रणाली का चौथा स्तंभ माना जाता है। यदि मीडिया में सेवाएं दे रहे लोग निष्पक्ष तथा निडर होकर अपने विवेक के आधार पर अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए सरकारों की ओर से अपनाई जा रही नीतियों के साधारण शहरियों के जीवन पर पडऩे वाले दुष्परिणामों तथा संविधान में दर्ज लोगों के मूल अधिकारों पर मारे जाते छापों की सही-सही जानकारी दें तो निश्चय ही लोकतंत्र को बल मिलेगा। 

मीडिया लोक हितों का पहरेदार है, इसलिए समय की सरकारों की ओर से अपने नागरिकों के साथ की जाने वाली किसी भी ज्यादती के खिलाफ इसकी ओर से आवाज बुलंद की जाने की आस करना वाजिब है। किसी भी सरकार की लोकतंत्र के प्रति निष्ठा इसके मीडिया से संबंधों तथा व्यवहार से जानी जा सकती है। यह बताना जरूरी होगा कि सरकार की लोक कल्याण के लिए की जाने वाली कार्रवाइयों तथा देशहित में उठाए जाते उचित कदमों को गहराई से जांच कर जनसमूहों तक पहुंचाना भी मीडिया की ही जिम्मेदारी है। 

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ चेतना का प्रसार करने वाले लेखकों तथा कालम नवीसों को अंग्रेज हुकमरानों के कहर का सामना करना पड़ता था जोकि स्वाभाविक ही था, परन्तु अगस्त 1947 में स्वतंत्रता हासिल करने के बाद भी मीडिया को पूरी आजादी के साथ लिखने तथा बोलने के वह अधिकार प्राप्त नहीं हुए जिनकी आशा की जाती थी। प्रत्येक सरकार तथा उसकी अफसरशाही ने मीडिया को अपना प्रवक्ता बनाने के भरसक प्रयत्न किए परन्तु यह वास्तविकता है कि देश के ज्यादातर मीडिया कर्मी तथा कई मीडिया मालिकों ने सभी दबावों तथा प्रलोभनों के बावजूद बड़ी हद तक निष्पक्ष होकर अपने विचारों को आजाद होकर बेखौफ प्रकट किया। 

जब कभी सरकारों या समाज विरोधी तत्वों की ओर से मीडिया को दबाने का प्रयत्न किया गया तो उन्होंने पूरे साहस से इसका मुकाबला किया तथा पत्रकारों की आजादी का झंडा भी बुलंद रखा। ऐसा करते हुए बहुत से समाचारों पत्रों के मालिकों तथा प्रैस और मीडिया से जुड़े पत्रकारों, अनाऊंसरों, लेखकों और कालम नवीसों को भारी प्रताडऩा का सामना भी करना पड़ा। यहां तक कि कइयों को अपनी जिंदगियों से भी हाथ धोना पड़ा। 

1975 में देशवासियों पर थोपी गई आंतरिक एमरजैंसी के दौरान उस समय की कांग्रेस सरकार की ओर से पहला हमला प्रैस पर ही बोला गया। अनेकों जुझारू और लोकतंत्र की मजबूती के समर्थक पत्रकारों ने कांग्रेस सरकार के दमन और गैर-लोकतांत्रिक कदमों का डटकर विरोध किया। वहीं, प्रैस के कई हिस्से इस हमले का टाकरा करने की बजाय सरकार के समक्ष घुटने भी टेकते नजर आए, परन्तु जैसे-जैसे एमरजैंसी दौरान सरकार की ज्यादतियां तेज हुईं और जनसमूह उनके खिलाफ सड़कों पर उतर आए तो घुटने टेकने वाला प्रैस का वह हिस्सा भी उस खुद्दार प्रैस के साथ खड़ा होना शुरू हो गया, जिसने एमरजैंसी के काले दौर में भी विचारों की आजादी का परचम बुलंद रखा था। 

परन्तु जब से भाजपा की मोदी सरकार ने केंद्रीय सत्ता संभाली है तब से ही मीडिया को दबाव अधीन या लालच देकर सरकारी निर्देशों अनुसार काम करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया (टी.वी. चैनल) का बड़ा हिस्सा कार्पोरेट घरानों ने खरीद रखा है। सोशल मीडिया को भी सत्ताधारी पार्टी और इसके समर्थकों ने करीब-करीब अपने अधीन कर लिया है। ज्यादातर टी.वी. चैनलों के मालिक तथा एंकर अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए मोदी सरकार का रात-दिन गुणगान करते नहीं थकते। यही चैनल आर.एस.एस. और इसके साथ जुड़े संगठनों और व्यक्तियों की साम्प्रदायिक, संकीर्ण और पिछड़ेपन की बांटने वाली विचारधारा के प्रचार के लिए भी कार्य कर रहे हैं। 

अभी भी कई टी.वी. चैनल और पत्रकार सभी खतरों के बावजूद आजाद पत्रकारिता की मर्यादा कायम रखते हुए निडरता और निष्पक्षता के साथ अपने फर्ज अदा कर रहे हैं। मौजूदा सरकार की कारगुजारी के बारे में पूछे जाते सवालों को शोर-शराबे के साथ दबा दिया जाता है। मोदी दौर में बिना शक भारतीय मीडिया के बड़े हिस्से के किरदार में भारी गिरावट दर्ज की गई है। आम लोगों की निगाहों में मीडिया के प्रति वह सत्कार और विश्वास नहीं रहा जो पहले कभी देखा जाता था। कितना अच्छा हो यदि टी.वी. चैनलों पर वास्तविकता पर आधारित खबरें प्रसारित की जाएं ताकि लोग देश को दरपेश गंभीर मुश्किलों और अर्थव्यवस्था के बारे में जागरूक हों। 

प्रसारित बहसों के अंदर यदि विभिन्न धर्मों, समाज तथा राजनीतिक विचारों से जुड़े प्रवक्ता अपने-अपने विचार रखते हुए बहस के अंत में समाज में व्याप्त साम्प्रदायिकता के खिलाफ बोलें तो ज्यादा बेहतर होगा। साम्प्रदायिकता का प्रचार और धर्म के आधार पर समाज को बांटने वाला कोई भी विचार प्रकटाने की सख्त मनाही होनी चाहिए। इस तरह का संदेशा बहसों द्वारा जनता तक पहुंचाना मीडिया की जिम्मेदारी है। मगर संघ समर्थक मोदी सरकार तथा इसका मीडिया कभी भी ऐसा नहीं करेगा। मीडिया के इस व्यवहार के खिलाफ जागरूकता पैदा करने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों, सामाजिक तथा धार्मिक संगठनों और संवेदनशील व्यक्तियों को यह कार्य अपने जिम्मे लेना होगा।-मंगत राम पासला

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