बदल रही है ‘मोबाइल की दुनिया’, संभल कर इस्तेमाल करें

Edited By ,Updated: 13 Dec, 2019 04:07 AM

mobile world is changing please use it

फोन पर सिर्फ जरूरी बात करें। फोन पर फालतू बात न करें। ध्यान रखें, हो सकता है किसी को कोई बेहद  जरूरी बात करनी हो, लाइन व्यस्त न रखें। इस तरह की लाइनें पहले दूरसंचार विभाग या टैलीफोन दफ्तरों में लगे बोर्डों पर लिखी रहती थीं और टैलीफोन डायरैक्टरी के...

फोन पर सिर्फ जरूरी बात करें। फोन पर फालतू बात न करें। ध्यान रखें, हो सकता है किसी को कोई बेहद  जरूरी बात करनी हो, लाइन व्यस्त न रखें। इस तरह की लाइनें पहले दूरसंचार विभाग या टैलीफोन दफ्तरों में लगे बोर्डों पर लिखी रहती थीं और टैलीफोन डायरैक्टरी के पन्नों पर भी बीच-बीच में सुंदर विज्ञापनों के रूप में दिखती थीं।

देश में उदारीकरण और टैलीकॉम कारोबार में  निजी कम्पनियों के आने यानी मोबाइल फोन शुरू होने के बाद भी यह किस्सा खत्म नहीं हुआ था। 1995 में जब पहली मोबाइल सर्विस शुरू हुई तो कॉल करने का खर्च भी 16 रुपए प्रति मिनट था और बाहर से आने वाली कॉल उठाने का भी। तब तक कॉलर लाइन आइडैंटिफिकेशन यानी सामने वाले का नंबर देखने की सुविधा भी नहीं आई थी। तो यह पता करने का रास्ता भी नहीं था कि कौन-सा फोन उठाना है और कौन-सा नहीं। तो यहां भी वही फार्मूला चलता था-कम से कम बात करो। सरकारी टैलीफोन पर एक रोना और था। सौ यूनिट तक कॉल सस्ती होती थी, 100 से 500 तक रेट बढ़ जाता था और 500 के ऊपर तो बहुत ही ज्यादा हो जाता था। तो चुनौती यही रहती थी कि बात कम से कम करो। जिन घरों में टैलीफोन होते भी थे, वहां उनका इस्तेमाल शोभा बढ़ाने के लिए ही ज्यादा होता था। 

फिर तस्वीर बदली
लेकिन यह तस्वीर बदलनी थी, और बहुत जोर-शोर से बदलनी थी। इसका पहला संकेत 1997 में मिला। भारती एयरटैल को मध्य प्रदेश में बेसिक टैलीफोनी यानी लैंडलाइन टैलीफोन का लाइसैंस मिला था। उसकी शुरूआत इंदौर में हुई। वहीं सुनील भारती मित्तल ने हमें समझाया कि अब दुनिया कैसे बदलेगी। आप किसी दुकान से सामान खरीदते हैं तो कम खरीदने पर महंगा मिलता है। ज्यादा खरीदने पर कुछ रियायत मिलती है। और ज्यादा खरीदेंगे तो और रियायत। बस यही मेरे बिजनैस में समझिए। हमने इतना बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर लगाया है, एक्सचेंज लगाया, लाइनें खींचीं। अगर लोग इसका जमकर इस्तेमाल करेंगे तो हमें कमाई होगी तथा हम और इंतजाम करेंगे। अगर कोई इस्तेमाल ही नहीं करेगा तो हम कमाएंगे क्या? 

इसीलिए आप हमारे रेट आने दीजिए, तब पता चलेगा कि दुनिया कैसे बदलेगी। जो जितनी ज्यादा बात करेगा, उतने कम पैसे देगा। इसी बात का दूसरा सिरा मुझे समझाया दिल्ली में एम.टी.एन.एल. के सी.एम.डी. एस. राजगोपालन ने। यह तब की बात है जब एम.टी.एन.एल. दिल्ली में मोबाइल सर्विस शुरू कर रहा था। तब तक मोबाइल फोन बड़े लोगों के हाथ में होता था और आम तौर पर स्टेटस सिम्बल ही माना जाता था। मेरा सवाल था कि एयरटैल और एस्सार जैसे बड़े खिलाड़ी बाजार में हैं। एम.टी. एन.एल. क्या खास देगा जो इनसे अलग होगा? राजगोपालन ने कहा ‘‘आपको क्या लगता है, मोबाइल फोन की सबसे ज्यादा जरूरत किसे है? मेरे जैसे आदमी को, जिसके घर पर फोन है, फोन अटैंड करके मैसेज नोट करने वाला असिस्टैंट है। कार से मैं ऑफिस आता हूं और यहां भी पूरा इंतजाम है कि जो भी मुझसे बात करना चाहता है उसकी खबर रजिस्टर पर नोट होती है। बस घर से दफ्तर के बीच जो वक्त लगा, वही बचेगा।’’

अब उस आदमी की सोचिए जो प्लंबर है, इलैक्ट्रिशियन है या बढ़ई है। दिन भर घूम-घूम कर काम करता है और सिर्फ रात में घर पहुंचता है। अगर उसका कोई ग्राहक उसे संदेश देना चाहे तो कोई रास्ता नहीं है। घर के पास कहीं कोई पब्लिक फोन है, जहां से उसे संदेश पहुंच सकता है, लेकिन इसमें करीब-करीब पूरा दिन तो लग ही जाएगा। इस फोन की सबसे ज्यादा जरूरत तो उसी आदमी को है, और यही हमारा काम है कि हम ऐसे हर आदमी के हाथ में मोबाइल फोन पहुंचा दें। तब यह बात कुछ ऊंची उड़ान-सी ही लग रही थी। लेकिन 22 साल बाद आज जब याद करता हूं तो लगता है कि वे भविष्य देख रहे थे। भविष्य जो हमें नहीं दिख रहा था। 

सिर्फ कर्म करना फल की चिंता किए बगैर
मुफ्त के डेटा का ही प्रताप है कि सुबह होने से पहले और रात होने के बाद तक आपके मोबाइल पर तरह-तरह के संदेशों और उनके साथ वीडियो, ऑडियो, मीम और इंटरैक्टिव ग्राफिक्स की अविरल धारा बहती रहती है। इंसान सोचता भी नहीं है कि उसे क्या मिला है और क्या उसे आगे बढ़ाना है। नि:स्वार्थ भाव से बटन दबाता रहता है और इनबॉक्स में आने वाली सारी सामग्री अपने सभी मित्रों और सभी ग्रुप्स तक प्रसारित करता रहता है। यानी सिर्फ कर्म करना है फल की चिंता किए बगैर।-आलोक जोशी

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